नंदा देवी: उत्तराखंड की पहचान

नंदा देवी: उत्तराखंड की पहचान

भारत का दूसरा और दुनिया का 23वीं ऊंचा पर्वत नंदा देवी उत्तराखंड राज्य की शान है I हिमालय पर्वत श्रृंखला के पश्चिमी भाग में गढ़वाल हिमालय से ताल्लुक़ रखने वाले 25 हज़ार 63 फ़ुट ऊंचे इस पहाड़ ने उत्तराखंड के प्राकृतिक सौन्दर्य, स्थानीय संस्कृति और इतिहास में बहुत बड़ा योगदान दिया हैI नंदा देवी का अर्थ है ; आनंद प्रदान करने वाली देवीI इस पर्वत के संयुक्त इतिहास से जुड़े ऐसे कई पहलू हैं, जिनके बारे में आज भी बहुत लोग नावाक़िफ़ हैं I सबसे महत्वपूर्ण बात ये है, कि बिना नंदा देवी के ज़िक्र के उत्तराखंड की बात करना, ठीक वैसे ही है, जैसे आत्मा के बिना, शरीर की बात की जाए I

दरअसल भौगौलिक तौर पर नंदा देवी दो-चोटियों वाला समूह है, जिसका पश्चिमी भाग,पूर्वी भाग के मुकाबले बड़ा हैI गौर करने वाली बात ये है, कि उत्तराखंड के दो क्षेत्रों-कुमाऊँ और गढ़वाल में नंदा देवी को सामूहिक तौर पर पूजा ज़रूर जाता है, मगर इनसे जुड़े इनके रीति-रिवाज़ अलग-अलग हैं। दोनों इलाक़ों में नंदा देवी के इतिहास से जुड़े तथ्यों में भी विविधता है!

रानीखेत से नंदा देवी का दृश्य | विकी कॉमन्स

हिन्दू मान्यता के अनुसार, नंदा देवी का ज़िक्र हमें श्री देवी भगवत पुराण के हिमवान पाठ, सक्न्द पुराण और यहाँ तक नवरात्री के दौरान पढ़ी जाने वाली दुर्गा सप्तशती में भी मिलता है I नंदा देवी को पार्वती, उमा, चण्डिका, सती और गौरी का भी दर्जा मिला हुआ है I अगर हम उत्तराखंड के स्थानीय सबूतों की बात करें, तो नंदा देवी का सबसे पहला ज़िक्र गढ़वाल क्षेत्र में चमोली ज़िले के पांडुकेश्वर के मंदिरों में मिलता है।वहां मिले दसवीं शताब्दी के ताम्बे के शिला-लेखों में लिखा है:

नंदा भगवती चरण कमल कमलास नाथ मिर्थाह’

(यहाँ नंदा देवी के कमल-समान चरणों के रंग की ब्रह्म देव द्वारा विराजे गए कमल के रंग के साथ तुलना की गई है )

कहा जाता है, कि इस दौरान जब कुमाऊँ में कत्युरी शासकों (शासनकाल सातवीं से बारहवीं शताब्दी) का राज था, तब उनके कई राजा नंदा देवी को अपनी ईष्ट देवी के तौर पर पूजते थेI इस दौरान नंदा देवी को पूजने की परम्परा अब गढ़वाल में स्थानीय स्तर पर बहुत लोकप्रिय हो चुकी थीं, और गढ़वाल का तत्कालीन शाही परिवार नंदा देवी को अपनी कुल देवी के रूप में भी  पूजने लगा थाI ‘

नंदा देवी राजजात यात्रा | विकी कॉमन्स

वहीँ, गढ़वाल क्षेत्र में नंदा देवी राजजात यात्रा की शुरुआत हुई थी, और उस दौरान, इसका आयोजन छोटे स्तर पर हुआ करता था, जिसका दायरा शाही घराने और कुछ गाँवों तक सीमित थाI हर बारह साल में मनाए जाने वाले इस त्यौहार में नंदा देवी अपने मायके पहुंचती थीं और कुछ दिन वहां ठहरने के बाद गांव वाले नंदा देवी को पूरी तैयारियों के साथ घुंघटी पर्वत (कैलाश) तक छोड़ने जातेथे। ये वही पर्वत है, जिसको भगवान शिव का निवास स्थान भी माना जाता है I नंदा देवी के प्रतीक स्वरूप चार सींघों वाले भेड़ की अगुवाई में ग्रामीण बेदनी बुग्याल होते हुए रूपकुंड से नंदा देवी पर्वत तक पहुंचते थे, और फिर वहां पहुंचने पर,  उस भेड़ को छोड़ दिया जाता था। कई शताब्दियों तक नंदा देवी की उपासना ज़्यादातर  गढ़वाल में ही होती रही थी I

लेकिन सोलहवीं शताब्दी आते-आते, कुमाऊँ में चंद साम्राज्यों और गढ़वाल में परमार साम्राज्य का वर्चस्व क़ायम हुआ। इन दोनों साम्राज्यों ने अपना शासन सुचारू रूप से चलाया थाI इनमें कुमाऊँ के शासक रूद्र चंद (शासनकाल सन 1565-1597 ) ने मुग़लों को सैन्य सहायता दी थी। उसी के बाद उसने अपना प्रभाव इस कदर बढ़ा लिया था, कि उसने ना सिर्फ तराई क्षेत्र में अपने खोये इलाके हासिल कर लिए थे,  बल्कि रुद्रपुर (वर्तमान उधम सिंह नगर ज़िले में) की स्थापना भी की थी I उनकी सफलता को देखते हुए, उनकी प्रभावशाली विधवा माँ ने अपने राज्य का पश्चिम कीओर विस्तार करने का आदेश दिया। जिसका अर्थ था….. गढ़वाल पर हमलाI

अपनी माँ की आज्ञा का पालन करते हुए, रूद्र ने गढ़वाल शासक बलभद्र के इलाक़ों पर हमला बोल दिया और ये जंग सोलहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में ग्वालदम (वर्तमान चमोली ज़िला ) में लड़ी गयी थी, जिसके कारण, दोनों क्षेत्रों में अब सामरिक रूप से शत्रुता पुख्ता हो गई थी I शत्रुता का स्तर ऐसा बढ़ा, कि दोनों साम्राज्यों ने जम्मू के मशहूर सेनापति ज़ोरावर सिंह से लगभग एक शताब्दी पहले ही तिब्बत के कुछ क्षेत्रों पर अपनी पकड़ मज़बूत कर ली थी!

चम्पावत, चंद शासकों की पुरानी राजधानी | ब्रिटिश लाइब्रेरी

शत्रुता की दरार और गहरी तब हुई, जब कुमाऊँ शासक बाज़ बहादुर चाँद (शासनकाल सन 1638-1678) ने सन 1655 (कुछ प्रमाणों के मुताबिक़ सन 1670)में कर्णप्रयाग क़िले के निकट जुनियागढ़ क़िले पर हमला बोला और गढ़वालियों पर पूरी तरह से विजयी होने के लिए नंदा देवी की प्रतिमा वहाँ से लाकर अल्मोड़ा में स्थापित कीI दिलचस्प बात ये रही, कि इस प्रतिमा के आने के बाद, कुमाऊँ के इतिहास में एक बहुत बड़ा मोड़ आया, क्यूंकि तबसे ही कुमाऊँ में नंदा देवी मेला मनाया जाने लगा और वहां के सैनिकों का एक नया नारा बुलंद होने लगा “नंदा देवी की जय!” I कुमाऊँ शासकों ने नन्दादेवी से जुड़ी एक नई परम्परा की शुरूआत की I कुमाऊँ शासकों ने नंदादेवी को अपने कुल में जन्मी देवी का दर्जा दे दिया और वह उसकी पूजा उसकी जुड़वाँ बहन सुनंदा के साथ करने लगे । आगे चलकर नंदा देवी की जुड़वाँ चोटी का  नाम भी सुनंदा रखा गया थाI आज भी ये त्यौहार हर वर्ष सितम्बर माह में मनाया जाता है Iएक दंतकथा के अनुसार पता चलता है, कि नंदादेवी अल्मोड़ा के संस्थापक राजा कल्याण चंद की बहन थी, जिसको किसी भैंस ने मार दिया थाI इसी वजह से इस त्यौहार के दौरान एक भैंसे की बलि चढ़ाई जाती है I

नंदा देवी मंदिर, मुनस्यारी (कुमाऊँ क्षेत्र)

इस कारण नंदा देवी के कई मंदिर कुमाऊँ क्षेत्र में पनपने लगे थे I दोनों राज्यों के बीच अक्सर मतभेद के बावजूद, गढ़वाल के सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाले कुमाऊँ मूल के निवासी नंदा देवी की राजजात यात्रा में हिस्सा लिया करते थेI कभी-कभी गढ़वाल शाही परिवार के प्रतिनिधित्व भी कुमाऊँ के नंदा देवी मेले में शरीक होते थेI इन सिलसिलों में रुकावट तब आई, जब अट्ठारहवीं शताब्दी के अंत में नेपाल के गुरखाओं ने कुमाऊँ और गढ़वाल क्षेत्रों को अपने अधीन ले लिया और अंग्रेजों का राज आने तक, दोनों क्षेत्रों में अत्याचार और बदइन्तज़ामी का मंज़र दिखाई देने लगा I मगर सन 1816 में आंग्ल-गुरखा युद्ध में जब गुरखाओं की हार हो गई, तब सुगौली-संधि के तहत, ये क्षेत्र अंग्रेजों के अधीन आ गए और इन त्योहारों का आयोजन दोबारा स्वतंत्र तरीक़े से होने लगाI

नंदादेवी को इतिहास में एक नई हैसियत अंग्रेज़ों के राज के दौरान मिली, जब ये उनकी त्रिकोणमिति सर्वेक्षण (Great Trigonometry Survey of India) की नज़र में यह पर्बत आया I दिलचस्प बात ये है, कि सन 1847 तक कंचनजंगा और सन 1849 में माउंट एवेरेस्ट की खोज से पहले नंदा देवी को दुनिया का सबसे विशाल पर्वत माना जाता थाI आने वाले वर्षों में जब त्रिकोणमिति गतिविधियों में तेज़ी आई,तब दुनिया की सबसे ऊंची छोटी का ख़िताब एवेरेस्ट को मिला I  फिर आने वाले दशकों में नंदा देवी पर चढ़ाई करने और इसके आसपास के इलाक़े को समझने की मुहिम सन 1883से लेकर सन 1932 तक जारी रही।उसी दौरान यहाँ मौजूद वन, पर्वत और पशुओं के बारे में और जानकारियां प्राप्त हुईं I सन1939 में इसे अभयारण्य (Reserve) का दर्जा दिया गयाI

नंदा देवी अभयारण्य को दर्शाता मानचित्र

सन 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, नंदा देवी पर चढ़ाई के कई अंतर्राष्ट्रीय अभियान किए गए थे I मगर इनमें से अधिकाँश विफल ही हुएI फिर भी, सन1950 में अन्नपूर्णा और सन 1953 में माउंट एवेरेस्ट की चढ़ाई से पहले नंदा देवी को चढ़ाई के नज़रिए से दुनिया का सबसे ऊंचा पर्वत माना गया थाI सन1975 तक सिक्किम एक स्वतंत्र देश था, और तब तक कंचनजंगा को भारतीय पर्वत का दर्जा नहीं मिला था, तो उसका शुमार भारत के पर्वतों में नहीं होता था। इसके कारण,  तब तक नंदा देवी को भारत का सबसे ऊंचा पर्वत माना जाता था I

नंदा देवी सामरिक रूप से प्रयोग में तब आया था, जब सन 1964 में चीन ने भारतीय सीमा से लगे शिनजियांग प्रांत में परमाणु बम (Nuclear Bomb) का सफल परीक्षण किया था और उसके बाद, चीन की न्यूक्लियर एनेर्जी सम्बन्धी गतिविधियों को समझने के लिए यहाँ अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी सी.आई.ए. और भारतीय अधिकारियों की साझेदारी में, कुछ उपकरण लगाए गए थे I हालांकि, ये उपकरण सिर्फ़ एक साल तक ही सक्रिय रहे, क्योंकि खराब मौसम की वजह से यह मिशन आगे नहीं चल पाया I ऐसी भी अफ़वाहें फैलने लगीं थी, कि इस उपकरण से निकला केमिकल नंदा देवी के निकट हिमनद के पानी में मिल गया था I मगर ये बात झूठी साबित हुई I

नंदा देवी पर्वत के समीप हो रहा अमेरिका की सी आई ए और भारतीय अधिकारियों का संयुक्त गुप्त अभियान

तबसे नंदा देवी के आसपास के क्षेत्र को आम जनता के लिए बंद कर दिया गया था I मगर इसके आसपास स्थित अभयारण्य को यूनेस्को की सन 1988 विश्व धरोहर सूची में शामिल किया गया था I वहीँ कुमाऊँ और गढ़वाल में हो रहे सदियों पुराने शाही-परिवार के बीच हुए मनमुटाव के कारण विवाद में ढील तब आई, जब दोनों क्षेत्र के लोग एक अलग उत्तराखंड राज्य की मांग के लिए एकजुट हुए I आखिरकार ये मुहिम  सन 2000 में उत्तराखंड राज्य के गठन साथ मुकम्मिल हुई I

नन्दादेवी त्यौहार | उत्तरापीडिया

नंदा देवी से जुड़े त्योहार आज भी धूमधाम से मनाए जाते हैं I हालांकि इन त्योहारों के लिए दोनों क्षेत्रों को एकजुट करने की कोशिश आज भी जारी हैं I  यहाँ पर नियमित तौर पर अभियान और पर्यावरण-सम्बन्धी गतिविधियां चलती रहती हैं I भारतीय इतिहास में नंदा देवी के अलावा शायद ही कोई दूसरा पर्वत होगा, जिसने समस्त जन-मानस और यहाँ तक की पूरी सभ्यता पर अपनी गहरी छाप छोड़ी होगी ।

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