हमारे देश के विभिन्न राज्यों में बारह ज्योतिर्लिंग स्थापित हैं | इसी प्रकार राजस्थान के विभिन्न हिस्सों में कई शिवालय मौजूद हैं जहाँ प्रतिदिन शिव भक्तों द्वारा विधिवत पूजा-अर्चना की जाती है। मगर विशेष शिवरात्रि के पावन अवसर पर राज्यभर के शिव मंदिरों में विभिन्न धार्मिक आयोजनों की अनूठी परम्परा रही है।
ाजस्थान में महाशिवरात्रि महापर्व से होली के विभिन्न कार्यक्रमों का आगाज होता है। इन दिनों वसंत ऋतु में गुलाबी ठंड, खेत-खलियानों में चारों ओर अलग-अलग फसलों पर खिले फूलों पर मधुर रस का सेवन करते भ्रमर, बाग-बगीचों में कोयल की कु-कुु के साथ फाल्गुन की कृष पक्ष चतुर्दशी को महाशिवरात्रि का पावन पर्व उमंग और उत्साह पूर्वक मनाया जाता है। खेतों की प्रथम उपज के रूप में बेर, गाजर, गेहूँ की बालिया, मटर के अलावा दूध, दही, चावल, बिलपत्र, आक के पुष्प, दूब, धतुरा, व भांग गंगाजल के साथ शिवलिंग पर चढ़ा कर पूजा-अर्चना की जाती है। इस महापर्व पर शिव मंदिरों में जलाअभिषेक करने वाले भक्तों की लम्बी कतारे लगी रहती हैं । भोले भण्डारी को मात्र जलधारा से ही प्रसन्न किया जा सकता है। इस प्रकार शिवरात्रि सर्वाधिक पुण्यदायी पर्व कहलाता है।
कुषाण कालीन चतुर्मुखी शिवलिंग:- राजस्थान के मध्य में स्थित तीर्थराज पुुष्कर के नन्दा सरस्वती संगम स्थल नाँद गाँव में यह प्राचीन शिवलिंग पुरातात्त्विक दृष्टि से बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसको कुुषाण कालीन (2-3 वीं सदी) का माना गया है। यह शिवलिंग मूर्ति शास्त्रत्र की दृष्टि से दूसरी सदी में शैवमत की पूजा का प्रमाण है। इस चतुर्मुखी मानवाकार सर्वतोभ्रद शिवलिंग पर भगवान शिव के लकुुलिश अवतार को उत्कृष्ट शिल्पकला के माध्यम से उत्र्कीण किया गया है। शैवशिल्प इतिहास में शिव का अनोखा अंकन है। इस शिवलिंग पर सनाल कमल, चक्रधारी विष्णु, देवी लक्ष्मी, हलधर बलराम, सूर्यदेव सहित कुल 33 देव प्रतिमाओं का अंकन है। लकुलिश शिव के साथ-साथ सौर, वैष्णव व शाक्त भावों के कारण इसका अत्याधिक सांस्कृतिक महत्त्व है।
लकुलिश शिव की पूजा भारतीय संस्कृति में काफी लम्बे समय तक होती रही है। जिसके प्रमाण उत्तर गुप्तकाल तक मिलते हैं। यह शिवलिंग जन-जन की आस्था का प्रमुख केन्द्र है। स्थानीय भाषा में इसे भभूतेश्वर महादेव नाम से भी जाना जाता है। जनश्रुति के अनुसार राजा प्रभंजन का कुुष्ट रोग इसी शिवलिंग की आराधना करने से दूर हुआ था। यहाँ के ग्रामीणों के अनुुसार ब्रह्म मुर्हुत में नन्दा-सरस्वती कुण्ड में स्नान कर विधिवत पूजा-अर्चना व परिक्रमा करने से कई लाभ व फल प्राप्त होते हैं। यहाँ पहुँचने के लिए पुुष्कर से गोविन्दगढ़ सड़क मार्ग पर स्थित नाँद गाँव जाना होता है।
गुणेश्वर महादेव:– नागौर जिले के दक्षिण छोर पर लुनी नदी किनारे पर स्थित जसनगर (केकिन्द) गाँव में स्थित प्रतिहार कालीन (9-10वीं सदी) का शिव मंदिर वास्तु शिल्पकला की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्मारक है। इस मंदिर के वास्तुुशिल्प युक्त गर्भगृह, अन्तराल, निज व सभा मण्डप, शिखर आदि सम्पूर्ण अवयवों से युक्त है।
मंदिर में योनी पट्ट सहित शिवलिंग गर्भगृह के मध्य में स्थापित है। इसका प्रवेश द्वार लतापत्र, पुरूष, मातृका, व्याल, बिजोरा व पुष्पलता शाखा से अलंकृत है। इस मंदिर का शिखर नागर शैली में निर्मित है। निज व सभा मण्डप में रामायण व महाभारत की प्रमुख घटनाओं का सुुन्दर उत्कीर्ण किया हुुआ है। जो स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण है। मेड़ता शहर से 25 कि.मी. दुर जैतारण मार्ग पर स्थित है।
बाड़ौली के मंदिर:– कोटा से 45 कि.मी. की दूरी पर बाड़ौली के मंदिर समूह उड़ीसा में बने नागर शैली के समान है। इनमें प्रमुख मंदिर घटेश्वर महादेव का है। इस में तोरण द्वार अत्यन्त कलात्मक हैै। इस पर गंगा, जमुना की मूर्तियां उत्कीर्ण है। द्वार के ऊपर बीच में तान्डव मुद्रा में शिव की मूर्ति है। मंदिर के सामने गोलाकार सभा मण्डप को श्रृंगार चंवरी कहा जाता है। इनके खम्भों पर राजा हूण एवं रानी पिंगल को शिव-पार्वती के रूप में आकर्षक भाव से दर्शाया गया है। प्राकृतिक छटा के बीच कई कलात्मक मंदिरों का निर्माण 7-8वीं सदी में परमार राजाओं के समय करवाया गया था। यहां के शिवलिंग व नागनागिन प्रतिमा के दर्शन हेतु श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।
कंसुआ शिव मंदिर:- कोटा से 6 किमी. दूर कंसुआ महादेव मंदिर आठवीं शताब्दी का माना गया है। इसकी परिक्रमा में कुटिल लिपि का एक लेख मौजूद है। मंदिर के में एक चतुर्मुख शिवलिंग स्थित है। बाहर चबुतरे पर एक शिवलिंग ऐसा भी हैै जो हजारमुखी है।
भीम चंवरी:– कोटा से 50 कि.मी. दूर दर्रा अभ्यारण में स्थित एक लम्बे चैैड़े पत्थर के दो स्तरीय चबूतरे पर कुछ खम्भों वाले इस मंदिर को भीम चैरी या भीमचवंरी नाम से जाना जाता है। इसे गुप्तकालीन शिव मंदिर माना जाता है।
चारचैमा:- कोटा से 25 कि.मी. दूर चारचैमा गाँव में प्राचीन शिव मंदिर गुप्तकाल (4-5वीं सदी) का माना गया है। आयताकार, गर्भगृह में स्थित चतुर्भुख शिव मूर्ति बहुत ही आकर्षित करने वाली है। वेदी से चोटी तक तीन फीट की इस मूर्ति में कंठ से ऊपर के चारो मुख काले और चमकीले हैं।
चन्द्रसल का शिवालय:– कोटा शहर से मात्र दस कि.मी. दूरी पर चंदलोई नदी के किनारे प्राचीन मठ के परकोटे में कई प्राचीन मंदिर बने हुए हैं। इनमें से एक दसवीं सदी का शिव मंदिर प्रमुख है। इस मंदिर की दीवारों पर भगवान विष्णु, देवी लक्ष्मी, सरस्वती, कुबेर व यम सहित कई अन्य प्रतिमाएं उकेरी हुुई हैं। इस मंदिर का शिखर उभार पीठ से कलश तक अण्डाकार है। इस कारण यह स्थापत्य कला का विशिष्ट प्रमाण है। कभी यहाँ हर समय मंत्रों व शंख की ध्वनि गूंजती थी अब खण्डहरों में सब मौन हो गई । शिवरात्रि व सावन मास में श्रद्धालुओं का यहाँ तांता लगा रहता है।
अर्थुना के मंदिर:– राजस्थान में 11वीं से 13वीं शताब्दी तक की प्रमुख मंदिर शैली सोंलकी शैली के नाम से जानी जाती है। इसी परमार काल में मालवा से लगते हुुए प्रदेश में भूमिज शैली का प्राधान्य रहा है। बांसवाड़ा जिले के अर्थुना के मंदिर 8-11 वीं सदी के हैं। यहाँ कई मंदिरों में तिथियुक्त शिलालेख भी है। यह मंदिर मूर्ति कला की खान है। बांसवाड़ा के गढ़ी तहसील मुख्यालय से 16 कि.मी. दूरी पर हनुमानगढ़ी परिसर में मंदिरों की श्रृंखला स्थित है।
परशुराम महादेव:– पाली जिले के सादड़ी कस्बे से 14 कि.मी. दूर अरावली पहाड़ियों की श्रृंखला की गुफा में प्राचीन प्राकृतिक शिवलिंग स्थित है। यहां प्रतिवर्ष शिवरात्रि को विशाल मेले का आयोजन होता है|
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