भारत के गांवों में कई ऐतिहासिक धरोहरें हैं, जिनसे हमें अपने अतीत के बारे में बेहतर तरीक़े से जानने में मदद मिलती है। ऐसा ही छोटा-सा एक गांव है तेर, जो महाराष्ट्र में उस्मानाबाद शहर से क़रीब 23 कि.मी. दूर स्थित है। इस गुमनाम-से गांव में त्रिविक्रम मंदिर है, जो बाकी मंदिरों से अलग दिखता है। माना जाता है, कि ये महाराष्ट्र का सबसे पुराना मंदिर है, जो चौथी-पांचवीं सदी का है। यही नहीं, किसी समय तेर प्राचीन भारत के बड़े शहरों में से एक हुआ करता था, जिसे तगर कहा जाता था। यूनानी और रोमन विद्वानों ने अपनी किताबों में तगर शहर का उल्लेख किया है।
तेर का आरंभिक इतिहास
खुदाई में जो सबूत मिले हैं, उनके अनुसार यह कहा जा सकता है, कि तेर में मौर्य काल (300 ई.पू.) में आबादी हुआ करती थी। इसके अलावा इस काल में तेर के बारे में औऱ कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। यहां सातवाहन शासन के दौरान ख़ूब ख़ुशहाली आई थी। सातवाहन शासकों ने इस क्षेत्र पर दूसरी सदी (ई.पू.) के अंतिम वर्षों से लेकर तीसरी सदी (ई.पू.) के आरंभिक वर्षों तक शासन किया था। रोम साम्राज्य के साथ व्यापारिक संबंध होने की वजह से सातवाहन शासक बहुत संपन्न और शक्तिशाली हो गए थे।
उस समय तेर को तगर के नाम से जाना जाता था, और अपनी सामरिक स्थिति की वजह से ये महत्वपूर्ण व्यापारिक शहर था। तगर ऐसे व्यापारिक मार्ग पर स्थित था, जो पैठन, नागार्जुनकोंडा, नेवासा और कोंडापुर जैसे सातवाहन साम्राज्य के महत्वपूर्ण शहरों को जोड़ता था।
पहली सदी में रोमन भूगोलशास्त्री टॉलमी ने अपनी किताब “पेरिप्लस ऑफ़ दि एरीथ्रीन सी” (एरीथ्रीन सागर की परिधि) में तेर अथवा तगर का उल्लेख किया है। पेरिप्लस व्यापार से संबंधित एक छोटी-सी पुस्तिका है, जिसमें उन महत्वपूर्ण बस्तियों और शहरों का ज़िक्र है, जिनके साथ रोमन साम्राज्य व्यापार करता था। पेरिप्लस के अनुसार तगर दक्षिणपथ पर महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्रों में से एक था। दक्षिणपथ एक प्राचीन व्यापार मार्ग हुआ करता था, जो उत्तर और दक्षिण भारत को जोड़ता था। पेरिप्लस के अनुसार-
“दक्षिणाबाद के महत्वपूर्ण व्यापारिक शहरों में दो शहर प्रमुख हैं।बरगज़ा (भरूच) से दक्षिण दिशा की तरफ़ क़रीब बीस दिन की यात्रा करने के बाद पैठण शहर आता है। यहां से पूर्व की दिशा में क़रीब दस दिन की यात्रा के बाद एक और महत्वपूर्ण शहर तगर आता है। बरगज़ा (भरूच) से इन्हें बड़ी मात्रा में गाड़ियों के सहारे उन रास्तों से लाया गया, जहाँ सड़कें नहीं थीं, पैठण से बड़ी मात्रा में कार्नेलियन पत्थर और तगर से साधारण कपड़ा, हर तरह की मलमल सहित दूसरा सामान समुद्र तट के क़रीबी इलाक़ों से यहाँ लाया जाता था।”
-पेरिप्लस ऑफ़ द एरिथ्रियन सी
दूसरी सदी के मध्य में सातवाहन साम्राज्य के पतन के बाद तेर की भी स्थिति ख़राब हुई, परन्तु मध्यकाल तक इसे पूरी तरह भुलाया नहीं गया। उदाहरण के लिए, आठवीं सदी के आसपास शासन करने वाले शिलाहार राजवंश के राजाओं के ख़िताब तगर-पुरा-परमेश्वरा और तगर-पूर्व-अधिश्वरा (तगर शहर का सर्वोच्च शासक) हुआ करते थे।
तेर के साथ तेरहवीं सदी के संत गोरा कुम्भार का नाम भी जुड़ा हुआ है, जो वारकरी संप्रदाय से थे और तेर में रहते थे। वह विठ्ठल (जिन्हें पांडुरंग भी कहा जाता है) के उपासक थे।
पांडुरंग विष्णु के अवतार थे और इनकी मुख्यत: महाराष्ट्र और कर्नाटक में पूजा की जाती है। गोरा कुम्भार को गोरोबा भी कहा जाता है। पेशे से वह कुम्हार थे और वह संत नामदेव तथा संत ज्ञानेश्वर के समकालीन थे। इस क्षेत्र में एक मंदिर है, जो संत गोरा कुम्भार को समर्पित है। मध्यकाल में उस्मानाबाद ज़िले पर बहमनी, मुग़लों और आदिलशाही का शासन हो गया था। बाद में ये हैदराबाद रियासत के अधीन हुआ। इस दौरान तेर एक छोटा-सा गांव होकर रह गया जिसका वैभव भी जाता रहा।
तेर और त्रिविक्रम मंदिर का पुरनाविष्कार
तेर की तरफ़ सबसे पहले ध्यान अंग्रेज़ अधिकारी जे.एफ़. फ़्लीट ने दिलाया था, जो प्राचीन भारत के इतिहास पर शोध कर रहा था। जे.एफ़. फ़्लीट ने जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसाइटी पत्रिका के जुलाई सन 1901 के अंक में एक लेख लिखा था। इस लेख के अनुसार फ़्लीट का अनुमान था, कि पेरिप्लस में जिस तगर का उल्लेख है, वो कोई और स्थान नहीं बल्कि हैदराबाद का एक छोटा-सा गांव तेर ही था। फ़्लीट का अनुमान पेरिप्लस में उल्लिखित पैठन से तेर तक के फ़ासले पर आधारित था।
नवंबर, सन 1901 में फ़्लीट के आग्रह पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के तत्कालीन निरीक्षक हेनरी कौसेंस प्राचीन अवशेषों की तलाश में तेर आए थे। उन्हें वहां एक विचित्र-सा मंदिर दिखाई दिया, जो आज त्रिविक्रम मंदिर के नाम से जाना जाता है। उन्होंने इस बारे में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण रिपोर्ट सन 1902-03 में एक लेख लिखा। कौसेंस की इसी यात्रा की वजह से ऐतिहासिक रुप से समृद्ध तेर और महाराष्ट्र के सबसे पुराने मंदिर की तरफ़ विश्व का ध्यान गया।
तेर का त्रिविक्रम मंदिर
महाराष्ट्र का ये सबसे प्राचीन मंदिर त्रिविक्रम चौथी-पांचवीं सदी का है। मंदिर का पूज्य स्थान आयाताकार है। ये पूज्य स्थल गजपृष्ठ आकार यानि हाथी के पृष्ट जैसे दिखने वाले आकार में समाप्त होता है। मंदिर के मंडप की छत समतल है।
सन 1901 में जब हेनरी कौसेंस इस मंदिर में आए थे, तब उनका मानना था, कि ये मूलत: बौद्ध चैत्य था, जिसे बाद में मंदिर बना दिया गया था। उन्हें यहां एक बौद्ध स्तूप के अवशेष मिले थे। उनका ये भी मानना था, कि पूजा स्थल का अग्रभाग बौद्ध चैत्य मेहराब से मिलता जुलता है। त्रिविक्रम मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है, वहीं उत्तरेश्वर और कालेश्वर मंदिर भगवान शिव को समर्पित हैं।
तेर से एक घंटे के फ़ासले पर बालाघाट पहाड़ियों में धाराशिव गुफाएं हैं जिनका निर्माण पांचवीं-सातवीं सदी में हुआ था। इन पर सबसे पहले ध्यान पुरातत्वविद् जैम्स बर्गेस का गया था। माना जाता है, कि ये पहले बौaद्ध गुफाएं हुआ करती थीं, जिन्हें बाद में जैन गुफाओं में तब्दील कर दिया गया था। लेकिन ये बौद्ध गुफाएं थीं या फिर जैन गुफाएं, इसको लेकर विद्वानों में मतभेद हैं। इन धार्मिक स्थानों की मौजूदगी से लगता है, कि इस दौरान यहां बौद्ध धर्म, ब्राह्मणवादी धर्म और जैन धर्म ख़ूब फूले-फले होंगे।
यहां सबसे पहले बॉम्बे राज्य के पुरातत्व विभाग और पुणे के दक्कन कॉलेज पोस्ट ग्रजुएट एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट नेसन 1958 में खुदाई की थी, जिसका नेतृत्व डॉ. पी.वी. जोशी, बी.एन. चाफेकर और डॉ. के.डी. बैनर्जी कर रहे थे। खुदाई से पता चला, कि यहां चौथी सदी (ई.पू.) से लेकर चौथी सदी ईस्वी तक आबादी हुआ करती थी। खुदाई के दौरान निचले स्तर से, उत्तरी काली पॉलिश वाले बर्तन और ऊपरी हिस्से से गुप्तकाल के टेराकोटा मिले थे। इनके अलावा शंख, कांच की चूड़ियां, टेराकोटा के उत्पाद, लज्जागौरी की छवियां, मनके, तीर और धारदार चाक़ू जैसी लोहे की चीज़ें और कई प्राचीन वस्तुएं भी मिलीं। दिलचस्प बात ये है, कि खुदाई में गेहूं, चावल, मूंग दाल और बेर जैसे अनाज के भी उस समय होने के सबूत मिले थे।
सन 1966-69 के दौरान अभिलेख एवं पुरातत्व विभाग, महाराष्ट्र सरकार, के तत्कालीन निदेशक डॉ. एम.जी. दीक्षित ने विस्तृत रुप से खुदाई करवाई। इसका मक़सद कालक्रम की कड़ियां जोड़ना और ये समझना था, कि भारत-रोम व्यापार में कैसे तेर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। खुदाई के दौरान ईंटों का एक बौद्ध स्तूप मिला, जिसका व्यास 26 मीटर था। इसके अलावा इंद्रगोप मोहरें, दीये, मिट्टी के बैल जैसी विदेशी वस्तुओं सहित महराबदार बौद्ध चैतन्य गृह भी मिला। खुदाई में सातवाहन राजा पुलुवामी का एक सिक्का भी मिला था।
सन 2015 में पुरातत्व संग्रहालय, महाराष्ट्र राज्य, की तत्कालीन उप निदेशक डॉ. माया शाहपुरकर पाटिल ने खुदाई करवाई, जिसमें जले हुए मिश्रित अनाज, चावल, मूंग, टोराकोटे के टूटे हुए कटोरे, सीपियों की चूड़ियां, टेराकोटे और हाथी दांत की वस्तुएं जैसी कई दिलचस्प चीज़े मिली।
खुदाई में ईंटों की मुंडेर वाला एक कुआं भी मिला, जो सातवाहन राजवंश के समय का है। इसकी खोज रामलिंगप्पा लामतुर संग्रहालय को शिफ़्ट करते समय हुई थी। संग्रहालय का नाम स्थानीय निवासी रामलिंगप्पा के नाम पर है, जिन्होंने इस क्षेत्र में मिली कई कलाकृतियों का संग्रह और संरक्षण किया था। उनके संग्रह में कई सिक्के, बर्तन, मूर्तियां और अन्य कलाकृतियां हैं जो अब संग्रहालय में रखी हुई हैं।
इतनी समृद्ध विरासत के बावजूद तेर में आज भी बहुत कम सैलानी आते हैं।
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