एलोरा गुफाओं में मौजूद कैलाश मंदिर, बारह सौ वर्ष पहले ज्वलामुखी चट्टानों से काट कर बनाया गया है।दिलचस्प बात यह है कि परम्परा के हिसाब से पहले मुख्य भाग बनाया जाता था लेकिन यहां कलाकारों ने चट्टान को पहले ऊपर से तराशना शुरू किया और धीरे धीरे नीचे उतरते हुये पूरे मंदिर को रूप दिया।
निर्माण की इस प्रक्रिया के चमत्कार का अंदाज़ा इसे देखे बिना नहीं लगाया जा सकता। एलोरा यानी स्थानीय भाषा में वेरुल, महाराष्ट्र के औरंगाबाद में है।यहां दो किलोमीटर क्षेत्र में सौ से ज़्यादा गुफायें हैं, लेकिन उनमें से केवल 34 गुफायें ही देखी जा सकती हैं। यह गुफायें पश्चिमी घाटों की अपेक्षाकृत समतल चट्टानों को तराश कर बनायी गयी हैं। लगभग 66 मिलियन( 6 करोड़ 60 लाख वर्ष) पहले ज्वालामुखी की हलचल से यहां विभिन्न सतहों की हरे-भूरे रंग की चट्टाने बन गई थीं।जिन्हें दक्कन ट्रैप के नाम से जाना जाता है।
एलोरा दुनिया के सबसे बड़े गुफा-परिसरों में से एक है। जहां 600सी.ई. से लेकर 1000सी.ई. तक के जैन,बौद्ध और हिंदू स्मार्क और कलाकारी के नमूने मौजूद हैं। इन्हें राजाओं और व्यापारियों ने खोजा है। एलोरा का गुफा-परिसर इसी स्थान पर इस्लिये बनाया गया, क्योंकि यह इलाक़ा पश्चिम ऐशिया का प्राचीन व्यापार मार्ग रहा था। इसी वजह से यह दक्कन क्षेत्र का महत्वपूर्ण व्यापार केंद्र बन गया था।
34 गुफाओं में से सबसे सुंदर और सबसे महत्वपूर्ण गुफा है, गुफा नम्बर 16, यानी कैलाश मंदिर। यह एलोरा का, एक ही चट्टान से तराश कर बनाया गया सबसे बड़ा हिंदू मंदिर है। ऐसा लगता है कि चट्टानों के मुहानों को खोद कर तीन गहरी खाईयां बनाई गई होंगीं। मंदिर की छवि उभरने से पहले,इस प्रक्रिया में हथोड़ों और छेनियों की मदद से दो लाख टन चट्टाने हटाई गई होंगी। उसके बाद ही शानदार शिल्पकारी और सजावट की गई होगी।10वीं शताब्दी में लिखी गई एक किताब “कथा कल्पतरू ” में एक लोक-कथा दी गई है। उस लोक-कथा के मुताबिक़ 8वीं शताब्दी में राष्ट्रकुट राजवंश के राजा ऐलू की रानी ने प्रण लिया था कि वह, जब तक भग्वान शिव का आलीशान मंदिर नहीं बन जाता तब तक वह खाना नहीं खायेंगी। रानी ने सपने में मंदिर का शिखर देखा था। रानी को वैसा ही मंदिर चाहिये था।
राजा ने कई शिल्पकारों को आमंत्रित किया लेकिन उनमें से कोई भी रानी की इच्छा पूरी नहीं कर सका। अंत में पैंठण से कोकासा नाम का एक शिल्पकार आया और उसने, मंदिर निर्माण के लिये चट्टान को ऊपर से नीचे की तरफ़ तराशने कर मंदिर बनाने की सलाह दी।
मंदिर तराश ने का ज़्यादातर काम, 8वीं शताब्दी में,राष्ट्रकुट वंश के राजा कृष्णा-प्रथम के समय में हुआ था। 753 सी.ई. में,बादामी वंश के चालुक्या शासकों को पराजित करके ही राष्ट्रकुट वंश ने दक्कन में अपना शासन स्थापित किया था। उन्होंने कर्नाटक के गुलबर्गा शहर को अपनी राजधानी बनाया था। यही वजह है कि कैलाश मंदिर में द्राविड-कला अर्थात दक्षिण भारत के मंदिरों की तर्ज़ की शिल्पकारी मिलती है। इस तरह यह माना जा सकता है कि मंदिर निर्माण में चालुक्या और पल्लव कलाकारों का भी योगदान रहा होगा। शोध-कर्ताओं का मनना है कि 757 से 773 सी.ई. तक शासन करवाले कृष्णा-प्रथम के ज़माने में ही मंदिर के मुख्य ढ़ांचे यानी बड़े हिस्से का निर्माण हो चुका था।
जिसमें नन्दी का मंदिर और मुख्य द्वार शामिल था। यह भी संभव है कि मंदिर की योजना और निर्माण का का काम कृष्णा-प्रथम से पहले राजा दंतिदुर्गा (735 से 757 सी.ई.) के समय में ही शुरू हो गया हो। क्योंकि गुफा के पास से दंतिदुर्ग का भी एक शिला-लेख मिला है । मंदिर-परिसर में कुछ हिस्से ऐसे भी हैं जो बाद के राजाओं के बनवाये हुये हैं। मंदिर किसने बनवाया था,इस बात को छोड़कर अब हम मंदिर को देखते हैं। कैलाश मंदिर, शिव मंदिर को समर्पित है जो अपनी सीधी खुदाई की वजह से जाना जाता है और इस बात का अंदाज़ा आपको अंदर प्रवेश करते ही लग जाता है।
दो मंज़िला द्वार के अंदर एक बड़ा यू आकार का आंगन है। बायें हाथ की तरफ़ बनी ज़्यादातर मूर्तियां शैव हैं और दायें हाथ की तरफ़ बनी मूर्तियां वैष्णवी हैं।मुख्य द्वार के बिल्कुल सामने पैनल पर, तालाब के बीच,पूरे खिले कंवल पर गजलक्ष्मी बैठी हैं, उनके आसपास खड़े हाथी, पूरी श्रद्धा और अनुष्ठान के साथ, उन पर पानी डाल रहे हैं।
मुख्य मंडप सोलह खम्बों पर टिका है। उसके ठीक सामने शिव के रक्षक नन्दी का मंडप है जो एक पुल के ज़रिये जुड़ा हुआ है। उसके दोनों तरफ़ 45 फ़ुट ऊंचे दो खम्बे या ध्वज-स्तंभ बने हैं। इन खम्बों पर पहले दो त्रिशूल रखे हुये थे। मंदिर परिसर में अलग अलग स्थानों पर पांच मंदिर बने हुये हैं जो नदी-देवियों…गंगा,यमुना और सरस्वति को समर्पित हैं।
परिसर का हर भाग मिथकों की कहानी सुनाता है। यहां विभिन्न पुराणों की कथायें देखी जा सकती हैं। यहां सात क़तारों में पैनल लगे हैं जिन पर रामायण और महाभारत के दृश्य बने हुये हैं।यहां सबसे बड़ी मूर्ती कैलाश पर्वत को हिलाते हुये रावण की है। कई महत्वपूर्ण मूर्तियां और भी हैं जिनमें शिव और पार्वती पांसे का खेल खेल रहे हैं,वराह पृथवी को उठाये हुये हैं,नरसिम्ह अपने दुश्मन के शरीर के चीथड़े उड़ा रहे हैं या दुर्गा राक्षस महिषासुर को रौंद रही हैं। छत के कई हिस्सों पर भित्ति-चित्रकला के निशान मिलते हैं।गुफा परिसर की असली सजावट इन्हीं भित्ति-चित्रों से हुई थी।
कैलाश मंदिर ही नहीं बल्कि पूरा एलारो गुफा-परिसर आपको किसी और दूसरे युग में ले जाता है। यही वह युग था जब कला और शिल्पकलायें महत्वपूर्ण हो गईं थीं। भौतिक मूल्यों के अलावा ख़ास बात यह है कि यहां विभिन्न धर्मों की भी कई गुफायें हैं। इसका मतलब यह है कि प्राचीन भारत में भी सर्वधर्म संभाव की परम्परा थी।
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