जब भी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ हुई जंगों या बग़ावत का ज़िक्र होता है, तो सबसे पहले ज़हन में सन 1857 के ग़दर की याद आती है। लेकिन सच यह है कि सन 1857 के पहले, 18वीं सदी से ही भारत के कई हिस्सों में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह शुरु हो चुका था। ये विद्रोह ज़्यादातर पूर्वी और दक्षिण भारत में हो रहा था। ये वो समय था, जब उत्तर भारत में मुग़ल साम्राज्य का प्रभाव ख़त्म होने लगा था। ऐसा ही एक विद्रोह केरल के त्रावणकोर में सन 1808-1809 में हुआ था जिसका नेतृत्व कोई राजा नहीं बल्कि उनके एक दीवान वेलु थम्पी कर रहे थे। त्रावणकोर के विद्रोह को दीवान वेलुथम्पी या बेलुथम्पी का विद्रोह भी कहा जाता है। अंग्रेज़ों के विरुद्ध सन 1857 के विद्रोह से पहले त्रावणकोर का विद्रोह एकमात्र ऐसा विद्रोह था, जिसे राष्ट्रीय संधर्ष का दर्जा मिला था।
वेलुथम्पी का विद्रोह दिसम्बर,सन 1808 से लेकर मार्च,सन 1809 तक चला। त्रावणकोर विद्रोह की सबसे ख़ास बात ये थी, कि वह सहायक संधि के ख़िलाफ़ था। इस संधि के तहत अंग्रेज़ अपने ही तैनात किए गए सैनिकों के लिए, स्थानीय शासक से जबरन वसूली करते थे।
अट्ठारहवीं शताब्दी के मध्य तक आते-आते भारत में पुर्तगालियों, डच और फिर फ्रेंच के बाद अंग्रेज़ भी एक प्रभावशाली ताक़त बन गए थे। लेकिन इस दौरान एक ऐसा भी दौर आया जब एक तरफ़ उत्तर भारत में प्लासी और बक्सर की जंगों में जीत के बावजूद, उत्तर भारत में चैत सिंह, राजा फ़तेह बहादुर शाही और तिलका माझी जैसे नेताओं और दक्षिण में मैसूर के हैदर अली और उनके बेटे टीपू सुल्तान ने अंग्रेज़ों की नाक में दम कर रखा था। इनके अलावा इस क्षेत्र के अन्य इलाकों में वीरपांडिया कट्टबोमन, वेलु नचियार जैसे कई शासक और सरदार भी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ मुहिमों में शामिल हो गए थे। धीरे-धीरे जंगों को जीतने के बाद अंग्रेज़ कई रियासतों के साथ अपने सामरिक संबंध बनाने लगे और ऐसी ही एक सामरिक संधि त्रावणकोर के साथ हुई।
त्रावणकोर और अंग्रेज़ों के बीच सन 1673 से व्यापारिक संबंध शुरू हो चुके थे। इन रिश्तों को सामरिक रुप तब मिला जब त्रावणकोर के महाराज कार्तिक तिरुनाल राम वर्मा ने, सन 1788 में टीपू सुल्तान से अपने बचाव के लिए, अंग्रेज़ों के साथ एक संधि की। तीसरे आंग्ल-मैसूर युद्ध (सन 1790-92) के बाद टीपू सुल्तान का प्रभाव कमज़ोर पड़ने लगा था। इस दौरान अंग्रेज़ों ने अन्य राज्यों के अलावा दक्षिण भारत में भी त्रावणकोर के साथ सहायक संधि कर ली थी। सन 1795 और फिर सन 1805 में ऐसी दो संधियां हुईं, जिनके तहत त्रावणकोर ने अंग्रेज़ों की एक सेना अपने पास रखी जिसका ख़र्च वहां के शासक उठाते थे। इन संधियों में और भी कई शर्तें थीं, जैसे कंपनी की अनुमति के बिना कोई भी रियासत किसी अन्य रियासत से ना तो कोई युद्ध लड़ सकती थी, और ना ही कोई संधि ही कर सकती थी। इसके अलावा अंग्रेज़ों की इजाज़त के बिना ना तो किसी को नौकरी मिल सकती थी, और ना ही किसी को शाही दरबार में आमंत्रित किया जा सकता था। त्रावणकोर के महाराज बलराम वर्मा सन 1805 की संधि के ख़िलाफ़ थे, लेकिन अंग्रेज़ों की धमकी के आगे उन्हें झुकना पड़ा था। इस संधि में मुख्य भागीदार थे उनके दीवान वेलु थम्पी, जो आगे चलकर त्रावणकोर विद्रोह के मुख्य सूत्रधार बने।
6 मई, सन 1765 को कन्याकुमारी ज़िले (वर्तमान में तमिलनाडु में) में जन्में थम्पी उस ज़मींदार परिवार से ताल्लुक़ रखते थे, जिसने मार्तांड वर्मा (शासनकाल सन 1729 –1758) के शासनकाल से त्रावणकोर के महाराजाओं की सेवा की थी। थम्पी सिर्फ़ 16 वर्ष के थे, जब उनको मवेलिक्कारा (वर्तमान में अलाप्पुझा ज़िला) का तहसीलदार बनाया गया था। इस दौरान त्रावणकोर के तत्कालीन दीवान जयनाथन शंकरण नम्बूदिरी और उनके दो और सह-मंत्री मत्ठे थरकन और शंकरनारायण शेट्टी घूस लेते थे,इस तरह वह त्रावणकोर के ख़ज़ाना लूट रहे थे। इस वित्तीय संकट से निबटने के लिए रियासत के तहत आने वाली तहसीलों से तीन हज़ार रुपए वसूला जाने लगा। थम्पी ने भुगतान करने के लिए तीन दिन का समय मांगा।
इस बीच थम्पी ने स्थानीय जनता और अपने सैनिकों को इकट्ठा कर त्रावणकोर के दरबार की घेराबंदी की और नम्बूदिरी सहित उनके दो साथियों की बर्खास्तगी की मांग की। मामले की गम्भीरता को देखते हुए ना सिर्फ तीनों को बर्ख़ास्त कर दिया गया, बल्कि उनको कड़ी सज़ा भी दी गई। इसी दौरान थम्पी को कड़े विरोध के बावजूद,उन्हें त्रावणकोर का दीवान नियुक्त कर दिया गया।
थम्पी ने दीवान बनते ही राज्य प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए कई कड़े क़दम उठाए जिनमें धोखाधड़ी करने पर सख़्त सज़ा आदि शामिल थे। सख़्ती की वजह से वे काफ़ी हद तक न्याय, शान्ति और व्यवस्था क़ायम करने में सफल तो रहे, मगर उनके दुश्मन भी बहुत बन गए। उनमें से एक थे, कुज्जनीलम पिल्लई जो महाराजा के क़रीबी मंत्रियों में से एक थे। पिल्लई ने महाराजा को थम्पी के ख़िलाफ़ बरग़लाकर, उनकी गिरफ़्तारी के आदेश पर दस्तख़त करवा दिए। थम्पी की दीवानी तो पहले ही जा चुकी थी। थम्पी को जब इस बारे में पता चला तो वो ब्रिटिश रेज़िडेंट कर्नल कोलिन मैकुले के पास गए जो त्रावणकोर और कोच्ची के संयुक्त ब्रिटिश रेजिडेंट थे। पिल्लई के ख़िलाफ़ ठोस सबूत पाकर मैकुले ने उसे ना सिर्फ़ गिरफ़्तार करवाया बल्कि थम्पी को उनका पद भी वापस दिलवा दिया।
सन 1804 में ब्रिटिश सेना को धन देने के कारण रियासत के सामने वित्तीय संकट आ गया और खर्चों में कटौती के बारे में सोचा जाने लगा। थम्पी के सुझाव पर स्थानीय नायर सैनिकों के भत्तों में कटौती कर दी गई जिसको लेकर नायर सैनिकों ने विरोध किया। इस विरोध को दबाने के लिए थम्पी ने मैकुले से सहायता ली और विद्रोह कुचल दिया गया। इसके बाद थम्पी और मैकुले की दोस्ती और मज़बूत हो गई।
मगर ये दोस्ती ज्यादा नहीं चल पाई। सन 1805 में ज़बरदस्ती की गई सहायक संधि के तहत, जब त्रावणकोर के पास सेना को भत्ता देने के लिए पर्याप्त धन नहीं था, तब महाराजा ने थोडा और समय मांगा। ये समय दो साल तक खिंचा और तब भी पैसे पूरी तरह से अदा नहीं किए जा सके, तो मैकुले ने महाराजा पर जल्द से जल्द हर्जाना भरने का दबाव डाला और साथ ही ख़र्चों में कटौती के लिए अंगरक्षकों को ही बर्ख़ास्त करने का सुझाव दिया। लेकिन महाराजा इसके लिए तैयार नहीं हुए।
सितम्बर सन 1808 तक भी रियासत के पास पर्याप्त धन नहीं हो पाया था जिसकी वजह से रियासत में आर्थिक संकट आ गया । महाराजा ने काली मिर्च की बोरियों से हर्जाना भरने के बारे में सोचा लेकिन इसमें सफलता नहीं मिल सकी । उन्होंने और थम्पी ने मद्रास, कलकत्ता और बम्बई में अंग्रेज़ों के सरकारी मुख्यालयों में अपने प्रतिनिधि भेजे और मैकुले की इस ज़बरदस्ती की उगाही के प्रति ध्यान दिलाने की कोशिश की लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकल पाया ।
आख़िरकार तंग आकर अब थम्पी ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जंग का ऐलान कर दिया। इसके लिए उन्होंने कई स्थानीय राजाओं, यहां तक फ्रांसीसियों और मराठों से भी मदद मांगी, जो उन्हें नहीं मिली। लेकिन कोच्ची के दीवान पलियट अच्चन ने उनका साथ दिया, जो ख़ुद मैकुले से बदला लेना चाहते थे। अच्चन की कोच्ची के दरबार में अन्य मंत्रियों से अनबन थी, जिनका साथ मैकुले ही दे रहा था। बहरहाल, जब अच्चन को थम्पी की मुहिम के बारे में पता चला, तो वो भी उनके साथ जुड़ गए । दोनों ने स्थानीय नायर और तियार समुदाय के लोगों के साथ फ़ौज बनाई। फ़ौज के पास तीर-धनुष के अलावा आधुनिक हथियार भी थे। थम्पी ने कोझिकोड के शासक को भी चिट्ठी लिखी थी, लेकिन उन्हेंने उसका जवाब देने के बजाय वह चिट्ठी मालाबार के अंग्रेज़ कलेक्टर को सौंप दी । इस तरह थम्पी की गिरफ्तारी के आदेश हो गए। गिरफ़्तारी के आदेश के बारे में पता चलने पर थम्पी ने अपनी सैन्य गतिविधियां और तेज़ कर दीं।
28 दिसम्बर, सन 1808 को थम्पी के साथी पद्मनाभ पिल्लई और अच्चन के नेतृत्त्व में एक सैन्य टुकड़ी ने मैकुले के घर को घेरकर और उस पर हमला कर दिया। इसके बाद वहां की जेल से सभी कैदियों को छुड़वा लिया गया। घायल मैकुले किसी तरह, जहाज़ के ज़रिए वहां से निकलने में कामयाब हो गया। इस घटना के बाद और भी बहुत लोग थम्पी के साथ देने के लिए तैयार हो गए।
एक तरफ जहां कोच्ची में,अच्चन का संघर्ष जारी था । वहीं थम्पी ने 16 जनवरी, 1809 को कोल्लम पर हमला कर रेज़ीडेंसी पर क़ब्ज़ा कर लिया। मगर जीत का सिलसिला ज़्यादा देर नहीं जारी नहीं रहा, क्योंकि अंग्रेज़ों को,मद्रास और सीलोन (वर्तमान श्रीलंका) से मिल रही सैन्य सहायता अब उन पर भरी पड़ने लगी थी। लेकिन इसके बावजूद स्थानीय लोगों ने विद्रोह की बागडोर अपने हाथों में ले ली थी, जिसके कारण विद्रोह लगभग महीने भर तक चलता रहा। त्रावणकोर के अन्य इलाक़ों में हार के बावजूद थम्पी इन लोगों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर युद्ध करते रहे और वहां जाकर लोगों का मनोबल भी बढ़ाते रहे।
लेकिन जनवरी का अंत आते आते अंग्रेज़ और ताक़तवर हो गए थे। 19 फ़रवरी, सन 1809 तक उदयगिरी और पद्मनाभपुरम के क़िले पर अंग्रेज़ों का कब्ज़ा हो गया। 27 फ़रवरी, सन 1809 को अच्चन ने आत्मसमर्पण कर दिया। इससे थम्पी को धक्का ज़रुर लगा लेकिन उन्होंने तीर-धनुष के बल पर अपना युद्ध जारी रखा। लेकिन नागरकोइल (वर्तमान तमिलनाडु) हारने के बाद उनकी तमाम उम्मीदों पर पानी फिर चुका था।
मार्च, 1809 का मध्य तक आते आते थम्पी को पकड़ने के लिए अंग्रेज़ों ने तमाम हथकंडे अपनाने शुरु कर दिए। घायल थम्पी ने गुपचुप महाराजा से मुलाक़ात की और उनसे आग्रह किया, कि वो उनको राजद्रोही घोषित कर दें। थम्पी ने महाराज को यह भी सलाह दी, कि वो किसी नए दीवान को नियुक्त करदें और उन्हें (थम्पी को) खोजने के लिए कोई हत्या या लूटपाट न करें। इसी बीच अंग्रेज़ों ने थम्पी के सिर पर 50 हजार रुपए के इनाम का ऐलान कर दिया था। नए दीवान उम्मिनी की नियक्ति, थम्पी और मैकुले दोनों की रज़ामंदी से हुई थी। दूसरी तरफ़ मजबूर होकर महाराजा को अपने अंगरक्षक बर्खास्त करने पड़े और उनको अंग्रेज़ों के सामने झुकना पड़ा।
थम्पी ने किलिमानूर (वर्तमान में तिरुवनंतपुरम ज़िला) में,महाराजा से आख़िरी मुलाक़ात की,उन्हें अपनी तलवार सौंपी और आगे निकल गए। आज ये तलवार केरल में नेपियर संग्राहलय में रखी हुई है।
28 मार्च सन 1809 को अंग्रेज़ों की एक टुकड़ी को देखकर थम्पी ने भागकर मन्नाडी मंदिर में पनाह ली और पकड़े जाने के डर से उन्होंने अपने सीने पर चाकू घोंपकर आत्महत्या कर ली। अंग्रेज़ों ने उनकी लाश की नुमाइश के लिए जनता के सामने उनके शव को फ़ासी पर लटका दिया। भारतीय गवर्नर जनरल लार्ड मिन्टो ने अपने एक वृत्तान्त में इस घटना की कड़ी निंदा की थी। थम्पी के कुछ रिश्तेदारों को या तो मार डाला गया या फिर मालदीव निष्कासित कर दिया गया। उनके घर भी आग के हवाले कर दिए गए।
थम्पी की गिनती केरल राज्य में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के जुझारु नेताओं में होती है। उनकी तुलना स्थानीय शूरवीर कुन्याली मराक्कर और पाझसी राजा के साथ की जाती है। सन 1947 में भारत की आज़ादी के बाद थम्पी की एक मूर्ति केरल के केन्द्रीय सचिवालय में स्थापित की गई थी। केरल सरकार ने मन्नाडी में भी उनके नाम पर एक स्मारक, शोध केंद्र, संग्रहालय, उद्यान और मूर्ति की स्थापना की है। सन 1962 में उनके जीवन पर आधारित मलयालम फ़िल्म ‘वेलुथम्पी दलवा’ बनाई गई जो बहुत सफल रही। सन 2010 में भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया।
आज थम्पी और उनके नेतृत्व में हुए विद्रोह को, केरल में जन-आन्दोलन का प्रेरणा स्त्रोत माना जाता है।
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