मैथिलीशरण गुप्त: राष्ट्रकवि और हिंदी साहित्य के महाजनक

मैथिलीशरण गुप्त: राष्ट्रकवि और हिंदी साहित्य के महाजनक

नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रह कर निज नाम करो
यह जन्म हुआ है किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो

इन महान पंक्तियों के रचियिता थे मैथिलीशरण गुप्त, जिनको आधुनिक हिंदी साहित्य के महान कवियों में एक माना जाता है।‘राष्ट्रकवि” और प्रेम से युवा सह-कवियों द्वारा ‘दद्दा” कहे जाने वाले गुप्त ने अपनी रचनाओं से खड़ीबोली हिंदी को लोकप्रिय बनाया, जो आगे चलकर हमारी राजभाषा बनीं।

3 अगस्त, सन 1886 को उत्तर प्रदेश में झांसी के पास चिरगांव में जन्में गुप्त एक धार्मिक और समृद्ध परिवार से ताल्लुक रखते थे।उनके पिता सेठ रामचरण गुप्त ने पहले इनका नाम श्री मिथिलाधिपनन्दिनी शरण रखा था। उच्चारण में कठिनाई होने के कारण, उनका नाम मैथिलीशरण गुप्त रख दिया गया था।ये वो दौर था, जब सन 1857 की क्रान्ति के बाद जन-चेतना, आर्य समाज और रामकृष्ण मिशन जैसे सुधारक आंदोलनों की स्थापना के साथ-साथ हिंदी साहित्य जगत का पुनर्जागरण हो रहा था, जहां भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालमुकुन्द गुप्त और महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे लेखक अपने सुधारक और राष्ट्रवादी विचारों से सांस्कृतिक-राजनीतिक जागरण की एक नई किरण ला रहे थे।

मैथिली शरण गुप्त | चलता पुर्जा

हालांकि गुप्त के पिता उनको डिप्टी-कलेक्टर बनाना चाहते थे, मगर गुप्त ऐसा नहीं चाहते थे। बचपन से ही उनको पढाई के बजाए, खेल-कूद, लोक-संगीत और लोक-नाट्य में ज़्यादा दिलचस्पी थी , जिससे चिंतित होकर पिता ने उनके पढ़ने का इंतजाम घर पर ही कर दिया था। गुप्त ने हिन्दी, बांग्ला और संस्कृत साहित्य का अध्ययन घर पर ही किया। ताज्जुब की बात ये है, कि जिस व्यक्ति ने शिक्षण संस्थानों के दरवाज़े तक नहीं देखे, आज उसी के साहित्य को विश्वविद्यालय स्तर पर पढ़ाया जा रहा है!

कविताओं से गुप्त का लगाव महज़ बारह साल की उम्र से ही हो गया था, जब उन्होंने ब्रजभाषा में कविताएँ लिखना शुरू किया था, और उन कविताओं का प्रकाशन कई स्थानीय पत्रिकाओं में भी हुआ। ये संयोग ही था, कि गुप्त की प्रतिभा की पहचान हिंदी साहित्य को बढ़ावा देने वाले महावीर प्रसाद द्विवेदी के हाथों हुई। द्विवेदीजी ने ही उन्हें खड़ीबोली हिंदी (फिर हिंदी) में लिखने के लिए प्रोत्साहित किया।

महावीर प्रसाद द्विवेदी पर भारत सरकार द्वारा जारी किया स्टाम्प | विकी कॉमन्स

द्विवेदीजी के कहने पर गुप्त ने खड़ीबोली हिंदी में लिखना आरम्भ कर दिया था। उनकी रचनायें, उस ज़माने की मशहूर पत्रिका ‘सरस्वती’ में प्रकाशित होने लगी थीं। सन 1910 में उनका पहला प्रबंध काव्य ‘रंग में भंग’ प्रकाशित हुआ, जिसे कई हिंदी-भाषी क्षेत्रों में लोकप्रियता मिली।

खड़ीबोली हिन्दुस्तानी भाषा के चार रूपों के मिश्रण से उपजी मानी जाती है- शुद्ध हिंदी, उर्दू, दक्खिनी और रेख़्ता, जिसको अधिकाँश उत्तर भारत में बोलचाल के लिए प्रयोग किया जाता है, और जिसकी शुरुआत तेरहवीं शताब्दी से बताई जाती है। खड़ीबोली हिंदी को ब्रज और अवधि से अलग माना जाता है।

बंगाल विभाजन (1905) के बाद, स्वतंत्रता संग्राम ने थोड़ी रफ़्तार पकड़ ली थी। साथ-ही-साथ कई क्रांतिकारी गतिविधियों में इज़ाफ़ा भी हो गया था। वहीँ कांग्रेस नरम दल और गरम दल में बंट चुकी थी। इन चीज़ों का प्रभाव हिंदी-साहित्य पर भी पड़ा, जो कई कवियों और रचनाकारों की कृतियों में दिखाई दिया। इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए गुप्त ने “भारत भारती” (1914) की रचना की, जिसने उनको राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय बनाया। यहाँ गुप्त ने भारत की ग़ुलामी के साथ-साथ देश में प्रचलित कुप्रथाओं पर भी प्रकाश डाला। हिंदी की विद्वानों का मानना है, कि शुरूआत में हिंदी प्रेमियों का सबसे अधिक ध्यान खींचने वाली पुस्तक यही थी, जिसकी सर्वाधिक बिक्री हुई। कई संस्थानों, समाराहों और आंदोलनों में इसके पद भी गाये जाने लगे थे।

भारत-भारती | लोकभारती प्रकाशन

आगे चलकर गुप्त ने देश -प्रेम, सामाजिक सुधार, धर्म, राजनीति, और भक्ति जैसे विषयों पर काव्य रचनाएं की। इनकी ज़्यादातर रचनायें रामायण, महाभारत, बौद्ध कथाओं और प्रसिद्ध धार्मिक नायकों के जीवन चरित्र के इर्द-गिर्द घूमती हैं। उदाहरण के तौर पर बौद्ध काल में “यशोधरा”, महाभारत काल में ‘जयद्रथ वध”, कार्ल मा‌र्क्स की पत्‍‌नी जैली पर कविता आदि। नारी सुधारवाद का विषय भी गुप्त से अछूता ना रहा, जिसकी छाप हमको ‘साकेत’ में मिलती है, जिसमें लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला के चरित्र और अनुपम त्याग को रेखांकित किया है, वही “यशोधरा” में भगवान बुद्ध की पत्नी यशोधरा के विरह दुख का मार्मिक चित्रण है।

सन 1920 के आते-आते भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में महात्मा गांधी एक प्रमुख नेता के तौर पर उभरकर आए, जिनसे गुप्त बहुत प्रभावित हुए और इसका असर उनकी कविताओं ‘हिन्दू’, ‘काबा-कर्बला’ और ‘गुरुकुल’ जैसी कविताओं में देखे जा सकते हैं, जहां उन्होंने साम्प्रदायिक एकता पर ज़ोर दिया था।

गुप्त की कविताओं से हिंदी को बेहद लोकप्रियता मिली, जिसे बाद में रामधारी सिंह दिनकर, सुभद्राकुमारी चौहान, माखनलाल चतुर्वेदी और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जैसे सूरमा कवियों ने आगे बढ़ाया और इसी तरह हिंदी, जन-जन की भाषा बन गई। हिंदी साहित्य में गुप्त और महादेवी वर्मा को कविता में और मुंशी प्रेमचंद को गद्य में सर्वश्रेष्ठ माना जाने लगा था।

रामधारी सिंह दिनकर

गुप्त की शोहरत महात्मा गाँधी के कानों तक पहुँचने लगी थी। महात्मा गांधी ने 27 अक्टूबर सन 1936 में, वाराणसी में, गुप्त को तुल्सीमीमांसा परिषद् का “मैथिली मान ग्रंथ” भेंट करते हुए उन्हें “राष्ट्रकवि” की उपाधि से भी नवाज़ा था।

गुप्त की रचनाओं से जन-चेतना और राष्ट्रवाद की उमंग पैदा हो रही थी जो अंग्रेज़ों के लिए ख़तरा साबित हो चुकी थी। इसी वजह से अंग्रेज़ों ने गुप्त पर धारा-129 (अ) राजबंदी लगाई, और 17 अप्रैल सन 1941 को गिरफ्तार करके झाँसी जेल में डाल दिया गया, जहां से उनको आगरा जेल भेजा गया। जेल में रहकर ही उन्होंने जय भारत, अजीत और कुणाल गीत कविताओं की रचना की। उनकी रिहाई उसी वर्ष 14 नवम्बर को हुई थी।

सन 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, जब राजभाषा का चयन हुआ, तो सन 1949 में अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी को भी राजभाषा का दर्जा दिया गया। हिंदी के कई बड़े साहित्यकारों  का मानना है, कि हिंदी को राजभाषा बनाये जाने का श्रेय गुप्त को जाता है, जिनकी रचनाओं ने हिंदी को लोकप्रिय बनाया। उनके बाद छायावादी कवियों की रचनाओं से में रचना करने की प्रेरणा दी, हिंदी को आम बोलचाल की भाषा बनने में मदद मिली।

भारत सरकार द्वारा जारी किया हुआ मैथिली शरण गुप्त के सम्मान में डाक टिकट | विकी कॉमन्स

गुप्त को हिन्दी भाषा में विशिष्ट सेवा के लिए आगरा विश्वविद्यालय ने सन 1948 में डी. लिट् की उपाधि से सम्मानित किया और सन 1952 में वो स्वतंत्रता के बाद राज्य सभा के सर्वप्रथम मनोनीत सदस्य भी बने। कविताओं के माध्यम से विरोधी नेताओं के बारे में अपने विचार प्रकट करने का अंदाज़ शुरू करने का श्रेय गुप्त को दिया जाता है। 24 अप्रैल सन 1954 में जब केन्द्रीय बजट पेश हुआ, तब बजट में कर को बढ़ावा देने की बात को सरकार द्वारा प्रस्तावित किए जाने पर, गुप्त ने कविता रूप में भाषण दिया:

शासक सब हैं बिना ह्रदय के, बड़े पदों पर पलते हैं,
चलते नहीं परन्तु पदों से, सदाकरों से चलते हैं।
करक्या?सिर देने में बीच है अहो भाग्य अपनों के अर्थ
पर कब तक परघाट हमारा किया करेगी खूब अनर्थ?
लज्जा है रक्षक सज्जा में, अब भी कितने भक्षक हैं,
सावधान फूलों के भीतर छिपे हुए वे तक्षक हैं!

गुप्त के लिये सम्मानों का सिलसिला जारी रहा, जहां उनको भारत सरकार ने सन1954 में देश के तीसरे सर्वोच्च पुरस्कार ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया। इसके बाद पहले भारतीय राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने सन 1962 में गुप्त को ‘अभिनंदन ग्रंथ’ से अलंकृत किया। राज्य सभा में अपने कार्यकाल के दौरान ही 12 दिसंबर, सन 1964 को 78 वर्ष की उम्र में भारत के इस महान कवि का निधन हो गया।

गुप्त ने अपने 55 रचनात्मक वर्षों में हिंदी भाषा को लगभग 74 कृतियां दी, जिनमें दो महाकाव्य, 17 गीति-काव्य, 20 खंड काव्य, चार नाटक और गीतिनाट्य शामिल हैं. उनके संबंध में महादेवी वर्मा ने लिखा,

‘अब तो भगवान के यहां वैसे साँचे ही टूट गये, जिनसे दद्दा जैसे लोग गढ़े जाते थे।’

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