राजस्थान अपने कई मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन क्या आप जानते हैं, कि यहां एक ऐसा भी मंदिर परिसर है, जो वर्षों से शापित है, जिसकी वजह से ये सूर्यास्त के बाद वीरान छोड़ दिया जाता है?
रहस्य और कथाओं से घिरे किराडू के मंदिर अपनी सुंदर वास्तुकला और मूर्तियों के लिए भी जाने जाते हैं। ये यहां की प्रसिद्ध मारू गुर्जर वास्तुकला के बेहतरीन नमूने माने जाते हैं। लेकिन इतनी सुंदरता के बावजूद इन्हें देखने कम ही लोग आते हैं !
किराडू मंदिर सुनहरे शहर जैसलमेर से लगभग 167 कि.मी.और बाड़मेर शहर से 40 कि.मी. दूर राजस्थान के बाड़मेर ज़िले में स्थित हैं। इन मंदिरों के बारे में लोग कम ही जानते हैं, लेकिन फिर भी ये राजस्थान में महत्वपूर्ण स्थानों में से एक हैं।
किराडू को पहले किरातकुपा के नाम से जाना जाता था। किराडू का संबंध किरातस (शिकारी जनजाति) से है, जिसका उल्लेख प्राचीन हिंदू ग्रंथ महाभारत और स्थानीय कथाओं में मिलता है। किराडू के बारे में पहला अधिकृत उल्लेख कौटिल्य के अर्थशास्त्र और शक (इंडो-सीथियन) शासक रुद्रदामन (शासनकाल सन 130-150) के समय के गिरनार शिलालेख में मिलता है। इसमें कहा गया है, कि यहां कभी मौर्य और शक राजवंश के सूबेदारों का शासन हुआ करता था, जिसके दौरान यहां श्रेणी (व्यापारिक गिल्ड) हुआ करता था। इस दौरान किराडू वर्तमान समय के गुजरात राज्य के बंदरगाहों या वर्तमान सिंध (पाकिस्तान) में रेगिस्तान के पार व्यापार मार्ग पर एक महत्वपूर्ण व्यापारिक शहर हुआ करता था। दुर्भाग्य से उस गौरवशाली समय का अब कुछ भी नहीं बचा है।
अफ़सोस की बात है यह है , कि हम किराडू के मध्यकालीन इतिहास के बारे में बहुत कम जानते हैं। स्थानीय इतिहासकारों का दावा है, कि यहां किरार राजपूत शासन करते थे, जिन्होंने 6वीं -8वीं शताब्दी में शिव मंदिरों का निर्माण करवाया था, लेकिन आधिकारिक इतिहास के अनुसार यहां का इतिहास गुर्जर-प्रतिहार वंश (8वीं-11वीं शताब्दी) के शासन के साथ शुरू होता है ।
10वीं शताब्दी के अंत में जब गुर्जर-प्रतिहार वंश कमज़ोर होने लगा, तब किराडू का परमार राजवंश एक सैन्य शक्ति के रूप में उभरने लगा। दूसरी तरफ़ परमार राजवंश अपने पड़ोसी क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा करके अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहा था, लेकिन जल्द ही 11वीं शताब्दी की शुरुआत में पाटन के चालुक्यों ने उनका दमन कर दिया। चालुक्य गुजरात में शक्तिशाली हो रहे थे और अपने शासन का विस्तार कर रहे थे। आगे चलकर परमार चालुक्य शासकों के सामंत बन गए।
किराडू मंदिर कब बने थे, इसे लेकर कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। लेकिन जो अभिलेख यहां मिले हैं, उनके अनुसार विद्वानों का मानना है, कि इनका निर्माण 11वीं और 12वीं शताब्दी के बीच हुआ था।
ये शिलालेख हमें इस बात की भी कहानी बताते हैं, कि कैसे किराडू 12 वीं शताब्दी के मध्य तक चालुक्यों के संरक्षण में परमारों के शासन काल में एक समृद्ध शहर होता था।
इसके बाद किराडू जालोर के सोनगरा चौहान (सन 1182 में स्थापित) के अधीन हो गया गया। आमतौर पर माना जाता है, कि 13वीं शताब्दी में जैसलमेर के भाटी और ग़ुलाम वंश के शासकों के आक्रमणों के दौरान मंदिरों को नष्ट कर दिया गया था। इस हिंसा की याद आज भी इस कहावत में बरक़रार है-
किराडूकथन या थानो, एक चढ़े एक उतरे
(किराडू सेनाओं का पड़ाव-स्थल बन गया है, एक आगे बढ़ता है, और दूसरा पीछे हटता है)
13वीं शताब्दी के अंत में एक स्थानीय सरदार बहाडा राव ने किराडू से दूर बहामेर नाम का एक नया गढ़ स्थापित किया, जिसने मौजूदा बाड़मेर की नींव डाली, जिसकी स्थापना उनके वंशज रावत भीम ने सन 1522 में की थी।
किराडू में आज पांच मंदिर हैं, जिनमें से चार शिव और एक विष्णु को समर्पित है।इनमें से सबसे प्रसिद्ध और विस्तृत सोमेश्वर मंदिर है, जिसे सोमेश्वर ने 12वीं शताब्दी में अपने शासन काल के दौरान बनवाया था। सबसे पुराना विष्णु मंदिर है, जिसकी निर्माण तिथि स्पष्ट नहीं है। स्थापत्य इतिहासकार जॉर्ज मिशेल ने अपनी किताब द पेंगुइन गाइड टू द मॉन्यूमेंट्स ऑफ़ इंडिया, वॉल्यूम 1 (1990) में लिखा है, कि ये मंदिर 10वीं शताब्दी में बना था।
कहा जता है कि मारु-गुर्जर शैली में जिन मंदिरों का पहले निर्माण हुआ था, उनमें किराडू मंदिर एक थे। मारु-गुर्जर शैली इसके पहले राजस्थान, जिसे मरुस्थल/मरुदेश कहा जाता था, और गुजरात (गुर्जर) में प्रचलित शैलियों का सम्मिश्रण थी। भव्य रुप से अलंकृत भीतरी हिस्से, मुख्य शिखर के किनारों से निकले हुए सहायक स्तंभ इस शैली की विशेषता है। कुछ मंदिरों में उत्तेजक नक़्क़ाशी भी इस शैली का हिस्सा मानी जाती हैं।
किराडू मंदिरों के चार अभिलेखों में से जिन तीन अभिलेखों की विवेचना की गई है, उससे हमें परमारों के इतिहास और गुजरात के चालुक्य शासकों के साथ उनके संबंधों के बारे में और जानकारी मिलती है। पहला शिलालेख सन 1152 का है। इसमें कुमारपाल (शासनकाल सन 1143 – सन 1172 ) का अपनी प्रजा को कुछ ख़ास दिनों में पशु-वध की मनाही का आदेश है।
दूसरा अभिलेख सन 1161 का है। ये अभिलेख शिव मंदिर के प्रवेश-द्वार पर एक स्तंभ पर उकेरा गया है, और ये पूरी तरह परमार वंशावली को समर्पित है। इसमें परमार सामंत सोमेश्वर का उल्लेख है, जिस पर जयसिम्हा सिद्धराज (शासनकाल सन 1092-1142) की कृपादृष्टि पड़ गई थी। उसने उसने सन 1148 में कुमारपाल के शासनकाल के दौरान ख़ुद को अच्छी तरह स्थापित कर लिया था । सोमेश्वर ने ही सोमेश्वर मंदिर बनवाया था, जो आज भी मंदिर परिसर में मौजूद है।
तीसरा अभिलेख सन 1178 का है जिसका विवरण मार्च सन 1933 में इंडियन एंटीगुरी वॉल्यूम.LXII में प्रकाशित हुआ था। इसके अनुसार किराडू मंदिर सुल्तान मोहम्मद ग़ौरी (सन1149- सन1206) के हमले के पहले तक अछूते थे। बाद में ग़ौरी को मुलराजा (शासनकाल सन 1175- सन 1178) के नेतृत्व वाली चालुक्य सेना ने हरा दिया था। उसके उत्तराधिकारी भीमदेव-द्वितीय (शासनकाल सन 1178- सन 1240) ने हमलावरों द्वारा मंदिर के तोड़े गये हिस्सों की मरम्मत करवाई थी।
किराडू से जुड़ी कुछ कथायें हैं, जिसके अनुसार लोगों को सूर्यास्त या रात के समय यहां रुकने की मनाही थी। माना जाता था, कि वहां रुकने पर वे पत्थर में बदल जाएंगे। एक लोकप्रिय कथा इस प्रकार है:
परमार शासक सोमेश्वर के समय किराडू की ख़ुशहाली अपने चरम पर थी, लेकिन विदेशी आक्रमण के डर से राजा और उसकी प्रजा चिंतित रहती थी। ऐसे में अपने राज्यको सुरक्षित रखने के लिए राजा ने एक संत धुंधलीनाथ से आशीर्वाद मांगा और उनसे अपने राज्य में रहने का आग्रह किया। संत अपने शिष्यों के साथ यहां बस गए जिससे राज्य फिर से सुखी और समृद्ध हो गया।
एक बार धुंधलीनाथ को एक लंबी यात्रा के लिए बाहर जाना पड़ा और उन्होंने अपने एक शिष्य को यहीं रुकने को कहा। लेकिन जब शिष्य बीमार पड़ा, तो एक कुम्हार की पत्नी को छोड़कर राजा और उसकी प्रजा में से किसी ने भी उसकी देखभाल नहीं की।
जब धुंधलीनाथ वापस आये और उन्हें इस बात का पता चला, तो उन्होंने क्रोधित हो कर श्राप दिया, कि जहां करुणा नहीं है, वहां मनुष्य नहीं होगा। उन्होंने कुम्हार की पत्नी को छोड़कर पूरे राज्य को पत्थर में बदलने का श्राप दे दिया, मगर उन्होंने उनके शिष्य की देखभाल करने वाली कुम्हार की पत्नी से कहा, कि वह शाम ढ़लने के पहले यहां से चली जाये। लेकिन कुम्हार की पत्नी ने उत्सुकता के कारण, जाते समय जैसे ही पीछे मुड़कर देखा, तो अन्य लोगों के साथ वह ख़ुद भी पत्थर की मूर्ति बन गई।
एक अन्य कथा के अनुसार धुंधलीनाथ तपस्या के उद्देश्य से बारह साल के लिये बाहर चले गये थे और उन्होंने अपने शिष्यों को लोगों से पांच उंगलियों से दान लेने का निर्देश दिया था। लेकिन राजा ने अपनी प्रजा से तीन उंगलियों से दान करने का आदेश दे दिया। इसका पता चलने पर संत ने उन लोगों को पत्थर में तब्दील होने का श्राप दे दिया, जिन्होंने तीन उंगलियों से दान किया था। श्राप के दौरान एक बूढ़ी महिला ने जब पीछे मुड़कर देखा, तो वह भी पत्थर में तब्दील हो गई। हालांकि आज तक इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं मिला है, लेकिन आज भी लोग शाम ढ़लने के बाद किराडू मंदिर परिसर के आसपास फटकते नहीं हैं।
शिव और विष्णु को समर्पित महत्वपूर्ण मंदिरों के सिवाय बाक़ी तीन मंदिरों के बारे में कम ही जानकारी है, चार शिव मंदिरों की चौखटों पर दो स्तर पर नक़्काशी है, और इनमें से किसी भी मंदिर के गर्भगृह में कोई मूर्ति नहीं है। सोमेश्वर और विष्णु दोनों मंदिरों में अष्टकोणीय मंडप हैं।
इतिहासकार गौरीशंकर ओझा अपनी किताब राजपूत आर्किटेक्चर (1968) में लिखते हैं, कि सोमेश्वर के शासनकाल के दौरान ही शिव मंदिर के निर्माण के साथ-साथ पुराने मंदिरों की मरम्मत करवाई गई थी।
सोमेश्वर मंदिर की दीवारों, स्तंभों और छतों पर बारीक नक़्क़ाशी है, जिनमें महाकाव्य रामायण और महाभारत, सागर मंथन जैसी पौराणिक कहानियों, भगवान विष्णु के अवतारों, दैनिक जीवन और वयस्क जीवन के दृश्यों को दर्शाया गया है। चौखट परब्रह्मा, विष्णु, गणेश, कार्तिकेय और शिव के कई रूपों की छवियां बनी हुई हैं। इसमें विष्णु के केवल दो अवतार बौना वामन और एक और मूर्ति है जो बुद्ध की प्रतीत होती है।
इस तरह लूटखसोट आदि से बर्बाद हुए मंदिर परिसर के बाक़ी अवशेष धूलभरी तेज़ हवाओं, उपेक्षा और यहां भूत-प्रेत होने की अफ़वाहों के शिकार हो गए। एक तरफ़ जहां किराडू मंदिरों के आसपास के गांवों में लोगों का रहना जारी रहा, वहीं ये मंदिर 19वीं शताब्दी की शुरुआत तक रहस्यों में घिरे रहे। इस पर तब लोगों का ध्यान गया , जब पश्चिमी राजपुताना के राजनीतिक सलाहकार जेम्स टॉड (सन 1782-1835) ने इसके बारे में अपने संस्मरणों में लिखा।
सन 1908-09 की भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के आधिकारिक रिकॉर्ड में पहली बार इसका उल्लेख प्रसिद्ध भारतीय पुरातत्वविद् डी.आर. भंडारकर ने किया था, जो अपने सहयोगी सी. मैकेंज़ी ब्राउन के साथ यहां आए थे। प्रसिद्ध वास्तुकला और कला इतिहासकार एम. ए. ढ़ाकी के लेख “किराडू एंड मारू-गुर्जरा स्टाइल ऑफ टेंपल आर्किटेक्चर (1967)” की वजह से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस तरफ़ ध्यान गया । अब किराडू मंदिर परिसर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और इंटेक (इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज) बाड़मेर चैप्टर की देखरेख में है।
आज, किराडू मंदिर गुज़रे हुये समय, यहा शासन करनेवाले राजवंशों के उत्थान,पतन और उनके भाग्य के खामोश गवाह हैं।
किराडू पहुंचने के लिए निकटतम हवाई अड्डा जोधपुर है, जो बाड़मेर से लगभग 220 किलोमीटर दूर है। निकटतम रेलवे स्टेशन बाड़मेर है, जहां से किराडू लगभग 40 किलोमीटर दूर (सड़क मार्ग से) है। यह सड़क मार्ग से जैसलमेर से 167 किमी दूर स्थित है।
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