प्रयागराज और हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग

प्रयागराज और हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग

प्रयागराज या इलाहाबाद, अर्थात त्रिवेणी, जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम होता है। इसमें गंगा और यमुना तो नदियों के रूप में यहाँ निरंतर बहती ही हैं और उनका सुगम संगम भी मन को मोहित करता है पर सरस्वती, जो कि ज्ञान की देवी है, यहाँ अदृश्य है और वो, इस शहर में ज्ञान के रूप में ही प्रवाह होती है। प्रयागराज ने साहित्यिक दुनिया में अपना अलग स्थान बनाया है। ये वो जगह अर्थात तीर्थ-क्षेत्र है जिसका वर्णन गोस्वामी तुलसीदास ने अपने महाकाव्य श्रीरामचरितमानस में भी किया था।

इस शहर ने संस्कृत और उर्दू-फ़ारसी के कई बड़े साहित्यकार दिए हैं। खड़ी बोली के प्रथम साहित्यकारों में और हिंदी गद्य के चार प्रमुख स्तम्भों में एक, मुंशी सदासुख लाल का नाम उल्लेखनीय है। १७४६ ईसवी में, दिल्ली में जन्मे मुंशीजी, गौड़ कायस्थ थें और आगे चुनार के तहसीलदार हो गये थें। १८११ में वो प्रयागराज में आ बसें और यहाँ पर श्रीमद्भागवत और विष्णु-पुराण की कथा को आम बोलचाल की हिंदी में ‘सुखसागर’ के नाम से लिखकर प्रकाशित किया। प्रयागराज में हिंदी भाषा और साहित्य द्वारा समाज सुधार की पहल भी मुंशीजी ने ही करी थी।

भारतेंदु युग और बालकृष्ण भट्ट

कभी मुग़लों और अंग्रेज़ों की राजधानी रहा, ये प्रयागराज शहर, उन्नीसवीं सदी के अंत में और बीसवीं सदी में हिंदी साहित्य का केंद्र बना। ये वो दौर था, जब आधुनिक हिंदी आकार ले रही थी। बनारस में जन्मे भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के प्रथम चरण की नीव रखी जिसे आज भारतेंदु युग के नाम से ही जाना जाता है। इस युग में, रितिवादी साहित्य की रूढ़िवादी सोच को पीछे छोड़ कर आधुनिक भारत की राष्ट्रवादी सोच को बढ़ावा दिया गया। भारतेंदु युग में खड़ी बोली का भी उत्थान हुआ और हिंदी साहित्य में उसे एक ख़ास जगह मिली।

इसी युग में प्रयागराज के अहियापुर क्षेत्र में, सन १८४४ में पंडित बालकृष्ण भट्ट का जन्म हुआ। हिंदी साहित्य में इनका बड़ा योगदान है। वैसे तो पंडितजी संस्कृत के प्रसिद्ध अध्यापक थे पर भारतेंदु जी से प्रेरित होकर इन्होंने प्रयागराज में, सन १८७६ में, हिंदी वर्द्धिनी सभा की स्थापना करी और सन १८७७ में हिंदी की प्रसिद्ध मासिक पत्रिका ‘हिंदी प्रदीप’ का प्रकाशन शुरू किया। बालकृष्ण भट्ट इस पत्रिका के अजीवन सम्पादक रहें। हिंदी प्रदीप के प्रकाशन के साथ ही बालकृष्ण भट्ट ने प्रयागराज में आधुनिक शिक्षा, साहित्य और पत्रकारिता की नीव डाली। पंडित जी ने कई निबंध संग्रह, नाटक और उपन्यास भी लिखे। उन्होंने संस्कृत और बंगाली नाटकों का हिंदी में अनुवाद भी किया।

बालकृष्ण भट्ट | विकिमीडिया कॉमन्स 

हिंदी राष्ट्रवाद और प्रयागराज

भारत में हिंदी राष्ट्रवाद की नीव, इसी शहर में रखी गयी थी जिसमें सबसे आगे चलने वालों में पंडित मदन मोहन मालवीय का नाम उल्लेखनीय है। वो भारत के एक मात्र व्यक्ति हैं जिन्हें महामना की उपाधि से विभूषित किया गया है। सन १८६१ में, प्रयागराज के अहियापुर मोहल्ले में जन्मे मदन मोहन मालवीय ने प्रारम्भिक शिक्षा संस्कृत विद्यालय से पूरी करने के बाद, इलाहाबाद के म्योर सेंट्रल कॉलेज में दाख़िला लिया और फिर कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक की परीक्षा दी।

१८८६ में कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में ए. ओ. ह्यूम और मालवीयजी – कलकत्ता

सन १८८५ में कांग्रेस के गठन के बाद, जब सन १८८६ में कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन कलकत्ता में हुआ, तब से मालवीय जी उसके साथ जुड़े रहे और मरते दम तक कांग्रेस के राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा भी रहें। हिंदी भाषा पर भी मालवीय जी का बहुत परोपकार है। ये उन्ही की मेहनत थी कि भारत में, हिंदी भाषा को अदालती कार्यवाही में क़ानूनी रूप से स्थान मिला था। हिंदी साहित्य सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन, जो १९१० में बनारस में हुआ था, उसके सभापति भी मालवीय जी ही चुने गए थे। प्रयागराज में हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना का कार्य भी मालवीय जी ने ही बनारस की नागरी प्रचारिणी सभा के तत्वावधान में किया था।

मालवीय जी, मोतीलाल नेहरु, महात्मा गांधी और फिर जवाहरलाल नेहरु के साथ स्वतंत्रता आंदोलन का प्रभावशाली हिस्सा रहे और देश हित में सदैव समर्पित भी रहें।

प्रयागराज वो शहर था, जिसने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को दिशा प्रदान की थी। अंग्रेज़ी राज ने, भारत में, अंग्रेज़ी भाषा की जड़ों को बहुत मज़बूत कर दिया था जिसको कमज़ोर करने का कार्य मदन मोहन मालवीय और हिंदी साहित्य सम्मेलन जैसे संस्थान पूरी निष्ठा के साथ कर रहे थें। मालवीय जी ये बात समझ गए थे कि अंग्रेज़ी हुकूमत को कमज़ोर करने के लिए हिंदी भाषा का पुनरोत्थान बहुत ज़रूरी है और उन्होंने इसी दिशा में कार्य भी किया। आगे चल कर, मदन मोहन मालवीय, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक हुयें और प्रयागराज में भी हिंदी की सेवा में कई संस्थानों की स्थापना की जिसमें भारती भवन पुस्तकालय का नाम महत्वपूर्ण है। चौक-लोकनाथ स्थित, हिंदी साहित्य का ये प्रसिद्ध पुस्तकालय स्वतंत्रता सेनानियों के आंदोलन में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसकी स्थापना मालवीय जी ने बालकृष्ण भट्ट और बृजमोहन लाल भल्ला के साथ मिल कर की थी।

हिंदी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद

एक और व्यक्ति जिसने हिंदी भाषा के उत्थान और उसको राष्ट्रवाद से जोड़ने का कार्य किया, वो थें, पुरुषोत्तम दास टण्डन। इनको राजर्षि की उपाधि से विभूषित किया गया था। प्रयागराज के प्रसिद्ध कांग्रेसी, पुरुषोत्तम दास टण्डन, हिंदी साहित्य सम्मेलन के अजीवन मंत्री थे और इसीलिए आज भी उन्हें ‘सम्मेलन का प्राण’ माना जाता है। हिंदी राष्ट्रभाषा आंदोलन के अग्रदूत महामना मालवीय और राजर्षि टण्डन ही थे। पुरुषोत्तम दास टण्डन को सन १९६१ में और मदन मोहन मालवीय को सन २०१५ में भारत के सर्वोच सम्मान, भारत रत्न से विभूषित किया गया।

पुरुषोत्तम दास टण्डन – डाक टिकट

श्रीधर पाठक

श्रीधर पाठक का जन्म सन १८६० में आगरा में हुआ था परंतु साहित्य में रुचि होने के कारण वो साहित्य के केंद्र- प्रयागराज में आ कर बस गयें। ये स्वदेश प्रेम, प्राकृतिक सौंदर्य तथा समाज सुधार की भावनाओं के कवि थे। खड़ी बोली में काव्य रचना कर श्रीधर पाठक ने गद्य और पद्य की भाषाओं में सामंजस्य स्थापित करने का ऐतिहासिक कार्य किया है। इनकी रचनाओं में भारतोत्थान, भारत-प्रशंसा, जॉर्ज-वंदना, बाल-विधवा जैसी ऐतिहासिक कृतियों के नाम हैं। इन्होंने कालिदास की प्रसिद्ध रचना, ऋतुसंहार और गोल्ड स्मिथ की हर्मिट और द ट्रैवलर जैसी प्रसिद्ध कृतियों का हिंदी में अनुवाद किया है। श्रीधर पाठक हिंदी साहित्य सम्मेलन के सन १९१४ के अधिवेशन में सभापति चुने गए थे। इन्होंने ब्रजभाषा में काव्य रचनायें कीं और खड़ी बोली के लिए बहुत काम किया।

श्रीधर पाठक

प्रकाशन का केंद्र- प्रयागराज

प्रयागराज, हिंदी-साहित्य का केंद्र इसलिए भी बना क्योंकि ये प्रकाशन का केंद्र बन चुका था। अंग्रेज़ी और उर्दू के प्रकाशन के साथ साथ, हिंदी के भी विख्यात प्रकाशक इसी शहर में काम कर रहे थें। उन्नीसवीं शताब्दी में प्रकाशन का केंद्र लखनऊ था जहाँ के प्रमुख प्रकाशक मुंशी नवल किशोर ही थे। सन १८५८ में प्रयागराज के प्रांत की राजधानी बनते ही, गवर्नमेंट प्रेस यहाँ आ गया। उसके साथ ही अंग्रेज़ी का प्रसिद्ध पायनीयर प्रेस सन १८६४ में यहाँ स्थापित हुआ। अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध लेखक रुडयार्ड किप्लिंग ने भी कुछ समय तक इसी प्रेस में काम किया था।

उसके बाद शहर में कई छोटी बड़ी प्रिंटिंग प्रेस खुल गईं जो हिंदी के प्रकाशन में अच्छा काम कर रहीं थीं। इस क्रम में सन १८८४ में चिंतामणि घोष द्वारा स्थापित इंडियन प्रेस का कार्य सबसे उल्लेखनीय है। अंग्रेज़ी और हिंदी के प्रकाशन में इस प्रेस को बहुत प्रसिद्धि मिली। सन १९०८ से सन १९१४ तक रविंद्रनाथ टैगोर की सारी रचनायें इसी प्रेस से छपीं जिसमें उनकी नोबेल पुरस्कार से सम्मानित गीतांजलि भी शामिल है।

प्रयागराज के अन्य प्रसिद्ध प्रकाशन संस्थानों में मदन मोहन मालवीय का लीडर प्रेस और अभ्युदय भी मुख्य रूप से उल्लेखनीय है। बाद में अभ्युदय के कार्यालय से ही ‘मर्यादा’ पत्रिका प्रकाशित हुई जिसके पहले अंक का पहला लेख पुरुषोत्तम दास टण्डन ने सन १९१० में लिखा था। स्त्री जीवन और नारीवाद के दृष्टिगत इलाहाबाद की गृहलक्ष्मी और चाँद जैसी पत्रिकाओं ने भी भारत में ख्याति प्राप्त की।

अभ्युदय का एक पत्र | साभार- अभिलेख पटल

प्रयागराज की ओंकार प्रेस से सुन्दरलाल की विवादित और बहुचर्चित ‘भारत में अंग्रेज़ी राज’ पुस्तक छपी थी जिसने अंग्रेज़ी हुकूमत को हिला कर रख दिया था। शहर के बहादुरगंज में पाणिनि का कार्यालय था जहाँ से कई विख्यात पुस्तकों का प्रकाशन हुआ। इस तरह प्रयागराज साहित्य प्रकाशन का केंद्र बन चुका था और ये ही कारण था की देश भर के हिंदी-उर्दू के साहित्यकार इलाहाबाद की तरफ़ आकर्षित हो रहे थे।

द्विवेदी युग

आधुनिक हिंदी के दूसरे चरण को हम द्विवेदी युग के नाम से जानते हैं जिसके अग्रदूत महावीर प्रसाद द्विवेदी थे। इनका जन्म अंग्रेज़ी कम्पनी बहादुर के एक सिपाही के घर में, राय बरेली में हुआ था। इन्होंने फ़ारसी, संस्कृत और हिन्दी में ज्ञानार्जन करने के बाद, झाँसी में, कुछ सालों तक रेल्वे की नौकरी करी। इसी बीच इनकी कई रचनायें प्रकाशित हुईं और इनकी गिनती हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकारों में होने लगी। उसके बाद ये इलाहाबाद आकर साहित्य सेवा में मग्न हो गये। द्विवेदी जी हिंदी के पहले साहित्यकार थे जिन्हें ‘आचार्य’ की उपाधि मिली थी।

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी

वर्ष १९०० में, इंडियन प्रेस ने भारत की पहली हिंदी मासिक पत्रिका निकाली जिसका नाम सरस्वती रखा गया। प्रयागराज से प्रकाशित ‘सरस्वती’ का सम्पादन पहले नागरी-प्रचारिणी सभा के ५ सदस्यों द्वारा होता रहा। फिर १९०३ तक राय बहादुर श्यामसुंदर दास इसके सम्पादक रहे। वर्ष १९०३ के बाद महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसके सम्पादन का कार्यभार सम्भाला और वर्ष १९२० तक उन्होंने ‘सरस्वती’ को एक लोकप्रिय पत्रिका बना दिया।

आचार्य द्विवेदी द्वारा सम्पादित सरस्वती पत्रिका

द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ को साहित्यिक और राष्ट्र-चेतना का स्वर प्रदान किया। अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरी औध’, मैथिलिशरण गुप्त से लेकर कहीं न कहीं निराला को स्थापित करने में इसी पत्रिका का योगदान था। द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ के माध्यम से राष्ट्रीयता का प्रसार तो किया ही पर उनका मुख्य उद्देश्य साहित्य को बढ़ावा देना था। गद्य-पद्य के लिए खड़ी बोली को प्रोत्साहन देना इनका सबसे बड़ा कार्य था और ये ही कारण था की आज उनके कार्यकाल को आधुनिक हिंदी साहित्य का द्विवेदी युग कहा जाता है।

मुंशी प्रेमचंद

धनपत राय श्रीवास्तव ‘प्रेमचंद’ का जन्म बनारस के लमही गाँव में सन १८८० में हुआ था। उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा उर्दू व फ़ारसी में ली और अपने साहित्यिक जीवन का आरम्भ सन १९०१ में किया। लेकिन उनकी पहली प्रसिद्ध हिंदी कहानी “सौत” सरस्वती (प्रयागराज) पत्रिका के दिसम्बर, १९१५ अंक में और अंतिम कहानी “कफ़न” सन १९३६ में प्रकाशित हुई थी।

मुंशी प्रेमचंद

मुंशी प्रेमचंद को, बंगाल के प्रसिद्ध साहित्यकार, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि से अलंकृत किया था और वो आज भी आधुनिक हिंदी कहानी के पितामह माने जाते हैं। प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य में यथार्थवादी परंपरा की नीव रखी थी जिसमें समाज की कुरितियों और निम्न वर्ग की परेशानियों पर प्रकाश डाला गया था। प्रेमचंद की हिंदी-उर्दू कहानियाँ समाज में नए बदलाव के आने का सूचक थीं और समाज को आइना दिखाने का काम भी कर रही थीं।

वैसे तो मुंशी प्रेमचंद बनारस, कानपुर और लखनऊ में बहुत समय तक रहे पर उनका प्रयागराज से ज़्यादा लगाव था। उनके दोनों पुत्र, श्रीपत राय और अमृत राय, जिन्होंने आगे चल कर हिंदी साहित्य में अपनी अलग पहचान बनाई, इलाहाबाद में ही रहते थे और ये ही कारण था की प्रेमचंद का प्रयागराज आना जाना लगा रहता था।

‘नमक का दरोग़ा’, ‘गोदान’ और ‘ग़बन’ जैसी कालजयी रचना देनेवाले प्रेमचंद स्वयं कहते थे,

“ बनारस और इलाहांबाद (प्रयागराज) रचना-कर्म के लिए सबसे उर्वर भूमि है। मुझे चैन तभी मिलेगा जब मैं अंतिम साँस यहाँ ले सकूँ। इलाहाबाद में दो नादियाँ ही गले नहीं मिलतीं, बल्कि यहाँ हिंदी और उर्दू की साझा तहज़ीब भी देखने को मिलती है। एक सफल रचनाकार को या तो इलाहाबाद में पैदा होना चाहिए या उसे अपने जीवन का बड़ा हिस्सा इलाहाबाद में बिताना चाहिए।“

वो अपने अंतिम समय में प्रयागराजआ कर यहीं से अपनी हंस प्रेस का काम सम्भालना चाहते थे लेकिन ऐसा हो नहीं सका और सन १९३६ में बनारस में उनका स्वर्गवास हो गया।

हंस पत्रिका

प्रयागराज में उनकी स्थापित की हुई सरस्वती प्रेस कई वर्षों तक चली और उनकी ‘हंस’ पत्रिका भी प्रकाशित होती रही। सन १९३६ में उनकी मृत्यु के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र, श्रीपत राय ने ये कार्य पूरी निष्ठा के साथ सम्भाला और सरस्वती प्रेस के संचालन के साथ-साथ, हंस पत्रिका को नयी दिशा और ऊँचाइयाँ दिलायीं। उनके दूसरे पुत्र अमृत राय ने हिंदी साहित्य की बहुत सेवा करी और आधुनिक कहानीकार के रूप में उभरे। प्रगतिशील साहित्यकारों में अमृत राय एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।

सुभद्रा कुमारी चौहान

हिंदी साहित्य की प्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका, सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म प्रयागराज स्थित, निहालपुर में हुआ था। इनके पिता, ठाकुर रामनाथ सिंह ज़मींदार थे और शिक्षा को सर्वाधिक महत्व देते थे। सुभद्रा कुमारी चौहान का विवाह जबलपुर के ठाकुर परिवार में सन १९१९ में हो गया था और सन १९२१ में, वो, महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से जुड़नी वाली प्रथम महिला बन गई थीं।

इनकी कवितायें देश-प्रेम की भावना से परिपूर्ण होती हैं। सुभद्रा कुमारी का नाम इसलिए भी अमर है क्योंकि इनकी सर्व प्रसिद्ध कविता ‘झाँसी की रानी’ सर्वथा लोकप्रिय है। आज भी इस कविता के पाठ मात्र से देश प्रेम की भावना मुखर हो जाती है। वो सुभद्रा कुमारी चौहान ही थीं जिन्होंने महादेवी वर्मा को प्रेरित किया था और नारीवाद की राह दिखायी थी। सुभद्रा कुमारी चौहान की जीवनी, ‘मिला तेज से तेज’ नामक पुस्तक, उनकी पुत्री सुधा चौहान ने लिखी है, जिसे प्रयागराज के हंस प्रकाशन ने प्रकाशित किया था।

सुभद्रा कुमारी चौहान

छायावाद और प्रयागराज

हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में द्विवेदी युग के बाद, छायावाद का युग आया। जिस प्रकार अंग्रेज़ी साहित्य के रोमांटिक युग में मानवीय भावों और प्रकृति प्रेम को एक उच्च स्थान मिला था वैसे ही छायावाद में प्रकृति प्रेम, नारी प्रेम, मानवीकरण, सांस्कृतिक जागरण और कल्पना की प्रधानता को विशेष स्थान मिला था।

छायावाद के चार प्रमुख स्तम्भों में जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा के नाम हैं। इन चारों में से तीन कवि, निराला, पंत और महादेवी वर्मा ने अपनी साहित्यिक लोकप्रियता इलाहाबाद में रह कर ही प्राप्त की थी।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

बंगाल के मेदिनीपुर में, सन् १८९९ में सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म हुआ। हिंदी साहित्य में छायावाद के प्रमुख कवियों में इनका नाम सबसे ऊपर है। निराला कुछ सालों तक कलकत्ता और लखनऊ में सम्पादन कार्य करने के बाद, सन १९४२ से मृत्यु पर्यन्त प्रयागराज में रह कर स्वतंत्र लेखन और अनुवाद-कार्य करते रहे। वो एक उत्कृष्ट कथाकार, निबंधकार, उपन्यासकार, अनुवादक और कवि थे, लेकिन उनको असली ख्याति उनकी उन्मुक्त कविताओं के कारण ही मिली थी जो की अपने चित्रण-कौशल और दार्शनिक गहराई के लिए जानी जाती हैं।

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’  | विकिमीडिया कॉमन्स 

इनका पहला काव्य संग्रह सन १९२३ में, ‘अनामिका’ नाम से प्रकाशित हुआ तथा पहला निबंध, ‘बंग भाषा का उच्चारण’, सन १९२० में सरस्वती पत्रिका में, प्रयागराज से प्रकाशित हुआ था। परिमल, गीतिका, बेला, गीत-कुंज इनके प्रमुख प्रकाशित काव्य संग्रह थे। वहीं मुख्य उपन्यासों में अप्सरा, अलका, निरुपमा, चमेली जैसे प्रसिद्ध नाम हैं। सन १९८३ में ‘निराला रचनावली’ के नाम से ८ खंडों में इनकी सम्पूर्ण प्रकाशित व अप्रकाशित रचनाओं का प्रकाशन हुआ था।

सन १९४२ में प्रयागराज आने के बाद कुछ समय तक वो चैथम लाइन्स के निकट कर्नलगंज में एक कमरा लेकर, हिंदी के एक और प्रसिद्ध साहित्यकार, इलाचंद्र जोशी के साथ रहते थे। उसके बाद वो दारागंज में राय अमरनाथ की कोठी के पीछे एक छोटे से मकान में रहने लगे थे जहाँ सन १९६१ में उन्होंने अंतिम साँस ली। निराला, महादेवी वर्मा को छोटी बहन मानते थे और उनसे बहुत स्नेह भी करते थे। आज भी इलाहाबाद की साहित्यिक बैठकों में दोनों की नोक झोंक के कई क़िस्से सुनने को मिलते हैं।

निराला की हस्तलिखित प्रसिद्ध कविता “वह तोड़ती पत्थर, देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर”

सुमित्रानंदन पंत

छायावाद के प्रमुख कवियों में एक और प्रमुख नाम सुमित्रानंदन पंत का है। इनका जन्म अल्मोड़ा ज़िले के कौसानी नामक गाँव में, सन् १९०० में हुआ था। १९२० के आसपास, उच्च शिक्षा के लिए पंत जी ने प्रयागराज के म्योर सेंट्रल कॉलेज में दाख़िला लिया और उसके बाद इलाहाबाद के ही होकर रह गए। इसी शहर में उनकी काव्यचेतना का विकास भी हुआ।

महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में हिस्सा लेने के बाद, पंत जी, रघुपति सहाय ‘फ़िराक़’ के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुड़ गए थे और सन १९३८ में उन्होंने ‘रूपाभ’ नामक प्रगतिशील मासिक पत्र निकाली थी। सन १९४० से सन १९४७ तक, वो, आकाशवाणी से भी जुड़े रहें और प्रमुख-निर्माता का पद सम्भाला।

बच्चन, पंत और राष्ट्रकवि दिनकर – इलाहाबाद में एक बैठक

पंत एक मानवतावादी कवि थे। उन्होंने खड़ी बोली में ही सौंदर्य के साथ प्रगतिशील काव्य रचना की और अपने आलोचकों के सामने कभी नहीं झुके। उनके प्रमुख काव्य-संग्रहों में पल्लव, युगांत, लोकायतन जैसी लोकप्रिय पुस्तकों के नाम हैं। पंत जी, हरिवंश राय बच्चन के प्रिय मित्रों में से थे। उन्होंने बच्चन के साथ संयुक्त रूप से ‘खादी के फूल’ नामक कविता संग्रह भी प्रकाशित करवाया था। सुमित्रानंदन पंत को प्रकृति का सुकुमार कवि भी कहा जाता है।

पंत जी को पद्मभूषण (१९६१), ज्ञानपीठ (१९६८), साहित्य अकादमी और सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार जैसे उच्च श्रेणी के सम्मानों से विभूषित किया गया था।

महादेवी वर्मा

छायावादी कवियों में सबसे लोकप्रिय स्थान महादेवी वर्मा का है। इनका जन्म फ़र्रुख़ाबाद में सन १९०७ में हुआ था। जीवन में शिक्षा का आरम्भ हुआ ही था कि इनका विवाह कर दिया गया पर महादेवी वर्मा सदा ही एक संयासन की तरह रहीं। यही कारण था कि उन्हें आधुनिक युग की मीरा भी बोला जाता है।

यूनाइटेड किंगडम की तत्कालीन प्रधान मंत्री मार्ग्रेट थैचर द्वारा महादेवी वर्मा को ज्ञानपीठ पुरस्कार लेते हुए

महादेवी वर्मा ने प्रयागराज में क्रॉस्थ्वेट स्कूल के छात्रावास में रह कर पढ़ाई पूरी करी। यहीं पर इनकी मित्रता सुभद्रा कुमारी चौहान से हुई जिन्होंने महादेवी वर्मा को लिखने के लिए बहुत प्रेरित किया। आगे चल कर महादेवी वर्मा ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम॰ए॰ की परीक्षा उत्तीर्ण की और फिर प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। महादेवी वर्मा इसी विद्यालय की कुलपति भी हो गयी थीं।

महादेवी वर्मा और महाकवि निराला

महाकवि निराला ने उन्हें ‘हिंदी के विशाल मंदिर की सरस्वती’ कह कर सम्बोधित किया था। मानवीय भावनाओं को और जीवन की जटिलता को बहुत गहराई से समझने के कारण महादेवी वर्मा छायावाद की प्रमुख कवियत्री के रूप में उदित हुई थीं। साहित्य सेवा के साथ उन्होंने समाज सुधार और स्वतंत्रता आंदोलन की प्रेरणा भी महात्मा गांधी से ली और उस दिशा में सदैव कार्यरत रहीं।

महादेवी वर्मा द्वारा सम्पादित ‘चाँद’ पत्रिका

नारी जीवन से प्रेरित हिंदी की प्रसिद्ध पत्रिका, ‘चाँद’ का सम्पादन भी महादेवी वर्मा ने ही सन १९२३ से सम्भाला था। हिंदी साहित्य में नारीवाद की नीव भी महादेवी वर्मा ने ही रखी। उन्हीं की कोशिशों का नतीजा था, कि भारत में पहली बार महिला कवि सम्मेलन (१५ अप्रैल १९३३) सुभद्रा कुमारी चौहान की अध्यक्षता में, प्रयाग महिला विद्यापीठ में आयोजित किया गया था।

प्रयागराज की मशहूर साहित्यिक आत्मा की एक झलक महादेवी वर्मा की विख्यात कविता, ‘अतृप्त’ में देखने को मिलती है। इनकी प्रमुख काव्य कृतियों में नीहार, रश्मि, दीपशिखा, सांध्यगीत और अग्निरेखा जैसे लोकप्रिय संग्रहों के नाम उल्लेखनीय हैं। महदेवी वर्मा का गद्य साहित्य, निबंध लेखन, भाषण और संस्मरण आज भी प्रसिद्ध है। महादेवी इलाहाबाद के हिंदी साहित्य के स्वर्ण युग की सबसे उज्जवल रश्मि थीं और आने वाले समय में भी उनके जैसी कवियत्री शायद ही हिंदी साहित्य को दोबारा मिलेगी।

इलाहाबाद में हिंदी साहित्यकारों की एक बैठक, महादेवी वर्मा और पंत जी के साथ

राम कुमार वर्मा

डॉ॰ राम कुमार वर्मा हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार, व्यंग्यकार और हास्य कवि थे जिनका जन्म सन १९०५ में हुआ था। डॉ॰ वर्मा एकांकी नाटक लेखन के जनक भी माने जाते हैं। इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी विषय में एम॰ए॰ किया और नागपुर यूनिवर्सिटी से हिंदी में शोध कार्य पूरा किया। उसके बाद ये इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अध्यापक रहे और कई वर्षों तक विभागाध्यक्ष का पद भी सम्भाला।

डॉ० राम कुमार वर्मा

इनके ‘चित्ररेखा’ काव्यसंग्रह के लिए इन्हें हिंदी के देव पुरस्कार से सम्मानित किया गया। डॉ॰ वर्मा ने देश-विदेश में भी हिंदी साहित्य के विकास के लिए बहुत काम किया और उसके फलस्वरूप हिंदी साहित्य को पूरे विश्व में ख्याति मिली।

डॉ॰ वर्मा रहस्यवाद और छायावाद के प्रसिद्ध कवियों में गिने जाते हैं। सन १९६३ में इन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। राम कुमार वर्मा का स्वर्गवास १९९० में, इलाहाबाद में ही हुआ था।

हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा प्रकाशित डॉ० वर्मा का आधुनिक काव्य संग्रह

हरिवंश राय बच्चन

हरिवंश राय श्रीवास्तव का जन्म सन १९०७ में प्रयागराज के निकट बाबू पट्टी नामक गाँव के एक साधारण कायस्थ परिवार में हुआ था। बच्चन इनका घरेलू नाम था और आगे चल के साहित्य-जगत में ये इसी नाम से मशहूर हुये। कायस्थ पाठशाला से उर्दू में शिक्षा लेने के बाद इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में एम.ए. किया और फिर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से डब्लू॰ बी॰ यीट्स की कविताओं पर शोध पूरा किया।

बच्चन, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी साहित्य के प्रोफ़ेसर थे और इन्होंने अपनी प्रमुख हिंदी कवितायें भी इसी काल में लिखीं। हरिवंश राय बच्चन को सर्वाधिक लोकप्रियता उनकी काव्य रचना ‘मधुशाला’ (१९३५) के लिए मिली जो कि हिंदी जगत में आज भी पढ़ी-सुनी जाती है और लोग आज भी उसे उतना ही पसंद करते हैं। इसी के बाद, बच्चन के कई और काव्य-संग्रह प्रकाशित हुयें, जिनमें मधुबाला (१९३६), मधुकलश (१९३७), निशा निमंत्रण (१९३८) और सतरंगिनी (१९४५) के नाम उल्लेखनीय हैं।

हरिवंश राय बच्चन

बच्चन उत्तर-छायावाद के प्रमुख कवि थे और उनकी कई कविताओं में, उनका प्रयागराज प्रेम और गंगा-यमुना के तट का सुंदर चित्रण पढ़ने को मिलता है। जीवन सौंदर्य, प्रकृति प्रेम, देहाती स्वर, ये उनके काव्य की विशेषतायें रही हैं जो पाठक को भाव विभोर करती हैं।

दशद्वार- बच्चन का इलाहाबाद स्थित घर, जहाँ वो किराए पर रहते थे।

बच्चन जी प्रयागराज के अकादमिक और साहित्यिक जगत के साथ साथ नेहरु-गांधी परिवार के निकट होने के कारण राजनैतिक बैठकों का हिस्सा भी बन चुके थे। भारत की आज़ादी के बाद, बच्चन, भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिंदी के विशेषज्ञ रहे। बच्चन को सन १९६८ में साहित्य अकादमी पुरस्कार और सन १९७६ में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। सन २००३ में बच्चन ने मुंबई में, अपने पुत्र अमिताभ बच्चन के साथ रहते हुए अंतिम साँस ली। बच्चन ने चार खंडों में अपनी आत्मकथा लिखी है जिसमें आख़री खंड का नाम “दशद्वार से सोपान तक” है। प्रयागराज में, दशद्वार उनके उस घर का नाम था जहाँ वो प्रोफ़ेसर होने के बाद किराए पर रहते थे और इलाहाबाद में अपने चक और कटघर स्थित पुराने घरों को छोड़ने के बाद वो जब तक प्रयागराज में थें तब तक दशद्वार में ही रहें।

उपेन्द्र नाथ अश्क़

उपेन्द्र नाथ ‘अश्क़’ हिंदी और उर्दू के प्रसिद्ध कथाकार और उपन्यासकार थे। सन १९१० में जालंधर, पंजाब में जन्मे उपेन्द्रनाथ, पहले उर्दू लेखक के रूप में उभरे पर बाद में सन १९३२ में मुंशी प्रेमचंद के कहने पर हिंदी में लेखन आरम्भ किया और फिर बाद में हिंदी लेखक के रूप में ही जाने गये।

प्रेमचंदोत्तर साहित्य को उपेन्द्रनाथ अश्क़ ने बहुत अच्छे से सम्भाला और सँवारा। गिरती दीवारें, शहर में घूमता आइना, सितारों का खेल, आदि इनके प्रमुख उपन्यास हैं। इन्होंने कई कहानी संग्रह, नाटक, संस्मरण, एकांकी संग्रह, आलोचना, इत्यादि स्वयं प्रकाशित किये और उनके लिए इन्हें बहुत ख्याति भी मिली। सन १९७२ में इन्हें सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सन १९९६ में प्रयागराज में ही उपेन्द्रनाथ अश्क़ चिर निद्रा में लीन हो गये।

उपेन्द्रनाथ अश्क़

धर्मवीर भारती

सन १९२६ में, प्रयागराज के अतरसुइया मोहल्ले में जन्मे धर्मवीर भारती ने उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही प्राप्त की और यहीं से हिंदी के विख्यात साहित्यकार एवं इतिहासकार डॉ॰ धीरेंद्र वर्मा के निर्देशन में सिद्ध-साहित्य पर शोध किया।

धर्मवीर भारती, ने ‘संगम’ पत्रिका का सह-सम्पादन इलाचंद्र जोशी के साथ किया और बाद में हिंदुस्तानी अकादमी में अध्यापक नियुक्त हो गये। जीवन के अंतिम चरण में, धर्मवीर भारती, लम्बे समय तक मशहूर साप्ताहिक पत्रिका ‘धर्मयुग’ के सम्पादक भी रहे।

भारती के उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’, ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’, ‘प्रारम्भ व समापन’, आदि आज भी सदाबहार उपन्यासों की श्रेणी में गिने जाते हैं। इनके नाटक ‘अंधा युग’ की क्लासिकल नाटकों में गिनती होती है। धर्मवीर भारती हिंदी साहित्य में खड़ी बोली की परम्परा को जीवंत रखने के लिए हमेशा याद किए जाएंगे। इनके संस्मरणों में प्रयागराज की भयानक गर्मी, बारिश और इस शहर की विचित्र जीवन शैली का विस्तृत चित्रण देखने को मिलता है।

धर्मवीर भारती

धर्मवीर भारती को सन १९७२ में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। इन्हें श्रेष्ठ पत्रकारिता और साहित्यिक सेवाओं के लिए कई पुरुस्कारों और सम्मानों से अलंकृत किया गया है। धर्मवीर भारती सन १९९७ में, मुंबई में ही पंचतत्व में विलीन हो गये।

द्विवेदी युग से लेकर उत्तर-छायावादी युग तक प्रयागराज साहित्य-सेवा का केंद्र था। ये कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इलाहाबाद समग्र हिंदी साहित्य का वह तीर्थ स्थल था जिसने आधुनिक हिंदी साहित्य को उसका स्वर्ण युग दिखाया । प्रयागराज का साहित्यिक इतिहास बहुत विस्तृत है और साहित्यकारों की लम्बी सूची को एक लेख में समेट पाना लगभग असंभव काम है। प्रयागराज में उर्दू अदीब (सहित्यकारों) की भी बड़ी फ़ेहरिस्त है जिसमें अकबर इलाहाबादी और फ़िराक़ गोरखपुरी जैसी हस्तियां शामिल हैं, जिन्होंने हिंदुस्तान में उर्दू अदब को एक नयी रौशनी प्रदान करी और प्रयागराज की गंगा-जमुनी तहज़ीब को चरितार्थ भी किया।

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित अमरकान्त

प्रयागराज के समकालीन हिन्दी साहित्यकारों में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित अमरकान्त का नाम उल्लेखनीय है। उपेन्द्रनाथ अश्क़ के पुत्र, नीलाभ अश्क़, कवि कैलाश गौतम, दूधनाथ सिंह, नंदल हितैषी, आदि ने हिंदी साहित्य में एक अलग स्थान बनाया है लेकिन ये भी एक सत्य है कि प्रयागराज का जो स्थान साहित्य की दुनिया में था वो अब धीरे धीरे धूमिल हो रहा है। वो शहर जहाँ रोज़ शाम को हिंदी साहित्य के दिग्गजों की बैठक किसी के घर पर, या किसी प्रकाशन संस्थान में, या इंडियन कॉफ़ी हाउस में हुआ करती थी और जहाँ इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आये दिन किसी बड़े साहित्यकार की गोष्ठी का आयोजन होता था, आज अपनी पहचान ढूँढता नज़र आता है। विख्यात प्रकाशन संस्थान या तो बंद हो चुके हैं, या बंद होने की कगार पर खड़े हैं। शहर में हिंदी साहित्य के बड़े प्रकाशकों में लोक भारती प्रकाशन और संस्थानों में हिंदुस्तानी अकादमी ही है जो शहर में साहित्य का दीप प्रज्वलित किये हुये हैं।

ये बात भी ग़ौरतलब है कि वो दौर जब ये शहर अंग्रेज़ों का इलाहाबाद था, तब यहाँ हिंदी साहित्य अपने चरमोत्कर्ष पर था और हिंदी साहित्यिक दुनिया का “प्रयागवाद” इसी इलाहाबाद से भारत भर में विख्यात हो रहा था। लेकिन आज, जब इलाहाबाद शहर ने प्रयागराज का रूप धारण कर लिया है तो हिंदी साहित्य का वो “प्रयागवाद” कहीं खोता हुआ नज़र आ रहा है।

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