कंधार में मौर्य सम्राट अशोक के दिलचस्प फ़रमान

कंधार में मौर्य सम्राट अशोक के दिलचस्प फ़रमान

आजकल तालिबान फिर ख़बरों में हैं, इसीलिये क़ंधार भी सुर्ख़ियों में है। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं, कि यह शहर दो हज़ार साल पहले भी चर्चाओं में रहा करता था। क़ंधार में दो हज़ार साल से भी ज़्यादा पुराने दो अभिलेख मौजूद हैं, जिनका संबंध, प्राचीन भारत के सबसे लोकप्रिय शासकों में से एक अशोक से है।

दिलचस्प बात यह है, कि इन अभिलेखों में से एक, अशोक का सबसे शुरुआती अभिलेख है। तीसरा मौर्य शासक अशोक, मौर्य राजवंश का सबसे शक्तिशाली राजा था। लगभग 273 ई.पू. से लेकर 236 ई.पू. तक उसके शासनकाल के दौरान मौर्य साम्राज्य अपने चरम पर था। दक्षिणी क्षेत्रों को छोड़कर उसका साम्राज्य लगभग पूरे उपमहाद्वीप में फैला हुआ था। अशोक के जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ कलिंग युद्ध था। युद्ध से पहले अशोक एक ज़ालिम शासक हुआ करता था, जो अपना साम्राज्य दूर-दूर तक फैलाना चाहता था। युद्ध में हुए ख़ून-ख़राबे को देखने के बाद अशोक को अपने किये पर बहुत पछतावा हुआ, और जल्द ही उसने बौद्ध धर्म अपना लिया। उसने अपने साम्राज्य में धम्म (धर्म) का संदेश फैलाने के लिये अभिलेख लिखवाये। अशोक ने क़रीब तीस अभिलेख लिखवाये थे। इन अभिलेखों से शक्तिशाली सम्राट के इतिहास की जानकारी मिलती है। इन अभिलेखों को उनके विषय और जिस सतह पर वे उकेरे गए हैं, उसके आधार पर वर्गीकृत किया गया है, जैसे छोटी चट्टानों पर लिखे गये अभिलेख, प्रमुख चट्टानों पर लिखे गये अभिलेख, छोटे स्तंभों पर लिखे गये अभिलेख और गुफाओं के अंदर लिखे गये अभिलेख। सवाल यह है, कि अशोक ने यह अभिलेख अपनी राजधानी पाटलिपुत्र से मीलों दूर कंधार में क्यों लिखवाये थे?

पूरे उपमहाद्वीप में अशोक के शिलालेख | विकिमीडिआ कॉमन्स

अशोक ने बहुत सोच समझकर अपने सभी अभिलेखों को अपनी राजधानी में नहीं, बल्कि अपने राज्य की सीमाओं के पार व्यापारिक मार्गों, और पवित्र तीर्थ-स्थलों पर लिखवाया था, ताकि उनका संदेश सिर्फ़ उनकी प्रजा तक ही नहीं, बल्कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंच सके। आज ये अभिलेख भारतीय उपमहाद्वीप में जगह-जगह पाए जाते हैं।

प्राचीन काल के इतिहास में क़ंधार एक महत्वपूर्ण क्षेत्र रहा है। दक्षिण अफ़ग़ानिस्तान में मौजूदा समय के कंधार शहर के पास पुराना कंधार है। प्राचीन काल में इसे अलेक्ज़ेड्रिया अरकोसिया कहा जाता था। ये उन कई शहरों में से एक था, जिसे महान ग्रीक शासक सिकंदर ने बनावाया या फिर बसाया था। इनका नाम सिकंदर के नाम पर रखा गया था। इस ऐतिहासिक शहर की स्थापना क़रीब 330 ई.पू. में हुई थी, जिस पर बाद में कई राजवंशों ने शासन किया। इस पर मौर्य (322-185 ई.पू.), इंडो-स्काथियन (200 ई.पू.-400 ई.), सस्सनिद (224-651) मुग़ल (1526-1857), सफ़ाविद (1501-1736) जैसे शक्तिशाली राजवंशों ने शासन किया था।

चूंकि ऐतिहासिक रूप से कंधार अपनी भौगोलिक स्थिति की वजह से महत्वपूर्ण रहा है इसलिये तमाम राजवंश इस पर कब्ज़ा करना चाहते थे। एशिया में स्थित ये क्षेत्र भारतीय उपमहाद्वीप को मध्य एशिया और मध्य पूर्व से जोड़ता था। अशोक ने इस क्षेत्र में अपने अभिलेख लिखवाने का फ़ैसला किया, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

लेकिन विडंबना यह है, कि अशोक के आरंभिक अभिलेख का पता बहुत बाद में चला। अशोक का शुरूआती अभिलेख सन 1958 में कंधार शहर के पास, पुराने कंधार में चेहेल की पहाड़ी की एक चट्टान पर मिला। इसके बारे में तुरंत फ़्रांसीसी और इतालवी विद्वानों को बताया गया, जिन्होंने इस अभिलेख का अध्ययन किया।

चेहेल की पहाड़ी | विकिमीडिआ कॉमन्स

अशोक के अनेक अभिलेखों में से यह संभवत: सबसे अनोखा अभिलेख है। उसके ज़्यादातर अभिलेख प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में लिखे गए थे, लेकिन यह अभिलेख शास्त्रीय यूनानी और इब्रानी (सीरियाई भाषा) में लिखा गया था। कंधार द्विभाषी शिलालेख के रूप में मशहूर चट्टान पर लिखा यह अभिलेख दरअसल अशोक का सबसे पुराना अभिलेख है। उसके शासन के 10वें वर्ष में लगभग 260 ई.पू. में लिखा गया यह फ़रमान यूनानवादी दुनिया के साथ लगी, उसके साम्राज्य की सीमा पर लिखा गया था। इसे छोटी चट्टानों पर लिखे गये अशोक के फ़रमानों में से एक माना जाता है। छोटी चट्टानों पर लिखे गये अशोक के फ़रमानों उसके आरंभिक फ़रमान माने जाते हैं। इसके बाद के फ़रमान, बड़ी चट्टानों और स्तंभों पर लिखे गये थे।

कंधार में मिला छोटा फ़रमान भारतीय उपमहाद्वीप में पाए गए अन्य सभी छोटे फ़रमानों से पहले का है। हालांकि स्थान के अनुसार इन फ़रमानों की विषय-वस्तु थोड़ी भिन्न है, लेकिन इनमें ज़्यादातर में धर्म की ही बात कही गई हैं। अशोक ने धर्म के अपने संदेश को फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। अभिलेख का यूनानी भाग संभवत: उसकी यूनानी (यवन) प्रजा के लिए था। इब्रानी भाषा, फ़ारस (ईरानी) सरकार की भाषा थी, और हो सकता है, कि फ़रमान का यह हिस्सा मौर्य साम्राज्य के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में बसे कम्बोजों के लिए लिखा गया हो। हालंकि फ़रमान छोटा है लेकिन यह अशोक की सोच में बदलाव साफ़ दिखाई देता है। इसमें कहा गया है, कि कैसे अशोक ने किसी भी प्राणी को मारने की मनाही की थी। इसमें यहां तक कहा गया है, कि कैसे राजाओं के शिकारियों और मछुआरों ने शिकार करना छोड़ दिया था, और वे कैसे अधिक आज्ञाकारी और सभ्य
हो गए थे।

“राजा पियदस्सी (अशोक) अपने राज्याभिषेक के दस वर्ष बीत जाने के बाद से प्रजा के प्रति भक्ति का संदेश देते रहे हैं। और तब से उन्होंने लोगों को और अधिक धार्मिक बनाया है, और सारी पृथ्वी पर सब लोग ख़ुशहाल हो गये हैं।”

कंधार में अशोक का यूनानी शिलालेख | विकिमीडिआ कॉमन्स

दिलचस्प बात यह है, कि अशोक की ताक़त का अंदाज़ा अभिलेख के इब्रानी भाग से लगाया जा सकता है, जिसमें “हमारे भगवान, प्रियदर्शी (अशोक)” लिखा हुआ है। अभिलेख से अफ़ग़ानिस्तान के दक्षिणी क्षेत्र पर अशोक के नियंत्रण का पता चलता है, जो संभवत: लगभग 305 ई.पू. में सेल्यूकस और चंद्रगुप्त मौर्य के बीच शांति समझौते के बाद हुआ होगा, जिसके तहत सेल्यूकस ने ये क्षेत्र मौर्य राजा को सौंप दिया था।

द्विभाषी फ़रमान से कुछ किलोमीटर दूर, लगभग एक दशक बाद सन 1964 में एक और अशोक अभिलेख मिला था, जिसे अशोक के “कंधार-यूनानी फ़रमान” के रूप में जाना जाता है। ये अभिलेख चट्टानों पर लिखे गये अशोक के प्रमुख अभिलेखों में से एक हैं। चट्टानों पर कुल 14 फ़रमान लिखे गये थे। ये मुख्य रूप से उपदेश और ऐलान हैं, जिनमें उनके उत्तराधिकारियों और अधिकारियों को राज्य का कामकाज चलाने के निर्देश दिये गये हैं। इस श्रेणी में सबसे अच्छे संरक्षित अभिलेख कालसी (उत्तराखंड) और गिरनार (गुजरात) में हैं। फ़रमान नम्बर 12 में जहां नैतिक व्यवहार का उल्लेख है, वहीं फ़रमान नम्बर 13 में कलिंग युद्ध में हुये खून-ख़राबे का वर्णन है। इसमें बताया गया है, कि कैसे कलिंग युद्ध में हज़ारों लोगों को क़ैद कर लिया गया या फिर मार डाला गया और कैसे इस युद्ध की वजह से अशोक धम्मा(धर्म) की राह पर निकल पड़ा। छोटे फ़रमानों के
विपरीत यह फ़रमान केवल यूनानी भाषा में लिखा गया है। इतिहासकार और पुरालेखशास्त्री डी.सी. सरकार का मानना है, कि यूनानी संस्करण के साथ फ़रमान का एक इब्रानी संस्करण भी रहा होगा।

कंधार में अशोक का द्विभाषी शिलालेख | विकिमीडिआ कॉमन्स

द्विभाषी अभिलेख काबुल संग्रहालय में रखे गये थे। हालांकि सन 1992-94 में संग्रहालय में हुई लूटपाट के बाद अब वे कहां हैं, इसकी कोई जानकारी नहीं है। इतिहास के इन बेशक़ीमती धरोहरों को आज भुला दिया गया है।

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