राजस्थान के हनुमानगढ़ ज़िले में कालीबंगा हड़प्पन सभ्यता का एक महत्वपूर्ण स्थल है। लेकिन क्या आपको मालूम है कि राजस्थान में सौ से भी ज़्यादा ऐसे स्थल हैं जो आहड़ संस्कृति के समय के हैं? इनमें से ज़्यादातर मेवाड़ क्षेत्र में हैं जो दक्षिण-पूर्व राजस्थान में फैला हुआ है और उदयपुर, बांसवाड़ा, भिलवाड़ा और चित्तौड़गढ़ जैसे ज़िलों में हैं। लेकिन सवाल ये है कि इस संस्कृति की क्या विशेषताएं हैं और ये क्यों महत्वपूर्ण है? ये जानने के लिए हम आपको बताने जा रहे हैं राजस्थान की आहड़ संस्कृति के बारे में।
आहड़ संस्कृति भारत के आरंभिक ताम्रपाषाण संस्कृतियों में से एक है। ये संस्कृति राजस्थान में कृषि आधारित थी। ये संस्कृति 3000 ई.पू. से 1900 ई.पू. के बीच हुआ करती थी। विद्वानों का मानना है कि आहड़ मूलत: मेवाड़ क्षेत्र की संस्कृति थी क्योंकि इस क्षेत्र में ही प्रमुख स्थल हैं जिनमें उदयपुर, भीलवाड़ा और चित्तौड़गढ़ सबसे महत्वपूर्ण केंद्र हैं। यहां व्यवसाय संस्कृति से संबंधित क़रीब 111 स्थल हैं जिनमें से ज़्यादातर बनास नदी घाटी में फैले हुए हैं। बनास नदी पूरे राजस्थान में बहती है और पूर्वी राजस्थान में ये चंम्बल नदी की उप-नदी बन जाती है। इस नदी के किनारे ही आहड़ संस्कृति पनपी थी इसलिए इसे बनास संस्कृति भी कहा जाता है। लेकिन आहड़ संस्कृति का नाम आहड़ स्थान पर पड़ा जहां इस संस्कृति की सबसे पहले खोज हुई थी। पुरातात्विक परंपरा के अनुसार किसी भी स्थान का नाम उस जगह पर ही रखा जाता है जहां उसकी खोज हुई हो। इससे उस स्थान की “ख़ास क़िस्म” का पता चलता है।
आहड़ एक छोटा-सा शहर है जो इसी नाम की नदी आहड़ के पश्चिमी तट पर स्थित है। ये आधुनिक उदयपुर शहर से क़रीब तीन कि.मी. के फ़ासले पर है। शुरुआती समय में इसे अतपुर या आगतपुर कहा जाता था। प्राचीन जैन ग्रंथों और 10वीं सदी के सोमेश्वर मंदिर के अभिलेख में आहड़ का उल्लेख मिलता है। लेकिन सन 1950 के शुरुआती वर्षों में इस स्थान ने राजस्थान पुरातत्व में एक नया अध्याय जोड़ा। यहां सन 1952 में राजस्थान के प्रमुख पुरातत्वविद डॉ. आर.सी. अग्रवाल ने एक प्राचीन सभ्यता की खोज की थी। लेकिन यहां, पुरातत्वविद एच.डी. संकालिया और उनकी टीम ने सन 1961-62 में खुदाई करवाई थी।
खुदाई में जो मिला वो पुरातत्वविदों और विद्वानों के लिए बहुत ही दिलचस्पी का विषय रहा है क्योंकि इस खोज से तांबा इस्तेमाल करने वाली सभ्यता और राजस्थान की कृषि-चारागाह संस्कृति के बारे में पता चलता है।
आहड़ संस्कृति तकनीकी रुप से बहुत विकसित थी। खुदाई से पता चलता है कि आहड़ संस्कृति के इस दौर में खेती यहां की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार हुआ करती थी और यहां निर्वाह अर्थव्यवस्था हुआ करती थी। यहां तांबे के औज़ार, तरह तरह के बर्तन और सार्वजनिक भवनों के अवशेष मिले हैं जिससे लगता है कि यहां की संस्कृति बहुत समृद्ध रही होगी।
आहड़ में पुरातत्वविदों को व्यवसाय के दो दौर मिले। पहला दौर आद्धऐतिहासिक है जिसमें लोग तांबे का प्रयोग करते थे। इसे आहड़ अविध प्रथम दौर भी कहा जाता है जो 2580 ई.पू. और 1500 ई.पू. के बीच था। दूसरा ऐतिहासिक दौर है जिसे आहड़ अवधिक द्वितीय कहते हैं और जिसमें लोग घातु का प्रयोग करते थे। ये अवधि 1000 ई.पू. के बाद की है। यहां खुदाई में धातु की कलाकृतियां, काली पॉलिश की हुई वस्तुएं, कुषाण तथा अन्य साम्राज्यों के समय की कलाकृतियां, ब्रह्मी लिपि से अंकित तीन मोहरें और सिक्के मिले थे।
इनके अलावा खुदाई में धान की खेती, पालतू मवेशी, बहुत कम संख्या में पालतू भेड़, बकरी,बैल, सूअर और कुत्तों की अस्थियां भी मिली थी। इसके अलावा जंगली जानवरों की भी अस्थियां मिलीं जिनका शिकार किया गया होगा। सपाट कुल्हाड़ियां, अंगूठियां, चूड़ियां, तार और ट्यूब आदि जैसी तांबे की कलाकृतियां भी मिली थीं। इसके अलावा एक गढ्डा भी मिला जिसमें तांबे की तलछट और राख थी। इससे पता चलता है कि यहां तांबे को पिघलाने का काम होता होगा। आहड़ में जो अन्य चीज़े मिली हैं उनमें टेराकोटा की कलाकृतियां जैसे मनका, चूड़ियां, कान की बालियां, जानवरों की छोटी मूर्तियां, कम क़ीमती मोती के मनके जिनमें एक राजावर्त नग है, पत्थर, शंख और अस्थियों की वस्तुएं शामिल हैं।
बर्तनों में विविधता आहड़ की वस्तु संस्कृति की विशेषता है। यहां बर्तनों की कम से कम आठ क़िस्में मिली हैं। काले और लाल रंग के बर्तन आहड़ संस्कृति की विशिष्टता है। इस पर आर.सी. अग्रवाल का ध्यान गया था। बर्तनों की अन्य क़िस्मों में काले और लाल रंग का बर्तन जिस पर सफ़ेद रंग की पॉलिश है, भूरा बर्तन, आदि शामिल हैं।
सफ़ेद पॉलिश वाले काले-लाल बर्तन आहड़-बनास संस्कृति की विशेषता हैं। इसे उलटी तकनीक के प्रयोग से बनाया गया था। इसे बनाने की प्रक्रिया में बर्तन को कुछ इस तरह उलटा करके रखा जाता था कि वो हिस्सा जिसे हवा नहीं लगती, वो काला हो जाता था जबकि जिस हिस्से को हवा लगती थी वो लाल हो जाता था। बाद में इसे सफ़ेद स्याही से रंगा जाता था और डिज़ाइन से सजाया जाता था।
आहड़ संस्कृति के जिन अन्य महत्वपूर्ण स्थानों की खुदाई की गई थी उनमें गिलुण्ड (राजसमुंद ज़िला), बालाथल (उदयपुर ज़िला) और ओझिना (भीलवाड़ा) शामिल हैं। गिलुण्ड में सन 1950 के बाद के वर्षों और सन 1960 के आरंभिक वर्षों में खुदाई की गई थी। इसके बाद आर.सी. अग्रवाल ने ओझियाना में काम किया और सन 1994 में बालाथल में खुदाई शुरु हुई। फिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने ओझियाना में खुदाई की। दक्कन कॉलेज, पुणे और पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के दल ने गिलुण्ड में खुदाई करवाई। गिलुण्ड में बी.बी. लाल (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पूर्व महानिदेशक) और बालाथल में वी.एन. मिश्रा (दक्कन कॉलेज, पुणे के पूर्व निदेशक) ने खुदाई करवाई। खुदाई में पता चला कि यहां मिट्टी की ईंटों के मकान और पत्थर के कई कमरों वाले घर हुआ करते थे। कुछ घरों में चूल्हे भी मिले।
गिलुण्ड की वास्तुकला के अवशेष ध्यान देने योग्य हैं। यहां एक विशाल सार्वजनिक भवन मिला है। इसकी ऊंची दीवारें उत्कृष्ट मिट्टी की बनी हुई हैं। भवन के अंदर एक धानी है जिसमें कच्ची मिट्टी के सौ से ज़्यादा सांचे भी मिले हैं। अन्य चीज़ों में मिट्टी के भंडार, भट्टियां, जली हुई ईंटें और मिट्टी की ईंटों के बनी चीज़े आदि मिली हैं।
आहड़ की तरह बालाथल में भी पालतू मवेशियों के सबूत मिले हैं। यहां गेहूं, जौ और मसूर के पौधे और अन्य दालों की खेती के भी सबूत मिले हैं। बालाथल तांबे के इस्तेमाल के लिए भी महत्वपूर्ण है। इनमें कुल्हाड़ियां, चाक़ू, रेज़र, छेनियां और तीर के कंटीले तथा चूलदार फल शामिल हैं। बालाथल में मछलियों की हड्डियां भी मिली हैं। इससे पता चलता है कि मछली का शिकार भी आहड़ संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा था। खनिज संपदा के मामले में मेवाड़ क्षेत्र हमेशा से ही समृद्ध रहा है। यहां इंद्रगोप (कार्नेलियन) और राजवर्त (लेपिज़ लेज़्यूली) जैसे उप रत्न मिले हैं। दिलचस्प बात ये है कि यहां के कार्नेलियन मनके गुजरात हड़प्पा के कार्नेलियन मनकों से काफ़ी मिलते जुलते हैं। इससे लगता है कि इन दोनों स्थानों के बीच व्यापार होता होगा। इसके अलावा ऐसा भी लगता है कि लेपिज़ लेज़्यूली अफ़ग़ानिस्तान में बदख़्शां से पूरे हड़प्पा क्षेत्र में आया होगा। बालाथल में सिले हुए कपड़ों के अवशेष भी मिले हैं जिससे पता चलता है कि यहां के लोगों को वस्त्र बनाने की कला आती थी।
ओझियाना में मिली महत्वपूर्ण वस्तुओं में बैल के टेराकोटा की छोटी मूर्तियां हैं। यहां बड़ी संख्या में टेराकोटा के बैल की छोटी मूर्तियां मिली हैं। ये मूर्तियां प्राकृतिक भी हैं स्टाइल वाली भी और ये कई क़िस्मों की भी हैं। इन्हें देखकर लगता है कि ये उपासना की वस्तु होंगी। रंगो से रंगी इन मूर्तियों, जिन्हें ओझियाना बैल कहते हैं, का इस्तेमाल शायद समारोह या फिर धार्मिक अनुष्ठान के दौरान किया जाता होगा। इसके अलावा यहां गाय की टेराकोटा की छोटी मूर्तियां भी मिली हैं।
दक्कन कॉलेज, पुणे की अमृता सरकार, जिन्होंने आहड़ संस्कृति पर शोध किया है, के अनुसार यहां मिले कई कमरों के ढांचे और कई मुंहवाले चूल्हों से लगता है कि यहां परिवार या संयुक्त परिवार रहा करते होंगे।
इन सबसे लगता है कि उस समय यहां मिश्रित अर्थव्यवस्था रही होगी और मिट्टी के बर्तन तथा धातु की चीज़ों के बड़े पैमानेपर उत्पादन से औद्योगिक गतिविधियों का संकेत मिलता है। उस समय मानक उद्योग के भी विकास का संकेत मिलता है।हालंकि आहड़ संस्कृति की आबादी सिंधु सभ्यता की समकालीन थी लेकिन दोनों में कोई ख़ास समानता नहीं है। माना जाताहै कि आहड़ संस्कृति ग्राम आधारित थी जबकि सिंधु सभ्यता शहरी थी। लेकिन आहड़ संस्कृति ने भी बाद में भारतीय सभ्यता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। आशा की जा सकती है कि आहड़ संस्कृति के कई स्थानों पर और खुदाई से हमें राजस्थान के अतीत को और बेहतर समझने में मदद मिलेगी।
मुख्य चित्र: बालाथल में खुदाई, कुरुष दलाल
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