लखनऊ के क़ैसरबाग़ के क्षितिज पर चमकते जुड़वां मक़बरे

लखनऊ के क़ैसरबाग़ के क्षितिज पर चमकते जुड़वां मक़बरे

लखनऊ शहर के बीचों-बीच क़ैसरबाग़ में बेग़म हज़रत महलपार्क के पास दो मीनारें हैं, लेकिन ये कोई आधुनिक गगनचुंबी मीनारें नहीं हैं। ये दो मीनारें दरअसल 19वीं सदी के मक़बरे हैं, जिनके आसपास एक हरा-भरा पार्क है। ये मक़बरे नवाब सआदत अली ख़ान-द्वितीय और उनकी प्रिय बेगम ख़ुर्शीद ज़ादी के हैं।

यहां आने वाले सैलानियों को सिर्फ़ बड़ा इमामबाड़ा और रुमी दरवाज़ा जैसे मशहूर स्मारक देखने के बाद ही थमने का इशारा मिल जाता है और वह चंद मशहूर स्मारक देखने के बाद वापस चले जाते हैं। उन्हें इन मक़बरों के बारे में कुछ पता ही नहीं होता। जबकि कुछ लोगों का कहना हैं, कि ये मक़बरे भव्य असफ़ी इमामबाड़े से भी ज़्यादा कलात्मक हैं।

सआदत अली ख़ान (शासनकाल 1798-1814) अवध के छठे नवाब थे और वह नवाब असफ़उद्दौला के सौतेले भाई थे, जिन्होंने सन 1775 में फ़ैज़ाबाद के बजाय लखनऊ को अपनी राजधानी बना लिया था। असफउद्दौला ने जहां शानदार सड़कें, महल और बाग़-बग़ीचे बनवाकर शहर का विकास किया, वहीं सआदत अली ख़ान ने भी इस परंपरा को जारी रखा और लखनऊ में कई भव्य स्मारक बनवाए।

सआदत अली ख़ान

नवाब वज़ीर अली शाह का शासन महज़ चार महीने ही चला। उन्हें अंग्रेज़ विरोधी गतिविधियों के इल्ज़ाम में सत्ता से बेदख़ल कर दिया गया । फिर नवाब वज़ीर अली शाह को गिरफ़्तार कर, नवाब सआदत अली ख़ान को बनारस से बुलवाया था और अंग्रेज़ों ने उन्हें अवध का अगला नवाब बना दिया था। नवाब सआदत अली ख़ां इसके बदले में आधी अवध रियासत अंग्रेज़ों को देने के लिए ख़ुशी-ख़ुशी राज़ी हो गए थे।

सआदत अली ख़ान को एक सक्षम प्रशासक के रुप में जाना जाता था, जिन्होंने भव्य स्मारक बनाने के अलावा अवध के शाही ख़ज़ाने का भी सही तरीक़े से प्रबंध किया। यहां तक कि उन्होंने अपने जीवनकाल में अवध रियासत के सभी कर्ज़ भी अदा कर दिए थे और रियासत में ख़ूबसूरत स्मारकों की विरासत भी छोड़ी।

सआदत अली ख़ान की मृत्यु जुलाई सन 1814 में हो गई थी । तब उनकी उम्र 60 साल की थी । उन्हें उनके सबसे बड़े बेटे ग़ाज़ीउद्दीन हैदर के ख़ास-बाज़ार के घर में दफ़्न किया गया था, जिसे अब क़ैसरबाग़ नाम से जाना जाता है। उस समय ख़ास-बाज़ार वो बाज़ार था जहां संभ्रांत और अमीर लोग ख़रीदारी करते थे और इसे वज़ीरों, अभिजात वर्ग और विदेशी मेहमानों का पसंदीदा बाज़ार माना जाता था। दिलचस्प बात ये है, कि ग़ाज़ीउद्दीन हैदर ने अपना ख़ुद का घर ढ़हाकर सआदत अलीख़ान का मक़बरा बनवाया। इस तरह उन्होंने अपने पिता को एक क़ीमती तोहफ़ा दिया।

ग़ाज़ीउद्दीन हैदर ने तब ऐलान किया था, कि चूंकि वह अपने पिता के उत्तराधिकारी हैं और उन्होंने अपने पिता की जगह ली है, इसलिए उनके पिता को उनकी जगह मिलनी चाहिए और उसी जगह पर उनका मक़बरा होना चाहिए, जहां वो कभी रहा करते थे। इसके बाद ग़ाज़ीउद्दीन हैदर छत्तर मंजिल महल चले गए, जहां उनके पिता नवाब सआदत अली ख़ानउनकी रहते थे और वह वहीं से अपना शासन चलाते थे।

छत्तर मंज़िल महल से कुछ ही दूरी पर स्थित, सआदत अली ख़ान का मक़बरा उनकी बेगम ख़ुर्शीद ज़ादी के मक़बरे से बड़ा है, जो वहां से ज़्यादा दूर नहीं है। ख़ुर्शीद ज़ादी का निधन उनके पति के शासनकाल में ही हो गया था और उनके मक़बरे का निर्माण-कार्य सआदत अली के जीवनकाल में ही शुरु हो गया था, लेकिन ये निर्माण-कार्य उनके बेटे ग़ाज़ीउद्दीन हैदर ने पूरा करवाया। जो उनके पति नवाब सआदत अली की मृत्यु के दस साल बाद सन 1824 में पूरा हुआ।

दोनों मक़बरे नवाबी दौर की वास्तुकला के बेहतरीन नमूने हैं और इंडो-इस्लामिक शैली में बने हुए हैं, जो अवध के शासकों की पसंदीदा शैली थी । सआदत ख़ान के मक़बरे के फ़र्श पर काले और सफ़ेद रंग के चौकोर संगमरमर लगे हुए हैं। देश के इस हिस्से में जहां संगमरमर कम ही मिलता है, इसीलिए स्मारक का ख़ूबसूरत फ़र्श अनूठा लगता है।

सआदत अली का मक़बरा | लेखक

अग्रभाग की दीवारों पर उत्कृष्ट अस्तरकारी का काम है, जिसे आज भी देखा जा सकता है। चारों तरफ़ सभागार में आयताकार बरामदे हैं, जिनके मेहराबदार दरवाज़े बाहर की तरफ़ खुलते हैं। हर तरफ़ कुल पांच प्रवेश द्वार हैं और दोनों मक़बरों के चार कोनों पर कंगूरे बने हुए हैं, जिनके साथ सीढ़ियां हैं।

मक़बरे के ऊपर एक धारीदार संकरा अर्धगोलाकार गुंबद है। गुंबद के ऊपर एक बड़ा गुलदस्ता बना हुआ है, जिस पर सोने का पानी चढ़ा हुआ है। स्मारक के दक्षिणी और पूर्वी तरफ़ नवाब की बेटियों और तीन पत्नियों की क़ब्रें हैं।

सआदत अली ख़ान मक़बरे का गुम्बद  | लेखक

ख़ुर्शीद ज़ादी का मक़बरा इन जुडवां मक़बरों के दक्षिण-पूर्व दिशा की तरफ़ है। हालंकि इसका गुंबद सआदत अली ख़ान के मक़बरे की तरह बड़ा नहीं है, लेकिन सजावट के मामले मे ये उतना ही भव्य और शानदार है। बेगम और उनके बेटे की क़ब्रें भू-तल में हैं।

ख़ुर्शीद ज़ादी का मक़बरा | लेखक

जब सन 1857 का विद्रोह हुआ तब भारतीय विद्रोहियों ने मक़बरों की घेराबंदी कर दी थी और मक़बरे की छतों तक तोपें ले जाकर तैनात कर दी गईं थीं। 16 मार्च सन 1858 को मक़बरे से हुई गोलाबारी में सर हेनरी हेवल़ॉक के 16 सैनिक मारे गए थे। ये सैनिक रेडेंसी की तरफ़ बढ़ रहे थे। इन सैनिकों को, दोनों मक़बरों के बीच की ज़मीन में दफ़्न कर दिया गया था।

ख़ुर्शीद ज़ादी का मक़बरा, दरोगा अब्बास अली, 1874  | ब्रिटिश लाइब्रेरी

ये मक़बरे शहर के बीचों-बीच में स्थित हैं । इन्हें हज़रतगंज की तरफ़ से क़ैसरबाग़ में दाख़िल होते हुए, मुख्य सड़क से देखा जा सकता है। दोनों मक़बरे अच्छी हालत में हैं, हालांकि कुछ मरम्मत का काम होने से ये और भी ख़ूबसूरत दिखाई दे सकते हैं। लेकिन फिर भी दिन के समय में लोग यहां आ सकते हैं। क्योंकि ये दोनों मक़बरे अवध के सुनहरे काल के शानदार उदाहरण हैं।

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