महाराष्ट्र के उस्मानाबाद ज़िले में मंदिर के शहर तुलजापुर में प्रवेश के पहले पश्चिम दिशा की तरफ़ एक सड़क है जिसे तुलजापुर-आपशिंगे रोड कहते हैं। ये सड़क पठार और एक छोटे से घाट से होते हुए आपशिंगा गांव तक जाती है। इस साधारण से दिखने वाले गांव के पश्चिम की तरफ़ असिताश्म( ज्वालामुखी से बना काला पत्थर) का एक विशाल प्रवेश द्वार नज़र आता है। दो मंज़िला ऊंचा ये भव्य चौकोर प्रवेश द्वार किसी मध्ययुगीन क़िले का प्रवेश द्वार होने के लायक़ है।
प्रवेश द्वार को स्थानीय मराठी भाषा में आपशिंगे ची वेस कहते हैं। ये गांव की एक बेहद प्रभावशाली विशेषता है। इसके ऊपर एक मंज़िल है और प्रवेश द्वार पर झरोके हैं। ऊपरी मंज़िल ईंटों की बनी है ताकि भवन पर ज़्यादा वज़न न पड़े। झरोखे जैसे दिखने वाली दो बालकनियां राजस्थानी झरोखों में बने कंगूरों की याद दिलाती हैं। ये बालकनियां असिताश्म( बासाल्ट) पत्थर की बनी हैं जिनमें कभी लकड़ी के छज्जे लगे हुए थे जिनके अवशेष अब भी हैं।भीतर पत्थर के फ़र्श का गलियारा है। ये गलियारा इतना चौड़ा है कि इसमें से एक बैलगाड़ी निकल सकती है। प्रवेश द्वार के दोनों तरफ़ ऊंचाई पर एक एक कमरा है जहां से बैलगाड़ी में लदा सामान देखा जा सकता था। ये दरअसल चुंगी नाका (टोल गेट) था। इसका मक़सद माल की आवाजाही पर नज़र रखना और कर वसूलना रहा होगा।
गांव की उक्ति परंपराओं के अनुसार प्रवेश द्वार का निर्माण बहमनी युग में महान वज़ीर-ए-आज़म मेहमूद गावां (1411-1481) ने करवाया था। मेहमूद गावां ईरान का रहनेवाला था। वह बहुत कुशल तथा प्रतिभाशाली प्रशासक और बहादुर जनरल था। उसके नेतृत्व में बहमनी सल्तनत एक बार फिर फूलने फलने लगी थी। उसने भू-कानूनों, क़िलों के आधिपत्य के क़ानूनों तथा कमांडरों की ज़िम्मेदारियों में सुधार किए। इसके अलावा उसने अर्थव्यवस्था का भी पुनर्गठन किया था। वह कला और शायरी को भी संरक्षण देता था। सन 1474 में पड़े अकाल की वजह से बहमनी सल्तनत की अर्थव्यवस्था चरमरा गई थी और लोग भुखमरी तथा तबाही से बचने के लिये गुजरात और मालवा चले गए थे। मेहमूद गावां को इसीलिये अर्थव्यवस्था का पुनर्गठन करने की ज़रुरत मेहसूस हुई। उसकी भू-राजस्व व्यवस्था से अमीरों के ताक़त काफी हद तक कम हो गई थी। प्रवेश द्वार इन्हीं सुधारों का हिस्सा था। प्रवेश द्वार की वजह से बहमनी सल्तनत का देश भर में फैले महत्वपूर्ण व्यापार मार्गों पर चुंगी नाकों के ज़रिये व्यापार और कर वसूली पर नियंत्रण हो गया।लेकिन इन्हीं सुधारों की वजह से मेहमूद गावां को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। अमीरों के एक गिरोह ने झूठे विश्वासघाती दस्तावेज़ बनाकर उसे फंसा दिया था और नशे में चूर सुल्तान ने उसे सज़ा-ए-मौत दे दी।
उस समय मराठवाड़ा के व्यापार मार्गों पर आपशिंगे एक महत्वपूर्ण पाइंट होता था। इस गांव में भव्य प्रवेश द्वार के अलावा औलिया दरगाह और उससे लगी मस्जिद में बहमनी युग का एक और भवन है। मक़बरा और उसका सुसज्जित तल उस समय के कई अन्य स्मारकों की याद दिलाते हैं। लेकिन दुख की बात है कि आज ये स्मारक और इसके आसपास के इलाक़े रखरखाव के अभाव में जर्जर अवस्था में हैं।
आपशिंगे सिर्फ़ मध्यकाल में ही महत्वपूर्ण नहीं था। सातवाहन शासनकाल से ही ऐतिहासिक और सांस्कृतिक भूगोलवेत्ता इसके बारे में जानते थे। ये अनाज उत्पादन का एक महत्वपूर्ण केंद्र था और तगारा शहर (अब तेर) के बारे में भूगोलवेत्ता पोल्मी को जानकारी थी। पेरीप्लस दस्तावेज़ में भी इसका उल्लेख मिलता है। मराठवाड़ा कृषी के मामले में बहुत समृद्ध प्रांत था। यहां का कपास और मलमल भूमध्यसागरी इलाक़ों तक निर्यात किया जाता था। भूमिगत जल के ख़राब प्रबंधन के बावजूद यहां का ज्वार और अंगूर मशहूर है।
सन 2011 में पुणे के दक्कन कॉलेज (प्रतिष्ठित विश्विद्यालय) के पुरातत्व विभाग के एक दल ने आपशिंगे और इसके आसपास योजनाबद्ध तरीक़े से खुदाई की थी। दल में शाहिदा अंसारी, विजय सर्दे और मोहन एस.पार्धी थे। खुदाई में दल को सातवाहन अवधि के मिट्टी के बरतन मिले। इनमें लाल और काला रौग़न किये हुये सामान के टुकड़े मिले। उन्हें चीनी मिट्टी की एक छोटी मानव मूर्ति भी मिली जो उस समय की विशेषता मानी जाती है। इस तरह की कई छोटी मूर्तियां तेर में मिली है जिन्हें तेर के रामालिंगप्पा लामैच्योर संग्रहालय में देखा जा सकता है।
दल की जांच पड़ताल में ये बात निसंदेह साबित हो गई है कि ये गांव यहां कम से कम 1800 साल पहले भी आबाद था। ये प्राचीन स्थान आधुनिक आपशिंगे से क़रीब दो कि.मी. दूर है और छोटे से गांव काम्पत में स्थित है। यहां मध्यकालीन छोटी मूर्तियां तथा शुक्ति चूड़ियों के अवशेष भी मिले हैं। इसके अलावा शुक्ति चूड़िया बनाने की डेबिटएज भी मिली है। इससे पता चलता है कि उच्च कोटि के सामान बनाने का ये एक महत्वपूर्ण स्थान था। हालंकि ये खोज उबड़ खाबड़ खेतों में हुई थी लेकिन ये तय है कि तेर आबादी वाला महत्वपूर्ण स्थान था और आज ये जितना बड़ा है उससे कहीं ज़्यादा बड़ा था। इस बात की पूरी संभावना है कि ये तेर के उन उपनगरों में से था जो कुछ दूरी पर बसे हुए थे। स्थानीय लोगों के अनुसार हाल ही तक आपशिंगे में पैदा होने वाले कपास का वडगांव से तेर और उस्मानाबाद तक व्यापार होता था। जांच पड़ताल के दौरान दल को कई पथरीले रास्ते भी मिले जिनका आज भी स्थानीय किसान कभी कभी इस्तेमाल करते हैं। मध्यकाल के दौरान ये महत्वपूर्ण मार्ग होते थे। बड़े पैमाने पर व्यापार के लिये इन मार्गों को पत्थर से बनाया गया था। इससे एक बार फिर आपशिंगे के महत्व की पुष्टि होती है।
औपनिवेशिक काल में आपशिंगे हैदराबाद के निज़ाम के अधिकार क्षेत्र में आता था। मराठवाड़ा के स्थानीय लोग काफ़ी संघर्ष के बाद ख़ुद को आज़ाद कर भारत में शामिल हो गए थे। दरगाह के पास एक छोटा सा स्मारक है जहां श्रीशर वर्तक निज़ाम से लड़ते हुए शहीद हुए थे। गांव में एक बड़ा शहीदी स्मारक है।
दुख की बात ये है कि पिछले 70 सालों में मराठवाड़ा में मिले मध्यकालीन और प्राचीन अवशेषों को योजनाबद्ध तरीक़े से सूचिबद्ध करने के कोई प्रयास नहीं हुए हैं। मराठवाड़ा किसी समय निज़ाम के राज्य पुरातत्व विभाग का प्रांत होता था। छोटे बड़े सौ अन्य स्मारकों की तरह आपशिंगे का प्रवेश द्वार भी ख़स्ता हाल है। इसे राज्य या केंद्र का संरक्षण भी प्राप्त नहीं है। गांव वालों ने ही भवन बनाने के आधुनिक सामान से इसकी मरम्मत की है जिसकी वजह से इसकी मौलिकता प्रभावित हुई है। समय आ गया है कि महाराष्ट्र की जनता संस्कृति मंत्रालय से मराठवाड़ा की इस अद्भुत धरोहर पर ध्यान देने और आपशिंगे-ची-वेस तथा अन्य स्मारकों को संरक्षण देने की अपील करें।
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