उर्दू शायरी में भी ख़ूब निखरे हैं कृष्ण-भक्ति के रंग

उर्दू शायरी में भी ख़ूब निखरे हैं कृष्ण-भक्ति के रंग

“छाप तिलक सब छीन ली रे!
मोसे नैना मिलाइ के,
री सखी मैं जो गई थी
पनिया भरन को,
छीन झपट मोरी मटकी पटकी,
मोसे नैना मिलाई के।”

13 वीं सदी के जाने-माने सूफ़ी शायर अमीर ख़ुसरो की मशहूर ‘रंग’ नामक क़व्वाली की इन पंक्तियों से तो बहुत लोग वाकिफ़ होंगे, लेकिन इस रचना के पीछे की कहानी के बारे में कम ही लोगों को पता होगा। इसके साथ कृष्ण-प्रेम का एक वाक़िया जुड़ा हुआ है। बताते हैं, कि एक बार हज़रत निज़ामउद्दीन औलिया को सपने में कृष्ण के दर्शन हुए, तो उन्होंने अपने सबसे चहेते शागिर्द अमीर ख़ुसरो को कन्हैया के बारे में कुछ रचने को कहा। गुरु की प्रेरणा से ख़ुसरो ने यह ‘रंग’ क़व्वाली रच डाली, जिसमें उपयोग किए गए ‘छीन झपट’ व ‘मोरी मटकी पटकी’ सरीख़े शब्दों से नटखट कृष्ण की छवि उजागर हो जाती है। ख़ुसरो ने ‘हालात-ए-कन्हैया’ शीर्षक से एक ग्रंथ की भी रचना की है।

बंदीगृह में कृष्ण के जन्म के बाद उन्हें ले जाते हुए बासुदेव | म्यूजियम ऑफ फाईन आर्ट्स, बोस्टन में संग्रहित मुगल मिनिएचर

भारतीय साहित्य और संगीत में अमीर ख़ुसरो (1253-1325) के योगदान से सभी वाक़िफ़ हैं। गंगा-ज़मुनी संस्कृति के अग्रदूत माने जानेवाले ख़ुसरो ने अपनी रचनाओं में ‘हिन्दवी’ भाषा यानी ऐसे शब्दों का प्रयोग करते थे, जिसमें खड़ी बोली, फ़ारसी, अरबी ज़ुबानों आदि के शब्द शामिल होते थे। लोगों की ज़ुबान पर सहजता से चढ़ जानेवाली उनकी शायरी अर्थात कविता में जो कृष्ण-प्रेम की धारा फूटी, तो सदियों तक हिलोरे मारती रही। और, कृष्ण-प्रेम की यह धारा ख़ुसरो से शुरू होकर 15 वीं सदी में मालिक मुहम्मद जायसी, 16 सदी में रसख़ान और रहीम, 17 वीं सदी में आलमशेख़, 19 वीं सदी में वाजिद अली शाह और हज़रत मोहानी एवं 20 सदी में हफ़ीज़ जालंधरी से लेकर मौज़ूदा दौर में कैफ़ी आज़मी, निदा फाजली और यहाँ तक जावेद अख्तर तक बदस्तूर जारी रही ।

उर्दू के शायरों में कृष्ण की ओर अत्यधिक रूझान के पीछे ‘प्रेम’ का तत्व है, जो मतभेदों से परे और सभी सीमाओं से ऊपर है। चाहे वो प्रेम संसार के रचयिता (इश्क़-ए-हक़ीक़ी) से हो अथवा उसकी रचना (इश्क़-मज़ाजी) से। तभी तो उर्दू के मशहूर शायर गौहर कानपुरी कहते हैं, कि कृष्ण सदियों से उर्दू शायरों के लिये महत्वपूर्ण हस्ती रहे हैं। गौहर कानपुरी बताते हैं, कि सूफ़ी संतों के मातहत ‘मथनवी’ परम्परा के समानांतर ‘प्रेमाख्या’ नाम की एक नई धारा चली, जो इश्क़-ए-हक़ीक़ी (रचनाकर्ता) के सूफ़ी दर्शन पर आधारित है। गौहर कानपुरी का मानना है, कि उर्दू कृष्ण-काव्य उतना ही पुराना है, जितनी कि ख़ुद उर्दू भाषा। यानी कि 12 वीं सदी जब उर्दू भाषा अस्तित्व में आयी।

साहित्य का इतिहास बताता है, कि 14 वीं सदी या इससे कुछ पहले कविता में ‘सूफ़ीवाद’ की स्थापना हुई थी। सूफ़ी शायर वास्तव में प्रेम के कवि रहे हैं, जिनकी कविताओं में रहस्यवाद की प्रधानता पाई जाती। उनकी कविताएं एक स्तर पर सांसारिक प्रेम की चाशनी में डूबी हुई हैं, तो वहीं दूसरे स्तर पर ये आध्यात्मिक प्रेम का एहसास कराती हैं।

तभी तो मशहूर लेखिका और इतिहासकार राना सफ़वी कहती हैं, कि इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है, कि कृष्ण उर्दू शायरों के सबसे प्यारे पात्र बन गये हैं। सफ़वी के अनुसार कृष्ण-काव्य में गोपियां जहाँ ‘भक्त’ की प्रतीक हैं, वहीं भगवान कृष्ण ‘ईश्वर’ के। वस्तुतः कृष्ण तो ‘अविनाशी’ हैं, जिनके भक्त अपने प्रिय देवता की प्रशंसा करने के रास्ते ढूंढ ही लेते हैं।

यहाँ इस बात का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा, कि हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल (14 वीं सदी से 18 वीं सदी) की दो प्रमुख धाराओं में एक सणुण-भक्ति थी, जिसकी एक शाखा कृष्ण-भक्ति पर आधारित  ‘कृष्णाश्रयी’ कहलाती है (दूसरी शाखा रामाश्रयी), तो दूसरी धारा निर्गुण-भक्ति की एक शाखा ‘प्रेमाश्रयी’ (दूसरी शाखा ज्ञानाश्रयी) कहलाती है, जो मुसलमान सूफ़ी कवियों के ‘प्रेममार्गी’ दर्शन पर आधारित है। सूफ़ी यह मानते हैं, कि प्रेम के माध्यम से ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।

कृष्ण-काव्य के मुसलमान कवियों की बात की जाए, तो इनमें जायसी (1447-1542) का नाम प्रमुखता से आता है। ‘सांस्कृतिक एकता का गुलदस्ता’ नामक किताब में डॉ. इक़बाल अहमद बताते हैं, कि जायसी की लिखी ‘कन्हावत’ न सिर्फ़ हिन्दी और अवधी भाषाओं का पहला कृष्ण-काव्य माना जाता है, बल्कि यह किसी मुसलमान कवि के रचे पहले कृष्ण-काव्य में शुमार है। ‘कन्हावत’ की कथा का मूल आधार श्रीमद्भागवत है, जिसमें कंस, मथुरा, देवकी का कारावास, कृष्ण जन्म, राधा-कृष्ण मिलन, कंस-वध आदि का वर्णन है।

मथुरा के दुष्ट राजा कंस का वध करते हुए कृष्ण: मुगल पेंटिंग, 1590 ई.

रसख़ान की कृष्ण-भक्ति के बारे में कहा जाता है, कि यह इतनी गहरी थी, कि उन्होंने मथुरा और वृंदावन को मानों अपना घर ही बना लिया था। विद्वानों ने उन्हें दूसरा सूरदास कहकर संबोधित किया है। उन्होंने भगवद्गीता का फ़ारसी में अनुवाद किया था, और ब्रजभाषा में उत्कृष्ट वैष्णव कविताएं लिखी थी।

इसी तरह रहीम (1556-1627) की पहचान उनके दरबारी कवि होने, और नीतिपरक दोहों के कारण है, लेकिन उन्होंने कृष्ण-काव्य की भी रचना की है, जिसकी एक बानगी देखिये:

“जिहि रहीम मन आपुनो, कीन्हों चतुर चकोर,
निसि बासर लाग्यो रहे, कृष्ण चन्द्र की ओर।”

16 वीं सदी के सूफ़ी शायर शाह बदरूद्दीन ज़ानम ने कृष्ण पर ‘सुख सहेला’ नाम से दोहे लिखे, तो 18 वीं सदी के तीन उर्दू कवि – शाह तैयब़ चिश्ती, वली दक्कनी और उजलत ने अपनी कविताओं में कृष्ण की चर्चा की है।

अपनी कविताओं में प्रेम की तन्मयता के कारण रसख़ान के साथ जोड़े जाने वाले रीतिकालीन कवि आलम शेख़ (1683-1703) ने भी कन्हैया के प्रेम में कुछ लाजवाब़ पंक्तियां लिखी हैं:

“पालने में खेलत नंद-ललन छलन बलि,
गोद लै लै ललना करति मोदगान है,
आलमसुकवि पल पल मैया पावै,
सुख/पोषति सुकरत पय पान है।”

फ़ितरत से कवि और कलाकार रहे अवध के नवाब़ वाजिद अली शाह (1822-1887) भी कृष्ण प्रेमी थे। उन्होंने ‘रासलीला’ पर आधारित अपने नाटकों के ज़रिये कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति का इज़हार किया।

नवाब वाजिद अली शाह

पांचों वक्त के नमाज़ी और हाजी होने के बावज़ूद मौलाना हसरत मोहानी (1875-1951) कृष्ण के प्रगाढ़ प्रेमी थे। कृष्ण को वे ‘हज़रत कृष्ण जी महाराज’ कहकर बुलाते थे, और जन्माष्टमी के समय अक्सर मथुरा जाते थे। एक बार जब वे जन्माष्टमी पर मथुरा नहीं जा पाये तो उन्होंने पश्चाताप करते हुए लिखा:

 “हसरत की भी क़बूल हो मथुरा में हाज़िरी,
सुनते हैं आशिकों पे तुम्हारा करम है ख़ास।

नज़ीर अकबराबादी (1740-1830) अपने ‘बालपन में बांसुरी बजैया’ शीर्षक नज़्म में कृष्ण के जन्म और उनके बालपन का वर्णन करते हुए लिखते हैं:

“बालपन में देखते जिधर नज़र उठा,
पत्थर भी एक बार बन जाता मोम-सा।”

वहीं ‘जनम कृष्ण कन्हैया जी’ में भगवान के बंदीगृह में जन्म लेने और उसके बाद की घटनाओं का ज़िक्र करते हैं। इसके अलावा शायर नज़ीर ने ‘कन्हैया जी की शादी’ और’ कन्हैया जी का रास’ शीर्षक से भी नज़्में भी लिखी हैं।

सीमाब अकबराबादी (1882-1951) कृष्ण की मनोहारी रासलीला से बिखरते रंगों को बयां करते हुए अपनी कविता ‘प्रीत के गीत’ में कहते हैं:

“ख़ुदी के होश उड़ाने बसंत नियाज़ आया,
नयी पायलों में शोबा-ए-ज़िंदगी लेकर,
फ़िज़ा-ए-देहर में गाता फिर वो प्रीत के गीत।”

इसी तरह मुनव्वर लखनवी (1897-1970) ने ‘किशन का मुक़ाम’, ‘ख़ुदा-ए-हुस्न किशन’ और ‘रूकमनी और किशन की अज़मत’ में कृष्ण के विभिन्न रूपों के वर्णन किये हैं। वहीं मोहसिन काकोरवी (1826-1905) ने ‘गुलदस्ता-ए-मोहसिन काकोरवी’ में मथुरा, गोकुल, कन्हैया और गोपियों की चर्चा की है।

कैफ़ी देहलवी (1866) ने कृष्ण को विषय-वस्तु बनाकर ‘बंशी की धुन सुनाए जा’, ‘बंशीवाले आ जा’, ‘किशन जी का फ़लसफ़ा-ए-अमल’, ‘भारत की ख़बर लीजिए’ और ‘राधेश्याम’ की रचना की, तो ज़ोश मलसियानी (1833-1976) अपनी कविता ‘भगवान तुम्हें क्या’ में फ़रियाद करते हैं:

“पाऊं किसी वक़्त भी आराम तूझे क्या,
भगवान तुम्हें क्या, मेरे घनश्याम तुम्हें क्या।”

उर्दू नज़्म के सम्राट माने जानेवाले जोश मलीहाबादी (1895-1982) ने तो अपनी’ ‘मुरली’ शीर्षक कविता में मानों गोकुल का पूरा माहौल ही जीवंत कर दिया है-

“यह किन ने बजाई मुरलिया, हृदय में बदरी छाई,
गोकुल में बसा रंग, बाजा हर घट पे मृदंग।”

वहीं दूसरे शायर शाद मुहम्मद काज़िम, कृष्ण की छवि पर फ़िदा होते हुए कहते हैं:

“आस चुभ गई मोरे हिए छवि सांवरी, ऐ जसोदा लाल की,
जस कागद मसि वैसे लागी, बल जाऊं अपने खियाल की।”

मौजूदा दौर में निदा फ़ाज़ली (1938-2016) ने लिखा:

“बृंदावन के कृश्न कन्हैया अल्लाह हू।”

पाकिस्तान के राष्ट्र-गीत ‘क़ौमी तराना’ के रचनाकार मशहूर शायर हफ़ीज़ जालंधरी (1900-1982), जो विभाजन के बाद भारत से पाकिस्तान चले गये थे। वह भी कृष्ण के भक्त थे। अपनी नज़्म ‘कृश्न कन्हैया’ में गोपियों के संग नृत्य कर रहे कृष्ण की रासलीला के दृश्य को ‘तुर्फ़ नज़ारा’ (विरल दृश्य) बताते हुए कहते हैं:

नशा है न मय है ,कुछ और ही सही है।”

उर्दू के शायरों ने जहाँ कृष्ण-भक्ति में उनके जन्म, बालपन, मोहिनी रूप और रासलीला को बयान किया है, वहीं उनके महाभारत के पार्थसारथी, योद्धा और उपदेशक के रूपों के वर्णन भी पूरी संजीदगी से किया है।

इस दृष्टि से ख़्वाजा दिल मोहम्मद की ‘दिल की गीता’ महत्वपूर्ण है, जिसमें वे कहते हैं:

“जो अर्जुन का देखा ये रंज़ोमलाल,ग़म-ए-सोज़ दिल में तबीयत निढ़ाल,
नज़र दुःख से बेचैन, आंखों में नम,भगवान बोले ज़राहे करम।”

ख़्वाजा शाद मोहम्मद की किताब 'दिल की गीता'

इसी संदर्भ में मौजूदा दौर में कैफ़ी आज़मी (1919-2002) ने लिखा:

और फ़िर कृश्न ने अर्जुन से कहा

महाभारत में कौरवों के द्वारा द्रौपदी के चीर हरण के समय उसकी इज़्ज़त की रक्षा करने वाले लीलाबिहारी कृष्ण का एक रूप उद्धारक और रक्षक का भी है। जिसे याद करते हुए मौज़ूदा हालात पर गमज़दा चकबस्त (1882-1926) फ़रमाते हैं:

अब न अर्जुन है न वह ज्ञान का दरिया बाक़ी,
न वह आँखें हैं, न वह नूर का जलवा बाक़ी।”

भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब का सम्पूर्ण संदेश कृष्ण में निहित प्रेम के सारतत्त्व में समाया हुआ है जो हर मतभेद और नफ़रत से ऊपर है। तभी तो मौलाना ज़फ़र अली खां (1873-1956) ने फ़रमाया है:

 अगर किशन की तालीम आम हो जाए,
तो काम फ़ित्तनागरों के तमाम हो जाएं।”

हम आपसे सुनने के लिए उत्सुक हैं!

लिव हिस्ट्री इंडिया इस देश की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए यहाँ संपर्क कीजिये: contactus@livehistoryindia.com

आप यह भी पढ़ सकते हैं
Ad Banner
close

Subscribe to our
Free Newsletter!

Join our mailing list to receive the latest news and updates from our team.

Loading