मनापाड: भारत का छोटा सा येरुशलम

मनापाड: भारत का छोटा सा येरुशलम

मछुआरों के यह गांव कहानी-क़िस्सों से भरा पड़ा है। समुद्र के रास्ते व्यापार की वजह से इस गांव का सामना विश्व की कई संस्कृतियों, आस्थाओं और इतिहास से हुआ है। भारत के पूर्वी किनारे पर बसे मनापाड की गिनती प्रमुख स्थानों में होती है ।

तमिलनाडु के थूथुक्कुडी ज़िले में स्थित मनापाड गांव आस्था के आधार पर अलग-अलग लोगों के लिये अलग-अलग मायने रखता है। धूप का मज़ा लेने वाले इसके सुनहरे तट पर नीले आकाश के नीचे मौज-मस्ती करते तो हैं लेकिन सूर्य देवता के ऐसे भी अराधक हैं जो यहां किसी और ही उद्देश्य से जमा होते हैं।

उन्नीसवीं शताब्दी में खिदरपुर बंदरगाह

ये लोग ईसाई हैं जो यहां के एक चर्च के लिये आते हैं। उनका मानना है कि इस चर्च में उस सूली का एक टुकड़ा रखा है जिस पर ईसा मसीह को लटकाया गया था।

इस कहानी की वजह से मनापाड को छोटा येरुशलम कहा जाता है। येरुशलम के पास ही ईसा को सूली पर चढ़ाया गया था। मनापाड में क़रीब 14 गिरजाघर हैं। उनमें से , इस गिरजाघर में सबसे ज्यादा ईसाई श्रद्धालू आते हैं क्योंकि उनकी आस्था के अनुसार यहां उसी सूली का एक टुकड़ा रखा हुआ है जिस पर ईसा मसीह को लटकाया गया था। यहां एक से 14 सितंबर के बीच सूली के इस टुकड़े को जनता के लिये बाहर निकाला जाता है।

माना जाता है कि सूली का ये टुकड़ा 6वीं शताब्दी में यहां लाया गया था। इसके पहले मनापाड बंदरगाह मछली पकड़ने का एक प्रमुख केंद्र था जहां पारावार समुदाय की सबसे ज़्यादा संख्या थी। मोती मछली की भरमार की वजह से मनापाड मध्यकाल से ही संपन्न बंदरगाह रहा था। एंगेजिंग साउथ एशियन रेलीजन्स: बांउड्रीज़, एप्रोप्रिएशन्स एंड रेज़िज़टेंस के लेखक मैथ्यू एन. श्मेलज़ैंड और पीटर गोटचाक का कहना है कि मशहूर यात्री मार्को पोलो के अनुसार ये गांव कुलाशेखरनपत्तनम-मनापाड का हिस्सा हुआ करता था। लेकिन इस गांव के बारे में सन 1532 के बाद ही कुछ पता चल पाया, जब पुर्तगाली यहां आकर बस गए थे।

होली क्रॉस चर्च | डिजिटल कैलिडोस्कोप

बेनी मिरांडा ने अपनी किताब द हिस्ट्री ऑफ़ होली क्रॉस चर्च, मनापाड में उस लोकप्रिय लोककथा का उल्लेख किया है जिसके तहत ये क्रॉस एक जहाज़ के टूटे मस्तूल से बनाया गया था जिसे एक महान नाविक ने सन 1540 में मनापाड तट पर एक छोटी पहाड़ी पर लगाया था। कहा जाता है कि पुर्तगाल का ये नाविक अफ्रीक़ा के सुदूर दक्षिणी कोने में कैप ऑफ़ गुड होप से पूर्वी दिशा की तरफ़ जा रहा था तभी उसका जहाज़ तूफ़ान में फंसकर टूट गया। इस घटना के बाद नाविक ने कुलाशेखरपत्तनम बंदरगाह में शरण ली और फिर बाद में वहां से अपनी यात्रा आगे शुरु की। तभी से क्रॉस को कैप्टन क्रॉस कहा जाने लगा। इसे लोग चमत्कारी मानते थे।

दो साल बाद सन 1542 में सेंट फ़्रांसिस ज़ेवियर, गोवा और दक्षिण भारत में मिशनरी काम के दौरान मनापाड आए थे। वह यहां सन 1542 से सन 1544 तक पहाड़ी के ऊपर एक गुफा में रहे जहां से समंदर नज़र आता था। इसे वैली गुफा कहा जाता है।

ए हिस्टोरिकल बैकग्राउंड सर्वे ऑफ़ द् चर्च ऑफ़ साउथ इंडिया इन टूटीकॉरिन डिस्ट्रिक्ट किताब में सी मुथु कृष्णन कहते हैं कि सेंट फ्रंसिस ज़ेवियर ने यहां इतने चमत्कार किए कि इसके पहले कि चर्च उन्हें संत की उपाधि देता, मनापाड और इसके आसपास के लोग उन्हें संत मानने लगे थे। मनापाड के लोगों की आस्था और धर्मनिष्ठा तथा श्रद्धालुओं की बढ़ती संख्या की वजह से यहां होली क्रॉस चर्च बनवाया गया था.

सेंट फ्रंसिस ज़ेवियर इसी गुफा में रुके थे 

चर्च बनाने का ख़र्चा स्थानीय लोगों ने उठाया था और ये काम फ़ादर जॉन सलानोवा की निगरानी में हो रहा था जो उस समय मौजूद गांव के एकमात्र चर्च के पादरी थे। अब ये चर्च मौजूद नहीं है। होली क्रॉस चर्च का निर्माण कार्य सन 1581 में पूरा हुआ था।

मिरांडा ने अपनी किताब में लिखा है कि सन 1583 में येरुशलम से क्रॉस के एक टुकड़े को यहा लाने में फ़ादर जॉन की बड़ी भूमिका रही थी। उन्होंने इसके लिये रोम के कैथोलिक चर्च से अपील की थी। ये टुकड़ा पहले कोचीन पहुंचा जो तब भारत और श्रीलंका में ईसाई धर्मो-प्रचार का मुख्यालय हुआ करता था। इसे कोचीन से मनापाड लाने में तीन दिन लग गये थे । उसके साथ हज़ारों लोगों का हुजूम चल रहा था।

ईसाई परंपरा के अनुसार वास्तविक क्रॉस की खोज का श्रेय सेंट हेलेना को जाता है जो रोम के राजा कोंस्टेनटाइन (306-312) की मां थीं। चौथी शताब्दी में सेंट हेलेना ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया और पवित्र स्थानों की खोज में निकल पड़ी थीं। इस मिशन के दौरान उन्हें येरुशलम में, उस पवित्र क़ब्र के पास क्रॉस मिला । माना जाता है कि यह वही मक़बरा है जहां ईसा मसीह को द़फ़्न किया गया था और जहां से वह दोबारा जीवित हुए थे।

बाद में राजा हरक्यूलिस (610-641) ने इसे परशिया (फ़ारस ) के कब्ज़ें से छीन लिया था और इसे येरुशलम को वापस कर दिया। इसके बाद से ही क्रॉस मिलने की ख़ुशी में ईसाई 1 से लेकर 14 सितंबर तक जश्न मनाते हैं। ये जश्न हरक्यूलिस की जीत का प्रतीक भी माना जाता है।

सम्राट हेराक्लियस ने क्रॉस को अपने कंधों पर ढोया था  | जैकोपो नेग्रेट्टी द्वारा पेंटिंग- 1589-92

ईसाईयों की आस्था के अनुसार 350 ई के आसपास क्रॉस के कई टुकड़े करके उन्हें विश्व भर के चर्चों को भेजा गया था। कई शताब्दियों बाद एक टुकड़ा मनापाड गांव भी आ गया था।

मनापाड की संस्कृति की झलक मणि रत्नम की तमिल फ़िल्म कडल (2013), गौतम वासुदेव मेनन की नीदाने एन पोनवसंतम (2012) में दिखाई गई है। दक्षिण सुपरस्टार सूर्या की सुपरहिट फिल्म सिंघम 2 के कुछ अंश भी इस खूबसूरत स्थान पर कैद किये जा चुके हैं, जो बाद में यानी सन 2014 में सिंगम रिटर्न-2 के नाम से हिंदी फ़िल्म बनाई गई थी। इसके अलावा मनापाड में शूजीत सरकार ने फ़िल्म मद्रास कैफ़े (2013) के कुछ हिस्से शूट किये थे ।

मनापाड की एक झलक 

मनापाड आने वाले लोग या तो लिटिल येरुशलम के लिये आते हैं या फिर इस गांव की सुंदरता का लुत्फ़ उठाने। इसके अलावा लोग यहां वॉटर स्पोर्ट्स की वजह से भी आते हैं। बहरहाल, इतिहास हो, धर्म हो या फिर मनोरंजन, मनापाड गांव में सभी के लिये कुछ न कुछ है।

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