कहा जाता है कि यह प्राचीन भारत में शिक्षा के सबसे बड़े केंद्रों में से एक था, जिसे नालंदा, विक्रमशिला और तक्षशिला के बराबर माना जाता रहा है। पुष्पगिरि महाविहार या पुष्पगिरि विश्वविद्यालय का उल्लेख 7वीं शताब्दी के प्रसिद्ध चीनी भिक्षु और यात्री ह्वेन त्सांग के दस्तावेज़ों में मिलता है। ऐसा माना जाता है कि शिक्षा का प्रमुख बौद्ध केंद्र, पुष्पगिरि दूसरी सदी ई.पूर्व से लेकर 10 वीं सदी तक ख़ूब फूलाफला था। कुछ विद्वानों की राय और खुदाई के नतीजों से अनुमान लगाया गया था कि ये स्थान ओडिशा में लंगुडी पहाड़ियों पर रहा होगा। बहरहाल, ये लापता विश्वविद्यालय आज भी अनगिनत रहस्यों से घिरा हुआ है।
ओडिशा में समृद्ध बौद्ध विरासत देखने को मिलती है। हालांकि गौतम बुद्ध ख़ुद कभी यहां नहीं आये थे लेकिन बौद्ध धर्म यहाँ ख़ूब फलाफूला।
इस स्थान में 200 से अधिक बौद्ध स्थल हैं। तीसरी सदी ई.पू. में मौर्य सम्राट अशोक की कलिंग की विजय के साथ, बौद्ध धर्म, इसकी विचारधाराएं और शिक्षा के साथ-साथ कला और वास्तुकला को यहां प्रोत्साहन मिला।
पुष्पगिरि विश्वविद्यालय की खोज करने में ललितागिरी, रत्नागिरी और उदयगिरि के बौद्ध परिसर बहुत महत्वपूर्ण साबित हुए हैं। ओडिशा का सबसे प्राचीन बौद्ध स्थल ललितगिरि, उन प्राचीन बौद्ध मठ प्रतिष्ठानों की तिकड़ी का हिस्सा है जिसमें पड़ौस में मौजूद रत्नागिरी और उदयगिरि भी शामिल हैं। आज ‘डायमंड ट्राएंगल’ के रूप में लोकप्रिय इन स्थानों में मठों, स्तूपों, प्रार्थना सभागारों, पत्थर की तख़्तियां, मुहरों और मूर्तियों के अवशेष देखे जा सकते हैं।
बौद्ध स्मारकों के इतने सारे अवशेषों के कारण, अभी हाल ही, यानी सन 1999 के दशक तक माना जाता था कि इनमें से एक स्थल या सभी स्थल प्राचीन पुष्पगिरी विश्वविद्यालय के केंद्र थे। हालांकि अध्ययनों और ढांचों के अवशेषों तथा मुद्रण की खोज से ये संभावना ख़त्म हो जाती है। वास्तव में मुद्रण से ही इन तीनों महाविहारों के नाम पता लगे हैं। मुद्रण के अनुसार रत्नागिरी, ललितगिरि और उदयगिरि के नाम रत्नागिरी महाविहार, चंद्रादित्य विहार और माधवपुर महाविहार थे।
ह्वेन त्सांग के दस्तावेज़ एक ऐसे स्रोत है जो पुष्पगिरि से संबंधित अन्वेषणों और अनुसंधानों का आधार बनता है। प्रसिद्ध चीनी तीर्थ-यात्री ह्वेन त्सांग सन 639 के आसपास ओडिशा आया था। अपने दस्तावेज़ों में उसने ज़िक्र किया है कि कैसे इस स्थान पर बौद्ध धर्म फलफूल रहा था। उसने इस स्थान का उल्लेख वू-टी-यू (ओड्रा) के नाम से किया था। विद्वान इस स्थान को ओडिशा मानते हैं। ह्यून त्सांग के अनुसार, यहां के लोग ‘मेहनती छात्र’ थे और उनमें से कई बौद्ध थे। यहां उन्होंने पु-से-पो-की-ली नामक एक मठ का उल्लेख किया है जिसे विद्वान पुष्पगिरि महाविहार मानते है। ह्यून त्सांग ने मठ का वर्णन कुछ इस तरह किया है-
‘देश के दक्षिण-पश्चिम में एक पहाड़ पर पु-से-पो-की-ली (पुष्पगिरि) मठ था; मठ की पत्थर की चोटी अलौकिक रोशनी और अन्य चमत्कारों को प्रदर्शित करती है, गुंबद और आमलक के बीच उपासकों ने धूप से बचने के लिये छतरियां लगाईं हैं। इन्हें देखकर लगता है मानों वे (छतरियां) सुईयों की तरह एक चुंबक से चिपकी हुई हैं।”
चीनी मामलों के फ्रांसीसी विद्वान स्तानिस्लास जूलियन और चीनी ग्रंथों का अनुवाद करने वाले अंग्रेज़ विद्वान सैमुएल बियाल जैसे विद्वानों ने पु-से-पो-की-ली की ‘पुष्पागिरि’ और देश की ‘ओटा’ या ‘उद्र’ नाम से व्याख्या की है।
कुछ विद्वानों के अनुसार, यह ओडिशा के जाजपुर ज़िले में लांगुडी पहाड़ियों का बौद्ध स्थल था, जिसकी पहचान प्राचीन पुष्पगिरी विश्वविद्यालय के रूप में हुई थी। सन 1990 के दशक की शुरुआत तक लंगुडी के बौद्ध परिसर पर विशेष ध्यान नहीं गया था। फिर हरीश चंद्र प्रुस्टी और प्रदीप मोहंती जैसे विद्वानों ने अपने लेख में इस स्थल का वर्णन किया जो दक्कन कॉलेज रिसर्च इंस्टीट्यूट, पुणे की एक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था।
सन 1996 और सन 2006 के बीच लांगुडी में खुदाई की गई जिससे महत्वपूर्ण संरचनात्मक अवशेष निकले। खुदाई की इस श्रृंखला से पहले भी यहां खुदाई की गई थी। सन 1996 से पहले की खुदाई में पत्थर के कुछ शिलालेख मिले थे। भारतीय इतिहासकार और मुद्राशास्त्री, बी.एन. मुखर्जी ने इन शिलालेखों का अध्ययन किया और पाया कि शिलालेख में ‘श्री पुष्पसभद्रगिरिय’ का उल्लेख है। प्राकृत भाषा के संस्करण का संस्कृत में अनुवाद श्री पुष्पसभद्रागिरयाह या पुष्पसभद्रागिरये के रूप में किया गया था जिसका अर्थ है “फूलों से भरा शानदार पहाड़” या “फूलों से भरे शानदार पर्वत के लिए।” मुखर्जी के अनुसार इसका इशारा ‘पुष्पागिरी विहार’ की ओर ही था।
अपनी पुस्तक ‘एक्सकेवेशन्स एट उदयगिरि- 2’ में लेखक बिमल बंद्योपाध्याय बीएन मुखर्जी के काम और शिलालेखों पर उनकी टिप्पणियों का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि मुखर्जी के अनुसार, ‘इस निष्कर्ष को ब्राह्मी लिपि में लिखे एक अन्य अभिलेख से बल मिलता है जिसकी खोज डी.आर. प्रधान ने संबंधित क्षेत्र में की थी। इस पुरालेख के पठनीय भाग में, हम पिस्पासिरिविहा(र) वाक्यरीति देख सकते हैं, जिसका अर्थ है “पिशपागिरी के मठ में या शानदार पिशपागिरी में”। पिष्पा को आसानी से संशोधित कर पुष्पा कहा जा सकता है। इस तरह यहाँ स्पष्ट रुप से पुष्पगिरी मठ का संदर्भ है। लांगुडी पहाड़ी क्षेत्र में पुष्पगिरी मठ के स्थान के बारे ह्वेन त्सांग ने जो ज़िक्र किया है उस पर संदेह नहीं किया जा सकता है। ओड्रा में एक अलग इलाक़े में ह्वेन त्सांग के समय से पहले या उसी के युग के किसी अन्य शिलालेख की खोज के बाद ही पुष्पागिरी मठ के स्थान को लेकर फिर सवाल किये जा सकते हैं।”
बहरहाल, यह लगुंडी में पुष्पगिरी के अस्तित्व की पुष्टि करने के लिए पर्याप्त नहीं था। बाद में लगुंडी में उत्खनन से एक बड़ा स्तूप या महास्तूप मिला जो लैटेराइट मिट्टी की एक दीवार से घिरा हुआ है और जो आयताकार है और जली हुई ईंटों से ढ़का हुआ है। अन्य कलाकृतियों में रैलिंग स्तंभ, एक खंडित ब्राह्मी शिलालेख, टेराकोटा मुहर और उत्तरी काली पॉलिश वाले सामान शामिल हैं। देवराज प्रधान का मानना था कि स्तूप मौर्य सम्राट अशोक ने बनवाया था। खुदाई में चट्टान को तराशकर बनाये गये स्तूप और उभरी हुई नक़्क़ाशीदार छवियों भी मिली।
यहां ध्यान मुद्रा में बुद्ध की कुछ छवियां और भृकुटी, तारा, मंजुश्री जैसी बौद्ध देवियों की छवियां मिली थीं। लेकिन कुछ विद्वानों का मानना है कि ये अवशेष एक बड़े विहार के अस्तित्व के सूचक नहीं हैं जो कभी यहां मौजूद रहा होगा। सन 2007 तक लांगुडी पहाड़ी के उत्तरी भाग में चट्टानों को तराशकर बनाये गये विभिन्न आकारों के 34 स्तूप मिले। माना जाता है कि अधिकांश अवशेष पहली सदी और 9वीं सदी के बीच के हैं। कुछ विद्वान यहां एक प्रमुख बौद्ध मठवासी प्रतिष्ठान के अस्तित्व की बात करते हैं। सन 2007 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने लगुंडी पहाड़ियों की खुदाई वाली जगह को अपनी देखरेख में ले लिया।
20वीं सदी के बाद से विद्वानों और पुरातत्वविदों ने पुष्पगिरी विश्वविद्यालय के सही स्थान की पहचान रने की कोशिश की है। लेकिन अभी बहुत कुछ खोजा जाना बाकी है। अब सिर्फ़ यह आशा की जा सकती है कि आगे के शोध और उत्खनन से प्राचीन काल के इस महान शिक्षा केंद्र के बारे में कुछ और पता चल सके।
शीर्षक चित्र: यश मिश्रा
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