भारत कई तीर्थ–स्थलों की भूमि है, जिनमें से सबसे लोकप्रिय चार धाम यात्रा है, जहां देश के चार प्रतिष्ठित मंदिर- बद्रीनाथ, द्वारका, रामेश्वरम और पुरी शामिल हैं। इन चार मंदिरों में रामेश्वरम का ही मंदिर ऐसा है, जो भगवान शिव को समर्पित है। इसकी ख़ासियत ये है, कि इसका संबंध महाकाव्य रामायण के साथ जुड़ा है, और स्थापत्य कला की वजह से भी इसका विशेष महत्व है। कहा जाता है, कि ये एशिया का एकमात्र ऐसा मंदिर है, जिसका स्तंभ वाला गलियारा सबसे लंबा है।
तमिलनाडु राज्य के रामेश्वरम द्वीप में स्थित रामनाथस्वामी मंदिर भारत के सबसे प्रतिष्ठित मंदिरों में से एक है।
प्राचीन काल से ये मंदिर एक महत्वपूर्ण तीर्थ-स्थल रहा है, जिसका हिंदू देवालयों में एक विशेष स्थान है। यह बारह ज्योतिर्लिंगों यानी शिव के बारह सबसे पवित्र मंदिरों में से एक है।
लेकिन यह सिर्फ़ मंदिर ही नहीं है, जिसका महत्व विशेष है। रामेश्वरम द्वीप महाकाव्य रामायण से जुड़े होने के कारण भी अत्यधिक पूजनीय है। मान्यताओं के अनुसार, यहीं से भगवान विष्णु के सातवें अवतार भगवान राम ने लंका जाने के लिए मंदिर से सिर्फ़ बीस किलोमीटर दूर धनुषकोडी में राम-सेतु बनाकर समुद्र पार किया था।
प्राचीन समय में यह द्वीप पवित्र धार्मिक केंद्र के अलावा एक समृद्ध व्यापारिक केंद्र भी था। ऐतिहासिक रूप से सीलोन द्वीप (वर्तमान में श्रीलंका) तक पहुंचने के लिए ये एक जगह से दूसरी जगह जाने का बिंदू था। ऐसा माना जाता है, कि रामेश्वरम द्वीप 15वीं शताब्दी तक मुख्य भूमि का हिस्सा था, लेकिन एक विनाशकारी तूफ़ान के कारण ये मुख्य भूमि से अलग हो गया।
इस महत्वपूर्ण क्षेत्र पर कई राजवंशों का शासन रह चुका है। यहां कुछ समय के लिये चोल राजा राजेंद्र चोल-प्रथम (सन 1012-1040) ने भी शासन किया था। सीलोन (सन 1215-1624) के जफ़ना साम्राज्य का भी रामेश्वरम द्वीप के साथ बहुत क़रीबी संबंध था। कहा जाता है, कि उसका मंदिर में बड़ा योगदान था, जहां उसने दान भी किए थे। यह क्षेत्र बाद में पांड्यों, विजयनगर साम्राज्य, मराठों, निज़ामों और अंततः 18वीं शताब्दी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के अधीन आ गया। सेतुपति सबसे प्रमुख शासकों में से एक थे, जिन्होंने 16वीं शताब्दी में मदुरै नायक से नाता तोड़ लिया था। इन्हीं के शासनकाल में रामेश्वरम के मंदिर में उल्लेखनीय परिवर्तन हुआ।
ऐसा कहा जाता है, कि पहले सिख गुरु, नानक भी 16वीं शताब्दी में सीलोन जाते समय इस द्वीप में आए थे और मंदिर भी गए थे।
ठीक इस क्षेत्र की तरह ही, मंदिर से भी कई कथाएं और रहस्य जुड़े हुए हैं। मंदिर के निर्माण की सही तारीख़ स्पष्ट नहीं है, लेकिन एक दन्तकथा के अनुसार ब्राह्मण रावण के वध करने के पाप का प्रायश्चित करने के लिए ऋषियों की सलाह पर भगवान राम और सीता ने इस स्थान पर एक शिवलिंग का निर्माण करवाया गया था। राम और सीता को शिव की पूजा करनी थी।इसीलिए राम ने हनुमान को एक शिवलिंग लाने के लिए वाराणसी भेजा था। चूंकि हनुमान को शिवलिंग लाने में देर हो गई थी, जिसके कारणवश सीता ने यहां रेत से एक शिवलिंग बनाया था। यही कारण है, कि आज मंदिर में दो शिवलिंग हैं।
मंदिर की वर्तमान संरचना को देखते हुए यह विश्वास करना कठिन होता है, कि यह शुरू में एक सन्यासी के घासफूंस के छप्पर के नीचे रहा होगा। कहा जाता है, कि आज हम मंदिर का जो रूप देखते हैं, वह कई राजाओं के योगदान से सदियों में बनकर तैयार हुआ था। इसमें मुख्य योगदान रामनाथपुरम के सेतुपति राजा का था। मंदिर दो ऊंचे गोपुरमों से घिरा हुआ है, जो अन्य पौराणिक आकृतियों के अलावा शिव और देवी पार्वती से जुड़ी छवियों से सजा हुआ हैं।
रामेश्वरम मंदिर की एक उल्लेखनीय विशेषता इसका सुंदर-स्तंभों वाला बाहरी गलियारा है। 12 स्तंभों वाले गलियारे को एशिया का सबसे लंबा मंदिर गलियारा माना जाता है। इसका निर्माण 18वीं शताब्दी में मुथुरामलिंग सेतुपति ने करवाया था, और इसे चोक्काटन मंडपम कहा जाता था।
सीलोन के, पोलोन्नारुवा साम्राज्य के 12वीं शताब्दी के राजा निशानकमल्ला का एक शिला-लेख मंदिर परिसर में मिला था। हालांकि इसे पूरी तरह पढ़ पाना संभव नहीं था, लेकिन इससे राज्य में राजा के दौरों, पांड्य क्षेत्र में उनके अभियानों और रामेश्वरम में एक मंदिर के निर्माण के बारे में कुछ जानकारी मिलती है।
मुख्य देवता के अलावा, मंदिर परिसर में बाईस तीर्थ पवित्र जलाशयों के साथ विष्णु, गणेश और पार्वती को समर्पित कई छोटे मंदिर हैं।
वास्तुकार जेम्स फ़र्ग्यूसन के अनुसार, “यदि किसी एक ऐसे मंदिर को चुना जाए, जो द्रविड़ शैली की सभी सुंदरताओं को उनकी पूर्णता में दर्शाता हो और साथ ही जो डिज़ाइन के सभी विशिष्ट विशेषताओं का उदाहरण हो, तो निश्चित रुप से ये रामेश्वरम का मंदिर होगा।”
आज इस मंदिर में सबसे ज़्यादा श्रद्धालु आते हैं, और ये लाखों लोगों की कालातीत आस्था के प्रतीक के रूप में यहाँ मौजूद है।
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