शायरों ने इसे रुमानी बना दिया है, भिक्षुओं ने इसके रंग से रंगे वस्त्र पहने हैं, ये बादशाहों के ख़्वाबों में बसा है और संतों ने इसकी अराधना की है। ज़ाफ़रान के साथ कई कहानियां जुड़ी हुई हैं। एक कथा के अनुसार मुग़ल बादशाह अकबर को ज़ाफ़रान की ख़ुशबू इतनी पसंद थी कि उनके महलों के ग़ुसलख़ानों, ख़ासकर राजस्थान के महलों के ग़ुसलख़ानों की खिड़कियों के सामने ज़ाफ़रान के खेत हुआ करते थे ताकि वहां से ज़ाफ़रान की ख़ुशबू खिड़की से अंदर आए और पूरे माहौल को महका दे।
ज़ाफ़रान हमारे खाने का हिस्सा है और भारत में ख़ासतैर पर तीज, त्यौहारों तथा समारोह के दौरान इससे खाने की चीज़ों को सजाया जाता है। ज़ाफ़रान की कहानी दिलचस्प है और इसका व्यापक रुप से इस्तेमाल होता है। अलग अलग संस्कृतियों और भाषाओं में ज़ाफ़रान के अलग अलग नाम है लेकिन यह होता एक ही तरह का है।। फ़्रैंच और जर्मन भाषा में इसे साफ़रान, ग्रीक में साफ़रानी या ज़ाफ़ोरा हिंदी में केसर या ज़ाफ़रान, स्पेनिश में अज़ाफ़रान, फ़ारसी में ज़ा’आफ़ारान या ज़अफ़ारान और उर्दू में ज़ाफ़रान या कीसर कहते हैं। सैफ़्रोन शब्द अरबी के शब्द अज़-ज़ा’फ़्रान से बना है जिसका मतलब होता है ऐसी चीज़ जो पीला रंग की तरफ़ जाती हो।
ऐतिहासिक सबूतों के अनुसार ज़ाफ़रान का इस्तेमाल ढाई हज़ार साल से भी पहले भी होता था। इसका इस्तेमाल पारसी भोजन, रोज़मर्रा की चीज़ों, कपड़ों की रंगाई, दवाओं और परफ़्यूम बनाने में होता था। ज़ाफ़रान कश्मीर कैसे पहुंचा और इसे वहां कौन ले गया, ये बहस का विषय है। .
ब्रितानी इतिहासकार एंड्रु डेल्बी अपनी किताब “डैंजरस टेस्ट्स : द स्टोरी ऑफ़ स्पाइसेज़” में का कहना है कि शायद पारसी(ईरानी) 5वीं शताब्दी (ई.पू.) में पहली बार ज़ाफ़रान कश्मीर लाए थे। इनका ये भी कहना है कि वान झेन नाम के चीनी वनस्पति विशेषज्ञ ने भी तीसरी शताब्दी में अपनी किताब में कश्मीर में ज़ाफ़रान की मौजूदगी का उल्लेख किया है।
“कश्मीर ज़ाफ़रान की उत्पत्ति का घर है, जहां इसकी खेती मूलत: बुद्ध को चढ़ावा चढ़ाने के लिये की जाती है। ज़ाफ़रान के पौधे के फूल कुछ दिन में मुरझा जाते हैं और फिर इसमें से ज़ाफ़रान निकाला जाता है। इसके एक समान पीले रंग की वजह से ही इसकी अहमियत है।“
वान झेन ने ये भी लिखा कि भारत में बुद्ध के समय भिक्षु जो कपड़े पहनते थे उन्हें वनस्पितियों, हल्दी तथा ज़ाफ़रान के रंगों से रंगा जाता था। रंगाई के बाद इनका रंग पीला या फिर केसरिया हो जाता था। समय के साथ पीला या केसरिया रंग बौद्ध तथा हिंदू सन्यासियों के परिधान का अभिन्न अंग बन गया।
कश्मीरी ज़ाफ़रान का उल्लेख 7वीं शताब्दी में कन्नौज के राजा हर्षवर्धन (590-647) द्वारा संस्कृत में लिखे नाटक “रत्नावली” में मिलता है। उन्होंने इस नाटक में कश्मीरा देश के ज़ाफ़रान का उल्लेख करते हुए लिखा कि रंग और ख़ुशबू के मामले में ये सबसे अच्छा था। कश्मीरी विद्वान और इतिहासकार कल्हण ने कश्मीर के राजनीतिक इतिहास पर अपनी किताब “ रजतरागिनी” में लिखा है कि सन 725 में भी कश्मीरी में ज़ाफ़रान की खेती होती थी।
बहरहाल, स्थानीय पौराणिक कथाओं और लोक साहित्य के अनुसार ज़ाफ़रान कश्मीर कैसे पहुंचा, इसे लेकर अलग अलग बातें कही जाती हैं। कश्मीरियों में अमूमन माना जाता है कि दो सूफ़ी संत ख़्वाजा मसूद वली और शेख़ शरीफ़उद्दीन वली की वजह से ,12वीं या 13वीं शताब्दी में ज़ाफ़रान कश्मीर आई थी। ऐसा विश्वास किया जाता है कि कश्मीर में यात्रा के दौरान दोनों सूफ़ी संत बीमार पड़ गए और एक स्थानीय कबायली सरदार ने उनका इलाजकर उन्हें ठीक कर दिया। उसका आभार मानने के लिये संतों ने उसे केसर के पौधे की एक गांठ दी और इस तरह से कश्मीर घाटी में केसर की खेती शुरु हुई। पम्पोर में दोनों सूफ़ी संतों की याद में सोने के गुंबद वाली एक दरगाह और एक संयुक्त गुंबद है। आज भी केसर की खेती करने वाले किसान दोनों संतों की, दरगाह की ज़ियारत करते हैं।
एक अन्य लोक कथा में दावा किया जाता है कि स्थानीय संत शूक़ बाब साहब ख़ुशबूदार ज़ाफ़रान कश्मीर लाए थे और उन्होंने ज़मीन को (ख़ासकर पम्पोर की ज़मीन) को उपजाऊ बनाने की दुआ भी की थी।
सच्चाई भले ही कुछ भी हो लेकिन ज़ाफ़रान बहुत लोकप्रिय है और ख़ासतौर पर कश्मीरी ज़ाफ़रान विश्व में सबसे बेहतर और सबसे क़ीमती है। श्रीनगर से 15 कि.मी. दूर ऐतिहासिक शहर पम्पोर को कश्मीर का ज़ाफ़रान शहर कहा जाता है। श्रू और शार गांवों तथा बडनाग में और श्रीनगर और अनंतनाग के कुछ इलाक़ों में भी केसर की खेती होती है लेकिन बहुत सीमित। लेकिन पम्पोर में जो रेशमी रेशे पैदा होते हैं वो सबसे मशहूर और महंगे होते हैं और इन्हें सोने से भी ज़्यादा क़ीमती माना जाता है। एक किलो ज़ाफ़रान बनाने के लिये डेढ़ लाख से भी ज़्यादा फूलों को मसलना पड़ता है। इसीलिये ये सुनहरे रेशे बहुत महंगे होते हैं। एक किलो कश्मीरी ज़ाफ़रान की क़ीमत एक लाख से एक लाख बीस हज़ार रुपये तक होती है। ये क़ीमत ढ़ाई लाख तक भी पहुंच सकती है।
कश्मीर में करेवा की ज़मीनों को केसर की खेती के लिये सबसे उत्तम माना जाता है। यहीं से कश्मीर की महान झील का उद्गम हुआ था।
ज़ाफ़रान कैसे बनाया जाता है।
ज़ाफ़रान को स्थानीय भाषा में कोंग कहते हैं। ज़ाफ़रान के पौधे के फूलों से ज़ाफ़रान निकाला जाता है जिसे क्रोकस सतीवस कहते हैं। केसर के पौधे के प्रत्येक फूल में तीन वर्तिकाग्र (stigma) होते हैं जो स्त्री अंग हैं। फूल में दो पराग केसर होते हैं जो परुष अंग( पुंकेसर) हैं। इसके अलावा एक लंबी सफ़ेद डंडी होती है। वर्तिकाग्र से मसाला बनाया जाता है। वर्तिकाग्र को बहुत सावधानी से हाथ से तोड़कर सुखाया जाता है। वर्तिकाग्र से बेहतरीन क्वालिटी का केसर बनता है। पराग से भी केसर बनता है। केसर का पौधा अमूमन शरद ऋतु में अगस्त और मध्य सितंबर के माह बोया जाता है। अक्टूबर और नवंबर के महीने में इसके फूलों को तोड़ा जाता है। कटाई के बाद इन फूलों को पांच दिन तक सूखने के लिये रख दिया जाता है। इसके बाद इन्हें हवादार पात्रों में रखा जाता है ताकि इनका टैक्चर और क्वालिटी बनी रहे। कुछ ग्राम केसर बनाने के लिये हज़ारों फूलों की ज़रुरत पड़ती है जो अपने आप में बहुत मेहनत का काम होता है।
भारत में इसकी तीन क़िस्में होती हैं-केसर लच्छा, केसर मोंगरा और केसर ज़र्दा। केसर लच्छा और केसर मोगंरा बहुत मुश्किल से मिलता है।
विश्व में केसर का कुल उत्पादन जितना होता है उसका क़रीब 90% प्रतिशत केसर ईरान में पैदा होता है। ईरान का ज़्यादातर केसर निर्यात हो जाता है। इसके बावजूद ईरानी केसर की क़ीमत कश्मीरी केसर से लगभग आधी के बराबर होती है। इसकी वजह कश्मीर घाटी की कृषि जलवायु है जिसकी वजह से वहां केसर की अच्छी क़िस्म पैदा होती है। कश्मीर की जलवायु की वजह से यहां के केसर का रंग मेरून(गहरा कत्थई) होता है। रंग जितना गहरा होगा, केसर की क्वालिटी उतनी ही अच्छी होगी। कश्मीरी केसर में क्रोसिन के अंश भी होते हैं।
कश्मीर से ज़ाफ़रान बहुत गहरा जुड़ाव है। घाटी में न सिर्फ विश्व के बेहतरीन ज़ाफ़रान की पैदावार होती है बल्कि यहां के हर भोजन में आपको ज़ाफ़रान मिलेगा। कश्मीरी कहवा से लेकर पुलाव, मिठाई, रोगन जोश और यख़नी में ज़ाफ़रान डाला जाता है। कहा जा सकता है कि कश्मीरी भोजन में ज़ाफ़रान एक अनिवार्य तत्व होता है। तभी तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि पीरज़ादा ग़ुलाम अहमद और आग़ा शाहिद अली जैसे प्रसिद्ध कश्मीरी शायरों ने, कश्मीर की ख़ूबसूरती का बयान करने के लिए नाज़ुक मसाला यानी ज़ाफ़रान की, कल्पना की है।
लेकिन कई और चीज़ों की तरह कश्मीर के ज़ाफ़रान पर भी ख़तरे के बादल मंडरा रहे हैं। कुसुम, घोड़े के बाल और यहां तक कि भुट्टे के बालों से बने नक़ली और घटिया केसर को असली केसर बताकर बेचा जा रहा है। इसके अलावा ईरान से भी केसर की तस्करी होती है जहां केसर का सबसे ज़्यादा उत्पादन होता है। इससे कश्मीर के किसान बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। हालंकि राज्य और केंद्र सरकार ने मदद के वादे किए थे लेकिन कुछ ख़ास नहीं हो पाया। ज़ाफ़रान का उत्पादन बढ़ाने के लिये धन और बुनियादी सुविधाओं दोनों की ज़रुरत होती है।
हालात को देखते हुए कई लोगों का मानना है कि कशमीरी ज़ाफ़रान का भविष्य अनिश्चित है। ये दुख की बात है क्योंकि ये सुनहरा मसाला न सिर्फ़ कश्मीर की ख़ूबसूरती, शान और गौरव का प्रतीक है बल्कि ये हमें याद दिलाता है कि कैसे कश्मीर हमारे इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है।
लेखक परिचय- पूर्वा देसाई लेखक हैं और पूर्व पत्रकार भी हैं। उन्हें डिजिटल मीडिया का, दस साल से ज़्यादा का अनुभव है। वह स्टार इंडिया और टाइम्स ऑफ़ इंडिया जैसे बड़े संस्थानों में काम कर चुकी हैं।
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