भारतीय सैन्य अकादमी, देहरादून: संघर्ष से सुरक्षा तक

भारतीय सैन्य अकादमी, देहरादून: संघर्ष से सुरक्षा तक

सन 1947-48 के कश्मीर युद्ध में भारत और पाकिस्तान पहली बार आमने-सामने थे। इस लड़ाई में दोनों तरफ़ कुछ लोग ऐसे भी थे, जिन्होंने भारतीय सैन्य अकादमी में साथ-साथ प्रशिक्षण लिया था।

देहरादून, उत्तराखंड में स्थित भारतीय सैन्य अकादमी (IMA) सन 1932 से भारतीय और अन्य सेनाओं के अधिकारियों को तैयार करती आ रही है।

अंग्रेज़ों के शासनकाल के दौरान 200 सालों तक सेना में भारतीय सैनिकों को आगे बढ़ने का अवसर प्राप्त नहीं थे, लेकिन बाद में भारतीय सैन्य अकादमी की स्थापना के बाद हुई ‘भारतीयकरण’ की प्रक्रिया के नतीजे में उन्हें बडे पदों पर काम करने का अधिकार मिला।

आईएमए का एक दृश्य | विकिमीडिआ कॉमन्स

18वीं शताब्दी में भारत में अपना शासन स्थापित करने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी सेना में भारतीय सिपाहियों (अन्य स्तरों) की भर्ती की, लेकिन ज़्यादातर उच्च अधिकारी अंग्रेज़ हुआ करते थे।

सन 1844 में भारतीय सेना में, भारतीय अधिकारियों को भर्ती करने का मामला ईस्ट इंडिया कंपनी में एक वरिष्ठ अधिकारी हेनरी लॉरेंस ने उठाया था। लेकिन सन 1857 में जब भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया, तब ये मामला दब गया। इसके बाद ब्रिटिश-भारतीय सेना में दो श्रेणियां बनाईं गईं- एक,किंग्ज़ कमिशंड ऑफ़ीसर्स यानी राजशाही द्वारा नियुक्त अधिकारी जो सब अंग्रेज़ होते थे और दूसरे, इंडियन ऑफीसर्स यानी भारतीय अधिकारी जिन्हें “सब-ऑफ़िसर” कहा जाता था।

हेनरी लॉरेंस | विकिमीडिआ कॉमन्स

19वीं सदी के अंत में भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन की वजह से सेना में भारतीय अधिकारियों की ज़रुरत मेहसूस होने लगी थी। चार जून सन 1900 को भारत के वायसराय, लॉर्ड कर्ज़न, ‘मेमोरेंडम ऑन कमिशंस फ़ॉर इंडियंस’ लेकर आए, जिसके तहत मेरठ और देहरादून में इंपीरियल कैडेट कोर का गठन हुआ, जहाँ वायसराय द्वारा प्रमाणित भारतीय अधिकारियों की भर्ती हुई, जो भारतीय सैनिकों के लिये रोशनी की एक किरण की तरह थी। ये भर्तियां शाही शासन के अधीन भारतीय थल-सेना के तहत की जाती थीं।

दुर्भाग्य से ये व्यवस्था ज़्यादा सफल नहीं हो सकी, क्योंकि इसका लाभ रियासतों या युद्धरत सामंती परिवारों को ही मिल रहा था, जिनके हित ब्रिटिश सरकार के साथ जुड़े थे। ये भारतीय अधिकारी अंग्रेज़ सेना का नहीं बल्कि सिर्फ़ स्थानीय राज्य सेना का नेतृत्व करते थे। इसके अलावा उन्हें अंग्रेज़ सैनिकों की तरह तनख़्वाह भी नहीं मिलती थी।

भारतीयों की नियमित ट्रैनिंग का मामला फिर उठा और इस पर काम भी होने लगा, लेकिन प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) की वजह से ये रुक गया और इंपीरियल कैडेट कोर को भी भंग कर दिया गया।

युद्ध के बाद सेना में बड़े पैमाने पर भर्ती शुरू हुई। इस दौरान भारतीय सैनिकों के बीच राजनीतिक जागरूकता तेज़ी से फ़ैलनी शुरू हो गयी थी। वे पदोन्नति और राजनीतिक स्वतंत्रता चाहते थे। अंग्रेजों को अब लग गया था, कि ब्रिटिश भारतीय सेना में अधिकारियों के रूप में भारतीयों को पदोन्नत करने का समय आ गया है।

मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार-1919 के दौरान सेंडहर्स्ट रॉयल मिलिट्री कॉलेज से स्नातक कमीशन प्राप्त अधिकारियों को सेना में भर्ती करने का प्रावधान रखा गया, जिसके लिये भारत में एक संस्थान की स्थापना की गई, जहां इन अधिकारियों को चयन के लिये नौ चरणों से गुज़रना होता था। इस तरह सन 1922 में देहरादून में एक सहायक संस्थान प्रिंस ऑफ़ वेल्स रॉयल इंडियन मिलिट्री कॉलेज की स्थापना हुई, जो बाद में राष्ट्रीय इंडियन मिलिट्री कॉलेज के नाम से जानी गयी।

राउंड टेबल कांफ्रेंस | विकिमीडिआ कॉमन्स

संस्थान की धीमी सफलता को देखते हुए, सन 1925 में भारत में जनरल स्टॉफ के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल एंड्रयू स्कीन के नेतृत्व में एक समिति का गठन किया गया, जिसने ‘इंडियन सैंडहर्स्ट’ बनाने के लिये ब्रिटेन, फ्रांस, संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा की सैन्य अकादमियों का दौरा कर, उनकी प्रणाली और पाठ्यक्रम को समझने की कोशिश की।

कैडेट्स आईएमए में प्रशिक्षण लेते हुए | विकिमीडिआ कॉमन्स

सन 1931 में फ़ील्ड मार्शल फिलिप चेटवोड शिमला (अब हिमाचल प्रदेश में) में भारतीय सैनिक कॉलेज समिति के प्रमुख बनें। वह संस्थान के लिये स्कीन समिति द्वारा सुझाए गये मानदंडों के अनुसार जगह तलाश रहे थे, तब उनकी नज़र देहरादून पर पड़ी। स्कीन समिति ने संस्थान के लिये ऐसी जगह का सुझाव दिया था, क्योंकि वहां न तो ज़्यादा गर्मी होती थी और न ही ठंड, वहां अकादमी का विस्तार भी हो सकता था, और एक सैन्य छावनी पहले से ही थी। उन्होंने, इसके लिये इंडियन रेलवे स्टाफ़ कॉलेज को चुना क्योंकि सन 1930 में महामंदी के कारण इसकी स्थापना के बाद ये वीरान हो गया था। यहां खेलने के लिये बड़ा मैदान था और यह ड्रिल के लिये एक चौकोर स्थान भी था।

फ़ील्ड मार्शल फिलिप चेटवोड | विकिमीडिआ कॉमन्स

जुलाई सन 1931 तक देहरादून में भारतीय सैन्य अकादमी की स्थापना करने की योजना तय की गई। सैंडहर्स्ट की तर्ज़ और मानकों पर पाठ्यक्रम, ट्रैनिंग और बुनियादी ढांचे की रुपरेखा तैयार की गई। यह निर्णय किया गया, कि ब्रिटेन के सम्राट की ओर से भारतीय गवर्नर जनरल के आदेश से अधिकारियों को नियुक्त किया जाएगा। इस तरह अब देहरादून में, आर आई एम सी और आई एम ए (इंडियन मिलिट्री एकेडमी) में भारतीयों को अपने ही देश में सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त करने के अवसर मिल गये थे।

आखिकार, 30 सितंबर, सन 1932 को 40 कैडेटों का पहल बैच देहरादून पहुंचा । उसके बाद एक अक्टूबर सन 1932 को उन की ट्रैनिंग शुरू हुई। हालाँकि इसका आधिकारिक उद्घाटन दस दिसंबर सन 1932 को हुआ, क्योंकि कैडेटों को परेड और मार्च पास्ट की तैयारी करानी थी।

22 दिसंबर सन 1934 को अकादमी की पहली पासिंग आउट परेड हुई, जिसमें भारत, पाकिस्तान और बर्मा के भावी सेना प्रमुखों- सैम मानेकशॉ, मुहम्मद मूसा और स्मिथ डन ने भाग लिया था। स्मिथ को अपने बैच के सर्वश्रेष्ठ कैडेट के रूप में सम्मानित किया गया, जिन्होंने पासिंग आउट परेड की कमान भी संभाली थी।

सैम मानेकशॉ | विकिमीडिआ कॉमन्स

सन 1947 में स्वतंत्रता मिलने और देश के विभाजन के बाद अंग्रेज़ ट्रेनर ब्रिटेन वापस चले गए, पाकिस्तानी कैडेट पाकिस्तान में काकुल सैन्य अकादमी चले गये, इसलिये स्वतंत्र भारत की पहली पासिंग आउट परेड में 189 भारतीय केडेट्स ने हिस्सा लिया और वही सैन्य अकादमी से निकलने वाले पहले बैच बने।

आईएमए में गार्ड ऑफ ऑनर का निरीक्षण करतीं पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल | विकिमीडिआ कॉमन्स

अपने 89 गौरवशाली वर्षों में आई एम ए भारत की समृद्ध सैन्य ऐतिहासिक विरासत का एक अभिन्न अंग रहा है। यहां से मथके निकलने वाले सैन्य अधिकारी आज भी प्रेरणा के बहुत बड़े स्त्रोत हैं, जिन्होंने राष्ट्र निर्माण में सक्रिय रूप से योगदान किया है।

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