अमृतसर में श्री दरबार साहिब की देश के बँटवारे से पहले की करीब-करीब सभी कैमरा तस्वीरों में परिक्रमा में किसी गिरजा-घर की तरह दिखाई देने वाला एक लाल रंग का टावर दिखाई देता है। अमृतसर में विशेष तौर पर श्री दरबार साहिब के दर्शनों को आने वाले ज्यादातर श्रद्धालु उक्त टावर की मौजूदगी तथा इतिहास के बारे में सवाल भी करते हैं।
वास्तव में अमृतसर में श्री दरबार साहिब की लगातार बढ़ रही महानता को देखते हुए अंग्रेज़ों ने पंजाब पर अधिकार कायम करते ही, जल्दबाजी में अमृतसर में ईसाई धर्म से संबंधित एक के बाद एक कई इमारतों का निर्माण करवाया। इस सब की शुरुआत श्री दरबार साहिब की परिक्रमा के बाहरी ओर मौजूद ढाई मंज़िला बुंगा सरकार बनाम बुंगा महाराजा रणजीत सिंह को अमृतसर मिशन स्कूल की क्रिश्चियन मिशनरी की मलकियत घोषित करके की गई। जल्द ही बाद में इस बुंगे में अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर एम.सी. सांडर्स ने पुलिस थाना, छोटी जेल तथा कचहरी कायम करवा दी।
इसके 10 वर्ष बाद ही श्री दरबार साहिब की परिक्रमा में मौजूद शेष सब बुंगों में से आलीशान तथा खूबसूरत इस बुंगे का बड़ा हिस्सा ज़मींदोज़ कर दिया गया। जिसके जल्दी बाद इसके साथ सटे बुंगा कंवर नौनिहाल सिंह तथा बुंगा लाडुवालिया को गिराकर उनकी जगह पर सन् 1863 में गिरजाघर जैसे दिखने वाले एक चबूतरे का निर्माण किया गया, जो 50,000 रूपए की लागत से वर्ष 1874 में मुकम्मल हुआ। बड़ी गिनती में श्रद्धालू इस रेड् टावर की सीढ़ियों से उतर कर बेरी बाबा बुढ़ा साहिब के पिछली ओर से श्री दरबार साहिब की परिक्रमा में पहुंचते थे।
यह स्मारक अंग्रेज़ों के खुराफाती दिमाग की एक ऐसी उपज था जिसके चलते वे न सिर्फ श्री दरबार साहिब में अपनी दखल-अंदाजी बढ़ाना चाहते थे, बल्कि इस स्मारक की मार्फत वे श्री दरबार साहिब के अंदर सिखों की गतिविधियों पर भी नज़र रख रहे थे। यूरोपियन गोथिक कला के नमूने वाले इस चबूतरे का निर्माण ब्रिटिश हुकूमत द्वारा श्री दरबार साहिब की परिक्रमा में बेरी बाबा बुढ़ा साहब के बिल्कुल पीछे एक ऊंचे थड़े पर कराया गया। माना जाता है कि उनकी इस रेड् टावर में एक छोटा सा गिरजाघर शुरू करने की भी योजना थी।
उक्त चबुतरे का डिज़ाईन अमृतसर की म्यूनीसिप्ल कमेटी के डी.पी.डब्ल्यू. (डिपार्टमेंट आॅफ पब्लिक वक्र्स) विभाग के एग्ज़ीक्यूटिव चीफ इंजीनियर जाॅन गार्डन ने किया और इसके निर्माण का सारा कार्य अमृतसर के राजमिस्त्री शर्फदीन से कराया गया। इस 145 फुट ऊँचे टावर पर लाल रंग किया गया होने के कारण पहले-पहल स्थानीय लोग इसे ‘लाल चबुतरा’ अथवा ‘रेड् टावर’ कह कर संबोधित करते थे। बाद में इस पर घड़ी लगी होने के कारण इसको ‘घंटाघर’ तथा ‘चबुतरा घंटाघर’ कहा जाने लगा।
उस समय के दौरान भारत के अलग-अलग शहरों, फाजिल्का, लुधियाना, अमृतसर, मुंबई, हैदराबाद, देहरादून, पिलानी, ऊटी, हुसैनाबाद (लखनऊ), सब्जी मंडी तथा हरी नगर (दिल्ली), अलीगढ़, मिर्जापुर (यूपी) तथा फैसलाबाद (लायलपुर), सियालकोट, मुल्तान, हैदराबाद, सख्खर (सिंध) तथा अन्य शहरों में घंटाघर का निर्माण कराया गया, जहां इसके निर्माण को लेकर कहीं पर भी कोई विरोध ज़ाहिर नहीं किया गया। जबकि अमृतसर के घंटाघर में निर्माण को लेकर अंग्रेज़ों को शहर के हिंदू सिखों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा।
इसका एक ही कारण था कि बाकी शहरों में घंटाघर वहां के चैकों में या वहां की सरकारी इमारतों में निर्मित किए गए थे, जबकि अमृतसर में इसको श्री हरिमंदिर साहिब की परिक्रमा के बिल्कुल साथ बनाने की गुस्ताखी की गई थी। अमृतसरियों के विरोध को नज़र-अंदाज करके भले ही अंग्रेज़ हुकूमत ने घंटाघर का निर्माण जारी रखा, पर वे इसमें गिरजाघर शुरू करने की हिम्मत न जुटा पाए।
घंटा-घर के निचले हाल कमरे की लंबाई चैड़ाई 20 गुना 20 फुट थी। जहां श्री हरिमंदिर साहिब का निर्माण सिख सहज स्वभाव वाली सोच के चलते नीचे स्थान पर किया गया था, उसके उलट ब्रिटिश ने अपनी अकड़ू तथा घमंडी सोच के चलते रेड् टावर का निर्माण भूमि से करीब 10 फीट ऊँचा रखकर किया। पहले-पहल टावर की ऊंचाई कुछ ज्यादा नहीं थी। बाद में जब इसकी मंजिलें बढ़ाई गईं तो इसके चारों ओर पत्थर की घड़ियां लगा दी गईं। इसके पुनः किए गए निर्माण पर करीब 23 हज़ार रूपए की लागत आई। रात को टावर के अंदर रोशनी करने के साथ दूर-दूर तक टाइम का पता चलता रहता था और हर घंटे बाद टल खड़कने की आवाज़ कई मील तक सुनाई देती थी।
सन् 1923-24 में 4 हज़ार रूपए खर्च करके रेड् टावर के प्लेटफार्म तथा तांगा स्टैंड का फर्श पक्का कराया गया, जो कि घंटाघर के पूर्वी दरवाजे के आगे बना हुआ था। श्री दरबार साहिब में दीवाली तथा गुरूपर्वों के अवसर पर की जाने वाली दीपमाला तथा आतिशबाजी का आनंद उठाने के लिए अंग्रेज़ तथा सरमाएदार शहरी इस थड़े पर कुर्सियां लगा कर बैठते थे।
घंटा-घर के इसी बड़े थड़े पर बैठकर लोग छुट्टी वाले दिन अक्सर कबूतरों को दाना डालते तथा बुजुर्ग आराम करते देखे जाते थे। मेलों तथा छुट्टी वाले दिन जहां खाने-पीने की छाबड़ियां तथा कई तरह के करतब तथा तमाशा दिखाने वालों की अच्छी भीड़ लगी रहती थी। इस थड़े के बिल्कुल साथ ही श्री हरमंदिर साहिब के अंदर श्रद्धालुओं द्वारा चढ़ाए जाने वाले कड़ाह प्रसाद को बनाने वाले हलवाईयों की दुकानें होती थीं और पास ही यात्रियों के ठहरने के लिए छोटी-छोटी सरायें बनाई गई थीं।
श्री दरबार साहिब की परिक्रमा में रेड् टावर सहित बाकी बुंगों की मौजूदगी के कारण रास्ता काफी तंग (संकरा) हो गया था। इस समस्या को देखते हुए परिक्रमा चैड़ी करने हेतु बुंगों की पुरानी और खस्ता हो चुकी इमारतों को विधि पूर्वक 29 अक्तूबर 1943 को सुबह 10 बजे घड़ियालिया बुंगे से गिराना शुरू किया गया तथा श्री दरबार साहिब की परिक्रमा में करीब 82 वर्ष तक मखमल में टाट के पाबंद की तरह कायम रहे उक्त रेड् टावर बनाम लाल चबुतरा बनाम घंटाघर को सन् 1945 के अंत में ज़मीनदोज़ कर दिया गया।
घंटा-घर की नई मौजूदा इमारत का नींव पत्थर श्री 108 बाबा गुरमुख सिंह ने सन् 1947 के अंत में रखा। घंटा-घर का अस्तित्व खत्म हुए भले ही आज 75 वर्ष बीत चुके हैं, परंतु इसके बावजूद आज भी इसके सामने वाले बाजार को घंटा-घर बाजार तथा चैराहे को घंटा-घर चैंक कहा जाता है।
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