पत्थरगढ़ क़िला: रोहिल्ला का सत्ता केंद्र

पत्थरगढ़ क़िला: रोहिल्ला का सत्ता केंद्र

किसी समय ये उत्तर भारत में शक्तिशाली साम्राज्यों में एक, रोहिला वंश, का सत्ता केंद्र हुआ करता था, जो 18वीं सदी में रोहिलखंड क्षेत्र पर शासन करता था, जिसे आज उत्तर प्रदेश के नाम से जाना जाता है। उत्तर प्रदेश के नजीबाबाद में स्थित पत्थरगढ़ क़िला हालांकि आज वीरान है, लेकिन किसी समय ये कुख्यात रोहिला योद्धा नजीब ख़ान का सत्ता केंद्र हुआ करता था। नजीब ख़ान की सन 1761 में, पानीपत की तीसरी लड़ाई, से पहले की घटनाओं में महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। बाद में वही घटनाएं इस लड़ाई का कारण बनीं।

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से क़रीब 200 कि.मी. दूर उत्तर प्रदेश के बिजनौर ज़िले में नजीबाबाद शहर के बाहरी क्षेत्र में, पत्थरगढ़ क़िले के अवशेष आज भी मौजूद हैं। नजीबाबाद कभी रोहिला साम्राज्य की छावनी हुआ करती थी।

18वीं सदी के प्रारंभ में अफ़ग़ान ग़ुलाम दाऊद ख़ां अपने मालिक के चंगुल से छूटकर भाग गया था। वह हिंद कुश को पारकर ऊपरी दोआबा (दो नदियों के बीच के) क्षेत्र में पहुंचा। वह पख़्तून वंश, मौजूदा समय में ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह (पाकिस्तान), का था। दाऊद ख़ां सन 1705 में कटिहार क्षेत्र(मौजूदा समय में उत्तर प्रदेश) में बसने के बाद भाड़े का सैनिक बन गया। सन 1720 में निधन के पहले दाऊद ने स्थानीय सरदारों और भूमिहारों की उनके युद्ध में मदद की थी।

सन 1707 में औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद जब मुग़ल साम्राज्य का पतन हो रहा था, तब दाऊद के उत्तराधिकारी अली मोहम्मद ख़ां (1714-1748) ने रोहिला पश्तूनों का एक संघ बनाया। रोहिला पश्तून, पश्तो भाषा बोलने वाला एक अलग ख़ानदान होता था, जो इस क्षेत्र में आकर बस गया था। इसकी वजह से ही रोहिलखंड बना था। अली मोहम्मद ख़ां ने आंवला (बरेली) को अपनी राजधानी बनाया और रोहिलखंड की सीमाओं का विस्तार किया, जिसमें तराई वाले मैदान तथा गढ़वाल और कुमांयू क्षेत्र के कुछ हिस्से आते थे।

एक युवा अफ़ग़ान नजीब ख़ां था जो सन 1740 के आरंभिक दशकों में ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह से आया था और युद्ध में माहिर था। उसकी शादी अली के सिपहसालार डुंडे ख़ान की बेटी के साथ कर दी गई और दहेज़ में उसे जलालाबाद परगना मिल गया। 15 सितंबर सन 1748 को अली की मृत्यु के बाद अफ़ग़ान नेताओं में रोहिलखंड का बंटवारा हुआ और हाफ़िज़ रहमत ख़ां (1707-1774) उनका सरदार बन गया। नजीब ख़ां बहुत महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। उसने सन 1753 में अपने सरदार हाफ़िज़ रहमत ख़ां से नाता तोड़ लिया। नजीब ने अपना अधिकार-क्षेत्र गंगा के पार बिजनौर और सहारनपुर तक फैला लिया। उसने नजीबाबाद नाम का शहर बसाया और दो साल के भीतर सन 1755 में वहां एक क़िला बनाया जिसे पत्थरगढ़ क़िले के नाम से जाना जाता है।

नजीबाबाद | ब्रिटिश लाइब्रेरी

जल्द ही नजीबाबाद और पत्थरगढ़ क़िला व्यापार तथा वाणिज्य के महत्वपूर्ण केंद्र बन गए और रोहिला का सीमावर्ती पहाड़ों पर पूर्वी-पश्चिमी व्यापार मार्ग से लगे गढ़वाल, कुमांयू और तिब्बत से लेकर कश्मीर और पेशावर तक व्यापार पर नियंत्रण हो गया।

सन 1757 में, अफ़ग़ान हमलावर अहमद शाह अब्दाली के तीसरे हमले के बाद मुग़ल दरबार में नजीब की धाक जम गई थी, क्योंकि वह ख़ुद भी अफ़ग़ान था। नजीब को “मीर बख़्शी”की पदवी तथा सहारनपुर की सूबेदारी भी मिल गई। नजीब की बढ़ती शक्ति से मुग़ल दरबार के कई अमीर चौकन्ने हो गए और नजीब के विरोधियों ने अफ़ग़ानों की बढ़ती ताक़त पर नियंत्रण के लिए मराठों को दिल्ली बुलवाया।

पत्थरगढ़ क़िले के अवशेष

इसके बाद नजीब ख़ां और मराठों के बीच सालों तक युद्ध का सिलसिला चला। इसी दौरान सन 1761 में अहमद शाह अब्दाली और मराठों की सेनाओं के बीच पानीपत का तीसरा युद्ध हुआ। मराठा सेना का नेतृत्व सदाशिव राव भाऊ कर रहे थे। इस जंग में मराठा बुरी तरह हार गए थे। नतीजे में ज़बरदस्त क़त्ल-ए-आम हुआ। युद्ध से पहले की घटनाओं में नजीब ख़ां ने बहुत छल-कपट किया था और उसने जनकोजी सिंधिया सहित कई मराठा सेनापतियों की हत्या में प्रमुख भूमिका निभाई थी। नजीब ने पानीपत में मराठों ख़ेमें से खूब धन लूटा जिसे उसने पत्थरगढ़ क़िले में रख दिया था। पानीपत नरसंहार से जो मराठा बचकर निकले उनमें जनकोजी का भाई महदजी सिंधिया भी था, जिसने रोहिलाओं से बदला लेने की सौगंध खाई थी।

महदजी सिंधिया

सन 1770 में नजीब की मृत्यु के बाद ज़बीता ख़ां ने रोहिला रियासत की बागडोर संभाली, लेकिन उसके सामने महदजी सिंधिया एक बड़ी चुनौती थे, जो इस दौरान फ्रांसिसियों द्वारा प्रशिक्षित सैनिकों की वजह से भारत में सबसे शक्तिशाली सैनिक कमांडर के रुप में उभर चुके थे। उस दौरान तत्कालीन मुग़ल बादशाह शाह आलम द्वितीय इलाहबाद (आज प्रयागराज) में थे, जिन्होंने अंग्रेजों को बिहार, बंगाल और ओड़िसा की दीवानी दी थी। फिर महदजी बादशाह को  वापस दिल्ली ले जाने के बाद और उनको गद्दी पर बिठाकर, 16 मार्च सन 1772 को अपनीं मराठा और बादशाह की सेना के साथ नजीबाबाद पर हमला कर कब्ज़ा किया। वो रोहिलाओं से बदला लेने पर अमादा था।

रोहिला कैवलरी | विकिमीडिआ कॉमन्स

हमले के दौरान नजीबाबाद और पत्थरगढ़ क़िले में ख़ूब लूटपाट की गई और नजीब ख़ां के मक़बरे को नष्ट कर दिया गया। क़ब्र खोद कर नजीब ख़ां की हड्डियां निकाली गईं और उन्हें मैदानों में बिखेर दिया गया। और इस तरह महदजी का बदला पूरा हो गया।

रोहिलाओं की मुसीबतें और बढ़ गईं थीं। ज़बीता ख़ां ने मराठों के ख़िलाफ़ मदद की एवज़ में अवध के नवाब शूजाउद्दौला से बहुत बड़ी रक़म देने का वादा किया था, लेकिन बाद में वह अपने वादे से मुकर गया। अवध के नवाब ने इस बारे में वॉरन हैस्टिंग से शिकायत की जिसकी वजह से रोहिला और ब्रिटिश ईस्ट कंपनी के बीच सन 1773-74 में युद्ध हुआ जिसे “प्रथम रोहिला युद्ध” कहा जाता है। अंग्रेज और अवध की सेनाओं ने नजीबाबाद सहित रोहिलखंड के अधिकतर हिस्सों पर कब्ज़ा कर लिया औऱ ख़ूब लूटपाट की।

नजीबाबाद का एक दृश्य | ब्रिटिश लाइब्रेरी

अंग्रेज़ो ने पत्थरगढ़ क़िला अवध के नवाब को दे दिया और ज़बीता ख़ान को अंग्रेज़ों ने बंदी बना लिया। उसकी मौत के बाद, उसके बेटे गुलाम कादिर को मीर बख्शी बनाया तो गया, मगर शाह आलम द्वितीय और उसके मंत्रियों के साथ रंजिशों के चलते, गुलाम ने सन 1788 में बादशाह को ना सिर्फ अँधा किया, बल्कि पूरे लाल किले में तबाही और बदसलूकी का आलम भी कायम रखा। जब महदजी को इस बारे में पता चला, तब उन्होंने दिल्ली की ओर कूच किया। गुलाम को गिरफ्तार करके, बादशाह के हुक्म की तामील करते हुए, उसको अमानवीय यातनाएं दी गईं और 3 मार्च सन 1789 को मथुरा में फांसी पर लटकाकर मरवा दिया।

इस बीच अवध का क़र्ज़ बढ़ता गया, क्योंकि अवध का नया नवाब सआदत अली ख़ां- द्वितीय कंपनी का कर्ज़ चुकाने में असमर्थ हो गया था। नतीजतन, उसे 10 नवंबर 1801 को रोहिलखंड और दोआबा क्षेत्र अंग्रेज़ों को देने पड़े। अंग्रेज़ों ने पत्थरगढ़ क़िले में अपनी सैन्य छावनी बना ली।

सन 1857 के विद्रोह के दौरान ज़बीता ख़ां के पोते मेहमूद ख़ां ने कुछ ज़मींदारों, विद्रोहियों और बिजनौर जेल के क़ैदियों के साथ मिलकर 13 मई सन 1857 को अंग्रेज़ों से लड़ाई की। उन्होंने पत्थरगढ़ क़िले और वहां रखे, अंग्रेज़ों के हथियारों पर कब्ज़ा कर लिया। अप्रैल सन 1858 में जब अंग्रेज़ अपने क्षेत्रों पर दोबारा कब्ज़ा करने के लिए वापस आए, तो भारतीय सैनिकों ने क़िला छोड़ दिया। तब तक दिल्ली पर अंग्रेज़ों का कब्ज़ा हो चुका था। युद्ध समाप्त होने तक पत्थरगढ़ क़िला अंग्रेज़ों का तोपख़ाना बना रहा। सन 1858 में पूरे भारत पर अंग्रेज़ों के कब्ज़े के बाद क़िला को बर्बाद होने के लिए छोड़ दिया गया।

पत्थरगढ़ क़िला

अपने गौरवशाली अतीत और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की देखरेख के बावजूद पत्थरगढ़ क़िले के अवशेषों बदहाली का शिकार हैं। इस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। क़िले के पास आज भी नजीब खान की ख़ाली क़ब्र देखी जा सकती है जो शायद हमें क़िले के अतीत के बारे में बहुत कुछ बताती है।

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