राजेंद्र मुल्लिक और कोलकाता में उनका मार्बल पैलेस

राजेंद्र मुल्लिक और कोलकाता में उनका मार्बल पैलेस

क्या आपको पता है कि हुगली नदी के पूर्वी तट पर स्थित कोलकाता शहर को “सिटी ऑफ़ पैलेसेस” (महलों का शहर) उपनाम दिया गया है? ये उपनाम इसलिए रखा गया है क्योंकि यहां महलों की तरह दिखने वाली भव्य कोठिया (रजबाड़ियां) हैं जिन्हें समृद्ध बंगाली बाबुओं ने बनवाया था। इसी तरह की एक कोठी है जिसे मार्बल पैलेस (संगमरमर का महल) कहते हैं जो सुनहरे समय की याद दिलाता है। मार्बल पैलेस राजेंद्र मुल्लिक ने सन 1835 में बनवाया था।

सन 1757 में पलासी की लड़ाई के बाद जब बंगाल ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन हो गया तब इस रियासत में कई सामाजिक-आर्थिक बदलाव हुए जिनके दूरगामी नतीजे निकले। पश्चिमी शिक्षा प्रणाली की वजह से लोगों का एक नया वर्ग बन गया जिसे भद्रलोक कहा जाता था। इस वर्ग में ज़्यादातर लोग अमीर, सवर्ण , पेशेवर और शिक्षित हिंदू कुलीन वर्ग से थे। बंगाल के नवजागरण का श्रेय इन्हीं लोगों को जाता है। यह लोग पश्चिम उन्नमुख प्रगतिशील विचारधारा और साहित्यिक अभिरुचि के लिए जाने जाते थे। उन्होंने शुरु में ईस्ट इंडिया कंपनी के बिचौलिए के रुप में काम किया और बाद में ख़ुद अपना कारोबार करने लगे। राजेंद्र मुल्लिक के वंशज इसी माहौल से उपजे थे।

चोर बगान का मुल्लिक परिवार बंगाली अभिजात वर्ग के सबसे पुराने और पहले परिवारों में से एक है। वे बैंकिंग व्यवसाय में थे और बंगाल, उत्तर-पश्चिमी प्रांतों तथा चीन, सिंगापुर और अन्य देशों में बड़े पैमाने पर व्यापारिक कारोबार भी करते थे। इस परिवार के नीलमणी मुल्लिक (1775-1821) परोपकारी गतिविधियों, धर्मपरायणता और दान-पुण्य के लिए जाने जाते थे। उदाहरण के लिए उन्होंने चोर बगान में जगन्नाथ ठाकुरबाड़ी मंदिर बनवाया था। इसके अलावा उन्होंने मंदिर के पास ही एक अतिथि शाला (धर्मशाला) भी बनवाई थी, जहां बड़ी संख्या में ग़रीबों को खाना खिलाया जाता था। दुर्भाग्य से 46 साल की उम्र में उनका निधन हो गया और उनके दत्तक पुत्र राजेंद्र उनकी अपार संपत्ति के वारिस बन गए।

राजेंद्र मुल्लिक का जन्म 24 जून सन 1819 को हुआ था और उन्होंने हिंदू कॉलेज से पढ़ाई-लिखाई की थी। वह भी एक बड़े व्यापारी बन गए और सोने के कारोबार में उन्होंने ख़ूब धन कमाया। बचपन से ही उन्का रुझान कला और प्राकृतिक इतिहास की तरफ़ था। वह एक बड़े संकलनकर्ता थे जो उनके मार्बल पैलेस में झलकता है। मार्बल पैलेस का निर्माण सन 1835 में शुरु हुआ था। इस पैलेस का निर्माण उसी ज़मीन पर हुआ था जिस पर उनके पिता ने जगन्नाथ मंदिर बनवाया था। इसका नाम मार्बल पैलेस इसलिए रखा गया क्योंकि इसकी तीन मंज़िलों में 90 क़िस्म के पैटर्न वाले संगमरमर लगे हुए हैं।

इसकी डिज़ाइन फ़्रांस के एक वास्तुकार ने न्यो-क्लासिकल शैली में बनाई थी जिसमें पारंपरिक बंगाली शैली का भी पुट था। ये पैलेस उस समय के सबसे भव्य भवनों में से एक था। पैलेस में तीन मंज़िले हैं और हर मंज़िल में बेशक़ीमती चीज़े रखी हुई हैं जो राजेंद्र मुल्लिक ने दुनिया भर से जमा की थीं। राजेंद्र को नवजागरण काल की कला संबंधी चीज़ें जमा करने का शौक़ था और पैलेस भी उसी समय की वास्तुकला की तर्ज़ पर बनाया गया है।

भव्य प्रवेश द्वार से आप जैसे ही भीतर जाएंगे आपको सामने एक चौड़ा, खुला हराभरा मैदान नज़र आएगा। यहां पेड़ों की कई आकर्षक क़िस्में, फव्वारे, संगमरमर की सुंदर मूर्तियों से सुसज्जित एक पोखर और रॉक गार्डन है। इसके अलावा यहां हिंदू देवताओं, ईसा मसीह, वर्जिन मेरी, भगवान बुद्ध, खोजी यात्री क्रिस्टोफ़र कोलंबस और कुछ बाघों की मूर्तियां या अर्ध मूर्तिया भी लगी हुई हैं। अपने आरंभिक दिनों में इस कोठी में एक छोटा-सा चिड़ियाघर हुआ करता था जिसमें पशु-पक्षी होते थे। ये पशु-पक्षी राजेंद्र ने या तो ख़ुद हासिल किए थे या फिर उन्हें तोहफ़े में मिले थे। बाद में इन्हें कलकत्ता चिड़ियाघर को सौंप दिया गया।

कोठी का भीतरी आंगन एक भव्य ठाकुर-दालान से जुड़ा हुआ है जहां रामायण के दृश्य बने हुए हैं। गलियारों में कई यूरोपीय मूर्तियां, ख़ासकर यूनानी और रोमन पौराणिक कथाओं के देवी-देवताओं की मूर्तियां लगी हुई हैं। कोठी के कमरों में कांच के बड़े-बड़े फ़ानूस और दीवारों पर बड़े सुंदर आईनें लगे हुए हैं। फ़र्श पर दुर्लभ ईरानी क़ालीन बिछे हुए हैं और मिंग राजवंश के समय के गुलदान-बर्तन रखे हुए हैं। आप जैसे ही लकड़ी की बनी सीढ़ियां चढ़ेंगे, वहां आपको 19वीं सदी के प्रसिद्ध चित्रकारों की कुछ बेहतरीन पेंटिंग देखने को मिलेंगी।

लेकिन आलोचकों का कहना है कि कलाकृतियों का संग्रह मंहगा ज़रूर है लेकिन क़ीमती और असली कलाकृतियों के बीच में कई भड़कीली कलाकृतियां भी रखी हुई हैं जो महज़ दिखने में ही अच्छी लगती हैं।लेकिन उननकी कोई ख़ास क़ीमत नहीं है।

लेकिन ऐसा नहीं है कि राजेंद्र मुल्लिक ने सिर्फ़ यहीं चीज़ें ख़रीदने में अपना पैसा ख़र्च किया । अपने पिता की तरह वह भी परोपकारी थे। 1865-66 के अकाल के दौरान वह रोज़ाना पांच हज़ार से ज़्यादा लोगों को खाना खिलाते थे। उन्होंने राहत कार्य में 40 हज़ार से ज़्याद रुपये दिए थे। उनकी उदारता को देखते हुए सरकार ने उन्हें “राय बहादुर” की उपाधि से सम्मानित किया था।

मार्बल पैलेस आज भी मुल्लिक परिवार का निजी निवास है लेकिन आप पर्यटन विभाग से इजाज़त लेकर इसे देख सकते हैं। इसे देखने का कोई टिकट भी नहीं लगता। अगली बार आप जब कोलकाता जाएं तो इस भव्य मार्बल पैलेस को ज़रुर देखें।

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