महिलाओं के बिना भारतीय कला की कल्पना करना असंभव है। युगों से उन्होंने हर मुमकिन तरीक़े से भारतीय कला को रुप-आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कई महिलाओं ने वर्जनाओं और सामाजिक बुराई यों के ख़िलाफ़ संधर्ष करके अपनी पहचान बनाई है। चित्रकला में हम अमृता शेरगिल, प्रतिमा देवी और अंजली इला मेनन जैसी कुछ महान महिला चित्रकारों के बारे में जानते हैं, जिनकी 20वीं शताब्दी में अपनी पहचान बननी शुरू हो गई थी। लेकिन क्या आप जानते हैं, कि भारत की पहली महिला चित्रकार कौन थी?
राजसी क़ायदे-क़ानून से बंधे रहने और अपने मशहूर चित्रकार भाई राजा रवि वर्मा के प्रभामंडल के बावजूद, मंगलाबाई तम्पूरत्ती को पहली भारतीय महिला कलाकार के रूप में जाना जाता है। उन्होंने 19वीं शताब्दी में ही अपने हाथों में ब्रश थामा था!
अपने स्टूडियो में आम ज़िन्दगी और पौराणिक घटनाओं के आधार पर पेंटिंग बनाने वाली मंगलाबाई के बारे में आज भी बहुत से कला संरक्षकों को ज़्यादा जानकारी नहीं है। बदक़िस्मती से उनके बारे में और उनके काम की बहुत कम जानकारी इसीलिए है, क्योंकि वो एक राजसी परिवार से आई थीं और एक कुलीन ख़ानदान में उनका विवाह हुआ था। जबकि विडम्बना देखिए कि उस परिवार में पेंटिंग की कला औरतें लेकर आई थीं!
मंगलाबाई का जन्म,सन 1865 ईस्वी में किलिमनूर (अब तिरुवनंतपुरम ज़िले में) के राज-परिवार में हुआ था। उनके पिता एज़ुमाविल नीलकंठन भट्टतिरिपाद संस्कृत और आयुर्वेद के प्रसिद्ध विद्वान थे। मंगलाबाई अपने परिवार में सबसे छोटी थीं, और उनके दो भाई थे- राजा रवि वर्मा (1848-1906) और सी. राजा राजा वर्मा (1860-1905)।
मंगलाबाई की शादी कम उम्र में ही हो गई थी। वह और उनके भाई, अपने चाचा राजा राजा वर्मा से चित्रकारी की कला सीखते थे। राजा वर्मा राज-परिवार के पहले प्रमुख चित्रकार थे, जो पारंपरिक तंजौर और पश्चिमी शैलियों में चित्रकारी किया करते थे। मंगलाबाई अक्सर महल के अंदर स्टूडियो में अपने भाइयों को चित्रकारी करते देखा करती थीं और उनकी चित्रकारी की अपने तरीक़े से नक़ल करने की कोशिश करती थीं। उनके चित्रकला कौशल को उनके बड़े भाई रवि ने निखारा था।
मंगलाबाई को पहली बार अपना हुनर दिखाने का मौक़ा सन 1888 में तब मिला जब बड़ौदा के महाराजा गायकवाड़ ने, रवि को बड़ौदा स्थित लक्ष्मी विलास पैलेस के दरबार हॉल के लिए 14 पौराणिक पेंटिंग बनाने का काम सौंपा। इस काम में राजा और मंगलाबाई ने रवि की मदद की। भाई-बहनों ने अपने सहायकों के साथ इन चित्रों को बनाने के लिए अपने महल में एक वर्ष से अधिक समय तक परिश्रम किया। ये चित्र हिंदू पौराणिक ग्रंथों से प्रेरित थे।
इस दौरान रवि ने,अपने समय के महानतम भारतीय चित्रकारों में से एक के रूप में जगह बना ली थी। एक तरफ़ राजा जहां अपने भाई के प्रभामंडल से दबे रहे, वहीँ मंगलाबाई अपने स्टूडियो में तेल चित्रकला के साथ प्रयोग करने में मशगूल हो गईं। दुर्भाग्य से, कुलीन वर्ग के सदस्य के रूप में उन्हें बस कुछ हद तक आज़ादी मिली हुई थी। उन्हें एक शौक़िया चित्रकार के रूप में पश्चिमी शैक्षणिक कलात्मक परंपरा पर आधारित कला सीखने की अनुमति मिल गई थी, हालांकि वह इसे एक पेशे के रूप में नहीं अपना सकीं, क्योंकि उस समय कुलीन महिलाओं को इसकी आज़ादी नहीं थी।
मंगलाबाई की कलाकृतियाँ घरेलू और भक्ति से जुड़े विषयों पर आधारित होती थीं, जिनमें एक यथार्थवादी नज़रिया होता था। उन्होंने जिन विषय वस्तु को पेंटिंग के लिए चुना वह या तो व्यक्तिगत होते थे, या फिर आत्मकथात्मक । इनमें पौराणिक कथाओं और महाकाव्य के साथ-साथ रवि वर्मा की यथार्थवादी शैली के प्रति उनकी निष्ठा दिखाई पड़ती थी। कला में उनकी महारथ की वजह से रवि अक्सर उनसे अपने कामों के बारे में सलाह भी लिया करते थे। दिलचस्प बात यह है, कि कभी-कभी ऐसा भी होता कि रवि, मंगलाबाई के कैनवास को अपना समझ लेते थे। इसी वजह से एक-दूसरे की प्रतिभा के प्रति दोनों में सम्मान भी पैदा हो गया था!
अगर हम रवि और मंगलाबाई के चित्रों के बीच अंतर के बारे में सोचें तो एक ही विषय से संबंधित होने के बावजूद इनका पेंटिंग अलग थीं। उदाहरण के लिए: आल्म्स गिविंग (भिक्षा देते हुए) पेंटिंग को लिया जा सकता है। रवि ने जहां उच्च वर्ग की गहने पहनी एक महिला को, एक मंदिर में युवा पुरुष भिखारी के हाथों में पैसा फेंकते हुए दिखाया, वहीं मंगलाबाई की पेंटिंग में एक बच्ची को, जिसकी पीठ आंशिक रूप से चित्र देखने वाले की तरफ़ है, एक घर के भीतर आधे-अधूरे कपड़े पहने बूढ़ी तपस्वी भिखारिन के कटोरे में दलिया डालते दिखाया गया है।
सन 1906 में जब राजा रवि वर्मा का निधन हुआ, तब मंगलाबाई ने उनका चित्र बनाकर उन्हें श्रद्धांजलि दी। ये चित्र आज तिरुवनंतपुरम की श्री चित्रा आर्ट गैलरी की शोभा बढ़ा रहा है। तेलचित्र पर अपने रचनात्मक प्रयोगों के साथ, जो शाही महल के भीतर सीमित थे, उन्होंने राजा के साथ निजी प्रोजैक्टों पर काम करना शुरू कर दिया। अपने आख़िरी वर्षों के दौरान उन्होंने महात्मा गांधी का एक आदम क़द तैलचित्र बनाया, जिसे आज भी तिरुवनंतपुरम के सरकारी महिला कॉलेज में देखा जा सकता है। यह पेंटिंग आज भी गांधी जी के मशहूर चित्रों में से एक माना जाता है। सन 1954 में, 89 वर्ष की उम्र में जब उनका निधन हुआ, तब तक भारतीय कला परिदृश्य पर अमृता शेरगिल, अतसी बरुआ और प्रतिमा देवी जैसी महिला चित्रकारों का बोलबाला होने लगा था।
अपनी सीमाओं के बावजूद, मंगलाबाई ने अपने रिश्तेदारों भवानी और मालती तम्पूरत्ती को अपने कला संरक्षण में लेकर अपनी विरासत को आगे बढ़ाया। ये दोनों बाद में प्रसिद्ध चित्रकारी बनीं। उनके बेटे के.आर रवि वर्मा कला के क्षेत्र में नए-नए कामों के लिए जाने जाते थे।
उन्होंने किलिमानूर में राजा रवि वर्मा स्कूल और तिरुवनंतपुरम में श्री चित्रा आर्ट गैलरी की स्थापना की जहां उनकी मां बनाई पांच मऱहूर पेंटिंग लगी हुई हैं। मंगलाबाई के बनाए गए कई चित्रों की कोई जानकारी नहीं और जिन्हें खोजा जाना बाक़ी है, क्योंकि ये कला प्रेमियों के निजी संग्रहों का हिस्सा हैं। महान चित्रकार मंगलाबाई की आज भी विरासत इतिहास के पन्नों में छिपी हुई है…
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