डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, आज भारत में सबसे प्रसिद्ध राजनीतिक व्यक्तित्वों में से एक हैं, जिनके नाम पर सड़कों और संस्थानों का नाम रखा जा चुका है। ये वही जनसंघ के संस्थापक, थे जिसका नाम बाद में भारतीय जनता पार्टी हो गया। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास को रुप देने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। भारत में कम ही लोग उनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी की शानदार उपलब्धियों के बारे में जानते हैं। सर आशुतोष मुखर्जी ने भारत में कलकत्ता विश्वविद्यालय और आधुनिक शिक्षा में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
29 जून,सन 1864 को कोलकाता के बाउबाजार में जन्मे आशुतोष मुखर्जी एक शिक्षक, न्यायविद और गणितज्ञ थे जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में अपार योगदान दिया। वैज्ञानिक और साहित्यिक पृष्ठभूमि से आने वाले मुखर्जी का बचपन से ही शिक्षा की ओर झुकाव था।
आशुतोष मुखर्जी ने उच्च शिक्षा के लिए सन 1880 में मशहूर प्रेसीडेंसी कॉलेज (अब प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय) में दाख़िला लिया और सन 1883 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई पूरी की। दिलचस्प बात यह है, कि वह गणित में मास्टर (1885) और प्राकृतिक विज्ञान (नैचुरल साइंस) में एक ही साल में दो डिग्रियां लेने वाले पहले छात्र थे। लेकिन उनकी पढ़ाई यहीं ख़त्म नहीं हुई। उन्होंने सन 1897 में एलएल.बी, के बाद एल.एल.डी. की पढ़ाई की और फिर कलकत्ता विश्वविद्यालय में वो प्रोफ़ेसर ऑफ़ लॉ बन गए। सन 1906 में वह कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बन गए। वह इस पद पर नियुक्त होने वाले दूसरे भारतीय थे।
इस दौरान कलकत्ता विश्वविद्यालय में एक चिंता बनी हुई थी। विश्वविद्यालय की स्थापना सन 1857 के अधिनियम तहत की गई थी। जिसमें कुछ बड़ी ख़ामियां थीं। अधिनियम के तहत विश्वविद्यालय केवल परीक्षाएं आयोजित करता था। अपना पाठ्यक्रम निर्धारित करता था और डिग्री देता था। विश्वविद्यालय में कोई शिक्षा नहीं दी जाती थी। इसके अलावा धन की गंभीर कमी थी, जिसकी वजह से संस्थान कई दिक़्क़तों का सामना कर रहा था। संसाधनों के अभाव से शिक्षित और बेरोज़गार भारतीयों में असंतोष और हताशा पैदा हो गई। इसके बाद सन 1902 में भारतीय विश्वविद्यालय आयोग बनाया गया, जिसमें मुखर्जी भी शामिल थे। सन 1904 में, जनता में बढ़ती हताशा को दूर करने के लिए भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्ज़न ने समिति की सिफ़ारिशों के आधार पर, सन1904 का भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम पारित किया, जिसका उद्देश्य उच्च शिक्षा के हालात में सुधार करना था।
इसे एक बेहतरीन अवसर के रूप में देखते हुए मुखर्जी ने भारतीय शिक्षा को पश्चिमी शिक्षा के बराबर रखने के लिए सन 1904-05 के भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम का पूरा इस्तेमाल किया। उन्होंने विश्वविद्यालय को महज़ परीक्षा आयोजित करने वाली संस्थान से एक पूर्ण शिक्षण विश्वविद्यालय में बदल दिया। सन 1912 तक उन्होंने अंग्रेज़ी, संस्कृत, पाली, अरबी, फ़ारसी, इतिहास, अर्थशास्त्र, गणित और मानसिक और नैतिक दर्शन में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम शुरु कर दिए।
विश्वविद्यालय में मानविकी विज्ञान (humanities) पाठ्यक्रम तो शुरू हो गया, लेकिन धन और जगह की कमी की वजह से विज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान और शिक्षण की स्थापना में मुश्किलें पेश आ रही थी। लेकिन सन 1905 में, बंगाल विभाजन के दौरान स्वदेशी आंदोलन में अहम भूमिका निभाने वाले मशहूर वकील सर तारकनाथ पालित ने फ़ौरन उदारता दिखाते हुए विश्वविद्यालय को अपने ख़ुद के निवास सहित कुल साढ़े चौदह लाख रुपये दान किए। उनके अलावा विख्यात विधिवेत्ता राश बिहारी घोष ने भी विश्वविद्यालय को लगभग दस लाख रुपये दिए।
पर्याप्त धन मिलने के बाद सर मुखर्जी ने 27 मार्च,सन 1914 को कलकत्ता विश्वविद्यालय के यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ साइंस, टेक्नोलॉजी एंड एग्रीकल्चर (आमतौर पर राजाबाजार साइंस कॉलेज के रूप में जाना जाता है) की आधारशिला रखी। विश्वविद्यालय की स्थापना ने जल्द ही देश भर के कई विद्वानों के लिए विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान के दरवाज़े खोल दिए। पहले बैच में भौतिक विज्ञानी और गणितज्ञ सत्येंद्र नाथ बोस, खगोल भौतिकीविद् मेघनाद साहा और रसायनज्ञ ज्ञान चंद्र घोष जैसे छात्र शामिल थे। पहले बैच में विज्ञान के क्षेत्र में बड़ा नाम कमाने वाले रसायनज्ञ आचार्य प्रफुल्ल चंद्र रे और भौतिक वैज्ञानिक शिशिर कुमार मित्रा और सी.वी. रमन जैसे लोग थे।
मुखर्जी और रमन से जुड़ा एक दिलचस्प क़िस्सा है। सिविल सेवाओं में काम करने वाले रमन को मुखर्जी ने विश्वविद्यालय में भौतिकी के पालित प्रोफ़ेसर के रूप में शामिल होने के लिए राज़ी कर लिया। वह कम वेतन पर भी काम करने पर राज़ी भी हो गए।कहा जाता है कि सीनेट के कुछ विदेशी सदस्यों ने रमन की नियुक्ति के फ़ैसले का कड़ा विरोध किया, क्योंकि उनके पास पी. एच.डी. की डिग्री नहीं थी और उन्होंने कभी विदेश में पढ़ाई भी नहीं की थी। यह सुनकर, मुखर्जी ने एक मानद डी.एस सी.डिग्री की व्यवस्था की।
फिर सन 1921 में वह डिग्री कलकत्ता विश्वविद्यालय ने रमन को प्रदान की। दिलचस्प बात यह है, कि विश्वविद्यालय के इसी साइंस कॉलेज में ही रमन ने प्रकाश के प्रकीर्णन (Scattering of Light) पर अपनी नई खोज की थी, जिसे “रमन इफ़ेक्ट” के रुप में जाना जाता है। सन 1928 में द रमन इफेक्ट के लिए रमन को भौतिकी में नोबेल पुरस्कार मिला।
कहा जाता है, कि मुखर्जी में प्रतिभा पहचानने का हुनर भी था। सन 1921 में उन्होंने,उस समय के एक उभरते हुये दार्शनिक सर्वपल्ली राधाकृष्णन को कलकत्ता विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर बनने की पेशकश की थी। यह भी कहा जाता है, कि एक बार उन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की भी मदद की थी। सन 1916 में, सुभाष चंद्र बोस ने,भारतीयों के ख़िलाफ़ नस्लवादी टिप्पणी करने पर इतिहास के प्रोफ़ेसर ओटेन पर हमला कर दिया था। इसी वजह से बोस को प्रेसीडेंसी कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया था। आशुतोष मुखर्जी उस समय कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति थे। तब मुखर्जी ने, बोस को स्कॉटिश चर्च कॉलेज में प्रवेश दिलाने में मदद की थी।
25 मई, सन 1924 को आशुतोष मुखर्जी का निधन हो गया। अपने जीवनकाल के दौरान वह कई प्रमुख पदों पर रहे। उन्हें सन 1910 में इंपीरियल लाइब्रेरी (नेशनल लाइब्रेरी) काउंसिल का अध्यक्ष बनाया गया। कहा जाता है, कि उन्होंने 80 हज़ार से अधिक पुस्तकों क, अपना निजि संग्रह, उसी लाइब्रेरी को दान किया था। उन्होंने सन 1914 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस के उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता की, और सन 1917-1919 सैडलर आयोग के सदस्य भी रहे,जिसे भारतीय शिक्षा की स्थिति का जायज़ा लेने के लिए गठित किया था।
उन्हें तीन बार एशियाटिक सोसाइटी का अध्यक्ष भी बनाया गया था। उनकी शानदार उपलब्धियों के लिए, उन्हें सन 1911 में नाइट की उपाधि यानी सर के खिताब से नवाज़ा गया। सन 1964 में, भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया था। शिक्षा में उनके अपार योगदान के लिए, उन्हें “बांग्लार बाघ” (बंगाल का बाघ) के रूप में जाना जाता है।
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