दाल रोटी घर दी, दीवाली ‘अंबरसर’ दी

दाल रोटी घर दी, दीवाली ‘अंबरसर’ दी

वैसे तो यह जग जाहिर बात है कि पंजाबी आरम्भ से ही अपने सभी दिन-त्यौहार पूरे चाव और उल्लास से मनाते आए हैं, फिर चाहे वह त्यौहार धार्मिक हो या सामाजिक या विरासती। परन्तु चूंकि दीपावली के पवित्र पर्व का अमृतसर तथा श्री हरिमंदिर साहिब से अति विशेष संबंध रहा है, इसलिए यह त्योहार आरम्भ से ही अमृतसरियों का पसंदीदा त्योहार रहने के साथ-साथ अमृतसर का एक ब्रांड भी बना हुआ है। अमृतसर निवासी दीवाली पर इतने विशाल स्तर पर दीपमाला तथा रोशनी करने के साथ आतिशबाजी चलाते हैं कि देखने वालों की आँखें धुंधला जाती हैं। जिसको देख कर दावे के साथ कहा जा सकता है कि अमृतसर में जिस चाव और उत्साह से दीवाली मनाई जाती है, संसार में वैसी कहीं भी देखने को नहीं मिलती होगी। इसी लिए तो लोग कहते आए हैं ”दाल रोटी घर दी, दीवाली अंबरसर (अमृतसर) दी“।

अमृतसर में घी के दिए जला कर दीवाली मनाने की शुरूआत छठे गुरू श्री हरिगोबिंद साहिब के समय शुरू हुई। ‘भट्ट वही बंसीयां बड़तीयां की’ के अनुसार गुरू-घर के विरोधियों के बहकावे में आकर मुगल बादशाह जहांगीर द्वारा गिरफ्तार किए जाने के बाद जब गुरू हरिगोबिंद साहिब ग्वालियर के किले से 1676 बिक्रमी कार्तिक वदी 14 को 52 राजाओं सहित रिहा होकर आए तो हरि राम दरोगा सम्मान सहित उन्हें अपने घर ले गया। गुरू साहिब के बंधनमुक्त होने की खुशी में उस रात हरि राम ने अपने घर में दीपमाला की। बाबा बुड्ढा जी की आज्ञा के अनुसार उसी दिन सांय श्री हरिमंदिर साहिब तथा पूरे अमृतसर शहर में दीपमाला करके लोगों ने खुशी मनाई। भट्ट वही के अनुसार वह कार्तिक अमावस्या अर्थात दीवाली का दिन था।

अमृतसर में दीवाली पर श्री दरबार साहिब में चलाई जाने वाली आतिशबाजी व रोशनी के दृश्य

श्री हरिमंदिर साहिब का सुनहरी इतिहास, पृष्ठ 140 के अनुसार तुर्कों द्वारा जारी हुक्म के चलते दीवाली का जोड़ मेला कई वर्षों तक बंद रहा। जब शिरोमणि विद्वान और ज्ञानी भाई मनी सिंह जी श्री हरिमंदिर साहिब के मुख्यग्रंथी नियुक्त किए गए तो उन्होंने गुरू घर के स्नेही सिखों से विचार करके सन् 1734 में नवाब लाहौर जकरिया खान से 5000 रूपए टैक्स के रूप में जमा करवाने का वादा करके उस से अमृतसर में दीपावली पर जोड़ मेला करवाने की अनुमति ले ली।

भाई मनी सिंह जी को शहीद किए जाने का दृश्य

जबकि शहीद बिलास सेवा सिंह भट्टखरी (गुरमुखी में अनुवाद स. छज्जा सिंह) के अनुसार – ”भाई मनी सिंह जी ने भाई सूरत सिंह सूरी तथा भाई सुबेग सिंह जंबर की मार्फत लाहौर के सूबेदार जकरिया खां को दस हज़ार रूपए देने का वादा करके सम्वत 1790 बिक्रमी (सन् 1733 ई.) की दीपमाला का जोड़ मेला दस दिनों के लिए करवाने की मंजूरी ली। परन्तु जब मेला पास आया तो सरकार की नीयत बदल गई। मुखबरों ने नवाब लाहौर को उकसाना शुरू कर दिया कि मेले में इकट्ठा हुए सिखों को पकड़ कर मार देना चाहिए। इन मनसूबों की खबर लाहौरी सिखों की मार्फत भाई मनी सिंह जी तथा बाहर से अमृतसर आने वाले सिखों के जत्थों तक भी पहुँच गई। इस लिए मेले में रूकावट पड़ गई और कोई भी सिख दीवाली मेले में अमृतसर न पहुँच सका। चढ़ावा न चढ़ने के कारण भाई जी सूबा लाहौर को टैक्स की राशि न दे सके। भाई जी की जवाब-तलबी हुई और टैक्स की रकम अदा न करने के दोष में भाई जी को गिरफ्तार करके लाहौर ले जाया गया और वहां उनका अंग-अंग काट कर उन्हें शहीद कर दिया गया।

डाॅ. गंडा सिंह अपनी पुस्तक अहमद शाह दुरानी में लिखते हैं कि अहमद शाह अब्दाली द्वारा 10 जून 1762 को हरिमंदिर साहिब की नीवों में बारूद रखकर सच्चखंड की इमारत को ज़मीनदोज़ करने तथा अमृत सरोवर की पवित्रता भंग करने के बाद 17 अक्तूबर 1762 की दीवाली पर करीब 60,000 सिंह इकट्ठा हुए और सरोवर की कार सेवा आरम्भ की गई। शेरे-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के राज्य के दौरान अमृतसर में दीवाली मेले की रौनकें शिखर तक पहुँच गईं। महाराजा दीवाली मेले पर अमृतसर पहुँचकर अमृत सरोवर में स्नान करते और हरिमंदिर साहिब में नत्मस्तक होते। इस अवसर पर पूरे शहर को दुल्हन की तरह सजाया जाता और विशाल स्तर पर दीपमाला की जाती।

सिख राज्य के बाद ब्रिटिश शासन के दौरान भी अमृतसर में दीवाली मेले की रौनक की चमक अमृतसर निवासियों ने फीकी नहीं पड़ने दी। सिख राज्य की तरह ही बाद में भी दीवाली पर पूरे शहर में विशाल स्तर पर दीपमाला करना तथा घोड़ों की मंडी लगाने जैसे व्यापारिक कार्य बदस्तूर जारी रहे। सन् 1931 में लिखी गई पुस्तक ‘रिपोर्ट श्री दरबार साहिब’ में लिखा है-”दीवाली मेले पर दरबार साहिब की गुरूद्वारा कमेटी द्वारा आतिशबाजी होती है। संगत भारी संख्या में दूर-दराज गांवों व शहरों से आती है और दीवाली के दिन सुबह से ही लोग हरिमंदिर साहिब की परिक्रमा में बने बुंगों और आस-पास के घरों की छतों पर अपनी जगह सुनिश्चित कर लेते हैं। सायं चार बजे के बाद श्री दरबार साहिब को आने वाले सभी रास्ते बंद कर दिए जाते हैं, क्योंकि उस समय परिक्रमा में पैर रखने के लिए भी जगह नहीं होती। वाकई उस समय का नज़ारा अद्भुत होता है।

गुरूकाल से आरम्भ हुई अमृतसर की दीवाली आज पूरे संसार में प्रसिद्ध हो चुकी है। दीवाली के दिन अमृतसर में करोड़ों रूपयों की आतिशबाजी चलाई जाती है। दीवाली की रात श्री दरबार साहिब में चलाई जाने वाली आतिशबाजी व रोशनी आँखें धुंधला देती है। इस नज़ारे की एक झलक देखने के लिए श्रद्धालु तथा पर्यटक देश-विदेश से लाखों की संख्या में अमृतसर पहुँचते हैं और गुरू-घर से आर्शीवाद प्राप्त करते हैं।

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