हमारे देश में हर गांव लगभग एक ही तरह का होता है। लेकिन कुछ गांव ऐसे होते हैं, जो गांव होकर भी इतिहास में अपना नाम दर्ज करवा लेते हैं। चेन्नई से 207 किलोमीटर दूर कड्डलोर ज़िले (तमिलनाडु) में परंगीपेट्टई गांव भी भारत के किसी आम गांव की तरह ही है, लेकिन भारत के औपनिवेशिक और व्यापारिक इतिहास के साथ इसके महत्वपूर्ण संबंध को काफ़ी हद तक भुला दिया गया है।
इसी गांव में दूसरे एंग्लो-मैसूर युद्ध (1780-1784) के दौरान हैदर अली और अंग्रेज़ों के बीच लड़ाई हुई थी। यह भारत के लोह और इस्पात उद्योगों के इतिहास का जमशेदपुर भी हो सकता था, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। वेल्लर नदी के मुहाने और कोरोमंडल तट के क़रीब होने की वजह से परंगीपेट्टई भारतीय इतिहास के सुनहरे पन्नों का हिस्सा बना।
परंगीपेट्टई के आरंभिक इतिहास के बारे में ज़्यादा जानकारी उलब्ध नहीं है। स्थानीय कथाओं के अनुसार 7 वीं शताब्दी के दौरान कई अरब व्यापारी यहां आकर बसने लगे थे। हज़रत उकाशा जैसे संत भी यहां आए थे, जिनकी दरगाहें आज परंगीपेट्टई में हर जगह देखी जा सकती हैं। इस सबकी की वजह से अरबू-तमिल या अरवी भाषा (अरबी और तमिल भाषा का मिश्रण) का जन्म हुआ, जो आज भी तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में बोली जाती है।
16वीं शताब्दी के अंत में पुर्तगाली कोरोमंडल तट में बस गए और यहां उन्होंने एक व्यापारिक केंद्र की स्थापना की, जिसका नाम पोर्टो नोवो (न्यू पोर्ट या नया बंदरगाह) रखा गया। बाद में डच, फ्रांसीसी अंग्रेज़ों ने भी यहां अपने-अपने व्यापारिक केंद्र बना लिये। अपने नीले कपड़े, छींट वाले सूती कपड़ों और अन्य चीज़ों के लिए परंगीपेट्टई पहले से ही मशहूर था, और आर्कोट में स्थापित होने के बाद 18वीं शताब्दी की शुरुआत में ये मुग़लों का एक महत्वपूर्ण बंदरगाह बन गया। यूरोप के लोगों को बिना किसी बंदिश के व्यापार करने की सुविधाएं दी गई। नतीजे में फ़्रांसीसी और ब्रिटिश एक-दूसरे के ज़बरदस्त प्रतियोगी की तरह उभरे।
पोर्टो नोवो की जंग
सत्ता की लालसा अब बड़े पैमाने पर हस्तक्षेप करने लगी थी, जो कर्नाटक युद्धों (1746-1763) और एंग्लो-मैसूर युद्धों के दौरान बिल्कुल साफ़ दिखाई देती थी। पहले एंग्लो-मैसूर युद्ध (1766-1769) के दौरान अंग्रेज़ मैसूर के शासक हैदर अली (1720-1782) से हार गये थे। उसके बाद अंग्रेज़ों ने अपने खोए हुए क्षेत्रों को दोबारा हासिल करने की कोशिश की, और सन 1779 में फ्रांसीसी बंदरगाह माहे पर क़ब्जा कर लिया। इसी वजह से हैदर अली और फ्रांसीसी फ़ौज ने मिलकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जंग छेड़ दी, जिसे अब दूसरे मैसूर युद्ध के रूप में जाना जाता है। 10 सितंबर, सन 1780 को कांचीवरम की पहली लड़ाई में जीत हैदर अली की हुई।
उसके बाद हारे हुए अंग्रेज़ों को नौसैना की ताक़त मिल गई थी, इसीलिये उन्होंने कोरोमंडल तट पर फ्रांसीसी चौकियों पर कब्जा कर लिया। एक जुलाई, सन 1781 को उन्होंने परंगीपेट्टई में फ़्रांस और उनके मैसूर-सहयोगियों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी, जिसे अब पोर्टो नोवो के युद्ध के नाम से जाना जाता है। अब वेल्लार नदी और तट पर अंग्रेज़ों के पास सशस्त्र जहाज़ हो गये थे और उन्होंने तोपों के ज़बरदस्त हमलों से फ़्रांसीसियों और मैसूर सेना के दांत खट्टे कर दिये। कई झड़पों के बाद , 11 मार्च, सन 1784 को दोनों पक्षों में शांति के लिये मैंगलोर संधि हुई। 18 वीं शताब्दी के अंत में मैसूर के शेष युद्धों के बाद कोरोमंडल तट अंग्रेज़ों के अधीन हो गया, जबकि फ़्रांसीसी, पांडिचेरी, माहे और कराईकल में सिमट कर रह गये।
भारत में पहला लोह और इस्पात उद्योग
समृद्ध व्यापारिक इतिहास में भारत की क्या भूमिका रही, ये काफी हद तक अज्ञात है। लेकिन दिलचस्प बात यह है, कि परंगीपेट्टई का इसमें बड़ा योगदान रहा है। सन 1830 में अंग्रेज़ों ने भौगोलिक स्थिति की वजह से परंगीपेट्टई का एक बार फिर फ़ायदा उठाया। धातुविद् और पक्षी विज्ञानी जोशिया मार्शल हीथ, जो 19 वीं शताब्दी की शुरुआत में कोयंबटूर-नीलगिरी ज़िले के वाणिज्यिक आवासीय थे। उन्होंने यहां लोहा बनाने का एक कारख़ाना शुरू किया जिसे भारत में लोहे बनाने का पहला कारख़ाना माना जाता है।
एक सरकारी कर्मचारी के रूप में हीथ ने उस समय के प्रयोगों पर आधारित नये प्रयोग किये और लोहे तथा इस्पात के उत्पादन की कला पर महारत हासिल की। उन्होंने भारत में धातु-विज्ञान प्रणाली को भी समझा। उस समय अंग्रेज़ स्वीडिन और रूस से ऊंचे दामों पर इस्पात ख़रीदते थे। इसे देखते हुए हीथ ने मद्रास के गवर्नर और अपने दोस्त थॉमस मुनरो (1820-1827) के साथ मिलकर भारत में लोहा बनाने का पहला कारख़ाना स्थापित किया।
कारख़ाना चलाने के लिए लकड़ी के कोयले की ज़रुरत को पूरा करने के लिये इस क्षेत्र के आसपास घने जंगल थे। इसे देखते हुए हीथ ने कोयले और लोह अयस्क की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए सेलम और परंगीपेट्टई के बीच छोटी-छोटी नहरों का निर्माण भी करवाया। हीथ को यूरोपीय वैज्ञानिक तर्ज़ पर कारख़ाना लगाने का विशेषाधिकार मिल गया। इसके अलावा उन्हें दक्षिण एवं उत्तर आर्कोट, त्रिची, सालेम, कोयमबटूर और मालाबार से तैयार माल ख़रीदने के लिये अच्छा ख़ासा कर्ज़ भी मिल गया, जिसकी अदायगी 21 साल में होनी थी। इस तरह से उन्होंने ये उपक्रम लगाया और अपने जोखिम, श्रम तथा ख़र्चे से मुनासिब लाभ कमाया।
मद्रास और ब्रिटेन को अच्छी क़िस्म का लोहा निर्यात करने के लिये सन 1830 में पोर्टो नोवो के कारख़ाने में काम शुरु हो गया। हीथ की इस पहल से भारत और ब्रिटेन की लोहे की ज़रुरतें तीस साल तक पूरी होती रहीं। लेकिन इस दौरान कई अड़चनें भी आईं । सन 1840 में क़र्ज़ बहुत बढ़ गया, जिसकी वजह से जोशिया को कारख़ाने का मालिकाना हक़ ईस्ट इंडिया कंपनी को देना पड़ा। सन 1855 आते-आते कारख़ाने में 2 हज़ार 150 टन लोहे का उत्पादन होने लगा। लेकिन विकास कार्यों की वजह से बढ़ती मांग, अनुभव की कमी, अधूरी मशीनों, सन 1858 के बाद सत्ता परिवर्तन के कारण नीतियों में बदलाव और अत्याधिक कर्ज़ की वजह से ये कंपनी सन 1867 में बंद हो गई। भारत में इस ख़ालीपन को बाद में टाटा ने भरा। टाटा ने सन 1907 में, जमशेदपुर में लोहे के उत्पादन का अपना पहला कारख़ाना लगाया था।
आज, परंगीपेट्टई उस गौरवशाली समुद्री इतिहास का ख़ामोश गवाह है, जिसमें वह कभी फला-फूला था। यहां की उस ज़माने में की गई पहल भारत में औद्योगीकरण का आधार बनी। यहां की सड़कें और गलियां आज भी परंगीपेट्टई के अनजान लेकिन दिलचस्प ऐतिहासिक पहलू के उजागर होने का इंतज़ार कर रहे हैं।
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