भंगियों की तोप: सिख सैन्य इतिहास का एक अहम गवाह

भंगियों की तोप: सिख सैन्य इतिहास का एक अहम गवाह

पाकिस्तान के लाहौर शहर की माल रोड (नया नाम शहरा-ए-क़ायदे आज़म) से नासिर बाग़ या नैशनल कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स (पुराना नाम मेयो स्कूल ऑफ़ आर्ट्स) के सामने से निकलते हुए, लाहौर सेन्ट्रल म्यूज़ियम के सामने पहुंचकर राहगीरों की चाल अपने आप धीमी पड़ जाती है और क़दम आगे बढ़ने की इजाज़त नहीं देते। इस म्यूज़ियम के सामने चौराहे पर रखी ‘ज़मज़मा तोप की बनावट और इतिहास हर किसी को अपने मोहजाल में बांध लेता है। यह तोप ‘भंगियों की तोप’ के नाम से मशहूर है। 18वीं सदी में पंजाब में सिखों ने मिसलें क़ायम की थीं। भंगी मिसल उन्हीं में से एक थी।

1903 में जेम्स रिकलटन द्वारा कैमरे से खींची गयी भंगियों की टॉप की तस्वीर | लेखक

इतिहास में मशहूर ‘भंगियों की तोप’ और एक ऐसी ही दूसरी तोप, सन 1761 (कुछ इतिहासकारों ने सन 1757 लिखा है) में अब्दाल के बादशाह अहमद शाह दुर्रानी के हुक्म से उसके राज्य के प्रधानमंत्री शाह वली ख़ान ने बनवाई थी । यह तोप,ज़जिया (टैक्स) के तौर पर लाहौर के हिन्दुओं के घरों से पीतल के बर्तन वसूल करके लाहौर के कारीगर शाह नज़ीर से ढ़लवाई गई थी। इस तोप की बाहरी परत साढे़ 4 फ़ुट मोटी है। इसकी लंबाई साढ़े 14 फ़ुट और इसके मुंह का सुराख साढ़े 9 ईंच रेडियस(वृत्त) है।

सन 1761 में पानीपत की तीसरी जंग में अहमद शाह अब्दाली को इसी तोप की वजह से जीत हासिल हुई थी। वह युद्ध से लौटते हुए ज़मज़मा तोप को अपने गवर्नर ख्वाज़ा उबैद ख़ान के पास लाहौर में ही छोड़ गया था और दूसरी तोप को अपने साथ काबुल ले गया था। वह तोप दरिया पार करते हुए चेनाब नदी में गिर गई। सन 1762 में सरदार हरि सिंह भंगी ने लाहौर से चार किलोमीटर दूर गांव ख़्वाजा सैयद के मुक़ाम पर उबैद ख़ान पर हमला कर, उससे ज़मज़मा तोप छीन ली और लाहौर पर भी क़ब्ज़ा कर लिया। सन 1764 तक यह तोप लहिणा सिंह और गुज्जर सिंह भंगी के क़ब्ज़े में लाहौर के शाही बुर्ज में रखी रही। सरदार चढ़त सिंह शुक्रचक्किया (महाराजा रणजीत सिंह के दादा) ने भी उस लड़ाई में भंगी सरदारों का साथ दिया था, इसलिए लाहौर में, अपने हिस्से के तौर पर उन्होंने भंगी सरदारों से यह तोप ले ली। उन्होंने इस तोप को अपने गुजरांवाला क़िले में रखा। सन 1772 में अहमद नगर के मुक़ाम पर चढ़त सिंह शुक्रचक्किया के चट्ठे पठानों से हुए युद्ध में यह तोप उनके पास चली गई। वे इसे रसूल नगर ले गए। वहां ये तोप अहमद ख़ान चट्ठा और पीर मोहम्मद ख़ान चट्ठा के क़ब्ज़े में रही।

 

1780 में सिख मिसलों को दर्शाता उत्तर भारत का मानचित्र | विकी कॉमन्स

सन 1773 में मुल्तान की लड़ाई से लौटते हुए जब झंडा सिंह भंगी ने चट्ठा सरदारों पर हमला किया तो हार मानने पर, उन्होंने ये तोप, सुलह के तौर पर झंडा सिंह भंगी को दे दी। झंडा सिंह भंगी पहले इस तोप को अपनी राजधानी गुजरात (मौजूदा समय पाकिस्तान में) ले गया और बाद में इसे अमृतसर ले आया। अमृतसर लाकर उसने इसे अपने, सन 1767 में बनाए क़िला भंगिया में रख दिया। उसके बाद यह तोप ‘भंगियों की तोप’ के नाम से ही मशहूर हो गई और सन 1802 तक इसी क़िले में रही।

भंगियों की तोप, वर्तमान लाहौर में | लेखक

महाराजा रणजीत सिंह ने इसी तोप को लेने का बहाना बनाकर सन 1802 में अमृतसर पर क़ब्ज़ा किया था। महाराजा ने उस समय अमृतसर पर क़ाबिज़ गुरदित सिंह भंगी की मां रानी सुखा से कहा, कि वे अपने दादा सरदार चढ़त सिंह शुक्रचक्किया के हिस्से में आई तोप को लेने आए हैं। रानी के इनकार करने पर उन्होंने अमृतसर पर हमला करके तोप और पूरे शहर को अपने कब्जे में ले लिया। महाराजा ने इस तोप से अन्य रियासतों सहित जब मुल्तान के क़िले पर गोले बरसाए तो इसकी हालत काफ़ी ख़स्ता हो गई थी। इसी वजह से उस के बाद यह तोप लम्बे समय तक लाहौर में दिल्ली दरवाज़े के सामने रखी रही। 22 दिसम्बर,सन 1845 को सिखों के साथ हुए युद्ध के बाद ‘भंगियों की तोप’ अंग्रेज़ों के पास चली गई। फ़रवरी,सन 1870 में एडनबर्ग के अलफ़र्ड ड्यूक (क्वीन विक्टोरिया के दूसरे पुत्र) के लाहौर आने पर वहां लगाई प्रदर्शनी में ये दिल्ली दरवाज़े के सामने ही रखी हुई थी। बाद में कुछ समय के लिए इसे अनारकली बाज़ार के बाहर रखा गया। सन् 1870 के अंत में इसे इसके मौजूदा स्थान पर रख दिया गया। अलग-अलग सरदारों, जरनैलों, राजाओं और हुक्मरानों की सरपरस्ती में कई इतिहासिक जंगें जीत चुकी ‘भंगियों की तोप’ आज लाहौर सैन्ट्रल म्यूज़ियम सहित पूरे लाहौर की शान बनी हुई है। पाकिस्तान सरकार ने इसकी अहमियत समझते हुए इसे लाहौर की ऐतिहासिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है।

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