राजस्थान एक ऐसा राज्य है, जिसके शहरों को रंगों के नाम से पहचाना जाता है। वहां एक शहर गुलाबी, तो दूसरा नीला है। जयपुर पिंक सीटी के नाम से मशहूर है, तो जोधपुर को ब्लू सिटी के नाम से जाना जाता है। जोधपुर अपने शाही अंदाज़ के लिए मशहूर है, जिसे इसके महलों और उनसे जुड़ी कहानियों में अनुभव किया जा सकता है। लेकिन क्या आप जानते हैं, कि नीले आसमान को छूने का,जोधपुर का गौरवशाली इतिहास भी रहा है?
महाराजा उम्मेद सिंह ने सन 1931 में जोधपुर फ़्लाइंग क्लब की शुरूआत की थी, जिसे भारत में विमानन के क्षेत्र में किये गये पहले प्रयासों में से एक माना जाता है। जोधपुर फ़्लाइंग क्लब की वजह से, न केवल जोधपुर के आसमान में उड़ान भरने का मार्ग खुला, बल्कि इसने अंतरराष्ट्रीय हवाई उड़ानों को भारत लाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । इस क्लब ने द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) और यहां तक कि, भारतीय वायु सेना के पायलटों की ट्रैनिंग में भी महत्वपूर्ण योगदान किया !
उमैद सिंह का जन्म आठ जुलाई 1903 में हुआ था । ये वही वर्ष था, जब विमानन के इतिहास में पहली सफल उड़ान भरी गई थी। उमैद सिंह अपने बड़े भाई सुमैर सिंह के बाद सन 1918 में मारवाड़ रियासत के 37वें शासक बने थे। उन्होंने सेना, न्याय और शिक्षा के क्षेत्र में कई सुधार किये। उन्हें बचपन से ही विमान उड़ाने का शौक़ था, और वह पत्रिकाओं तथा अख़बारों के ज़रिये विमानन के क्षेत्र की ताज़ा जानकारियां हासिल करते रहते थे। उनका सपना था, कि वह भी एक दिन विमानन के क्षेत्र का हिस्सा बनें।
प्रथम विश्व युद्ध (1914-1919) में विमानों का इस्तेमाल किया गया था। युद्ध समाप्त होने के बाद सन 1924 में यूनाइटेड स्टेट्स आर्मी एयर सर्विस के डगलस बाइप्लेन ने दुनिया की पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाया था। उमैद सिंह इन घटनाओं पर नज़र रखे हुये थे, और विमानन की क्षमता को आंक रहे थे। उसी के बाद, उन्होंने अपनी रियासत में विमानन सेवा शुरु करने का फ़ैसला किया। ये वो समय था, जब रियासत में भयंकर सूखा पड़ा था, और रोज़गार की सख़्त ज़रूरत थी। बहुत कम लोग जानते हैं, कि सन 1928 में, हवाई अड्डे के साथ-साथ उमैद भवन पैलेस के निर्माण से ही जोधपुर के निवासियों को रोज़गार के मौक़े मिले थे।
जोधपुर में हवाई अड्डा बनाने की उमैद सिंह की योजना सन 1924 के अंत में साकार होने लगी थी, और इस काम में सुप्रिंटेंडेंट इंजीनियर और जोधपुर रियासत के लोक निर्माण मंत्री एस.जी. एडगर ने मदद की। ख़ास बात यह रही कि, पटियाला के महाराजा भूपिंदर सिंह ने सन 1910 में निजी विमान खरीद लिया था और वह भारत में निजी विमान रखने वाले पहले व्यक्ति बन गये थे। महाराजा भूपिंदर सिंह ने उड़ान की बुनियादी बातें और तकनीक को समझने में उमैद सिंह की मदद की । सन 1920 के दशक के अंत में जोधपुर और उत्तरलई (अब बाड़मेर ज़िले में) के आसपास हवाई अड्डा बनाने का काम शुरू हो गया। तब तक उमैद को दिल्ली फ्लाइंग क्लब से निजी विमान रखने की आधिकारिक अनुमति भी मिल गई थी। इस तरह जोधपुर रियासत, अपना ख़ुद का फ़्लाइंग क्लब स्थापित करने वाली पहली भारतीय रियासत बनने की तरफ़ अग्रसर हो गयी थी।
सन 1931 उमैद सिंह के लिए एक शुभवर्ष साबित हुआ। जोधपुर फ्लाइंग क्लब की शुरुआत एक जिप्सीमॉथ, दो टाइगरमॉथ और दो लॉकहेड हवाई जहाजों के साथ हुई। उमैद सिंह को अपनी रियासत में हवाई अड्डा शुरू करने की इजाज़त मिल गई थी, और तब तक वह ‘ए’ फ़्लाइट लाइसेंस भी हासिल कर चुके थे, तथा उन्हें एयर कमोडोर की मानद रैंक भी मिल गई थी। उन्हीं दिनों लंदन से मेलबर्न जा रहा एक विमान ईंधन भरने के लिए जोधपुर में उतरा था, जिसे उमैद सिंह की एक बड़ी उपलब्धि माना गया था। इस तरह जोधपुर अंतरराष्ट्रीय विमानन मानचित्र में आ गया और उसके अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा बनने की संभावना बढ़ गई ।
अगले नौ वर्षों में जोधपुर में विमानन के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर विकास हुए। यहां हैंगर और कंट्रोल टॉवर जैसे तकनीकी प्रतिष्ठान बने। इसे ट्रांस-इंडियन एयर हाईवे का भी हिस्सा बनाया गया था, जहां कराची, रंगून और क़ाहिरा जाने वाली अंतरराष्ट्रीय उड़ानें रुकने लगीं। जोधपुर रियासत में लगभग 23 हवाई पट्टियां थीं, जिससे अंग्रेज़ चिंतित हो गये थे, जिसके कारण उन्होंने उमैद से सुरक्षा कारणों से आगे कोई और हवाई पट्टी नहीं बनाने का अनुरोध किया। जोधपुर में एयरमेल सेवाएं और हवाई पिकनिक भी शुरु हो गई थी। उमैद अक्सर अपने मेहमानों और दोस्तों को अपने लॉकहीड विमान में घुमाया करते थे।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नागरिक उड्डयन अस्थायी रूप-से रोक दी गयी थी, और जोधपुर हवाई अड्डा वीरान हो गया था । लेकिन सन 1941 में एक नया दौर आया, जब यहां रॉयल इंडियन एयर फ़ोर्स और अमेरिकी वायु सेना के भारी बम-वर्षक विमान रखे जाने लगे। यह हवाई युद्ध की ट्रैनिंग का नंबर-2 एलीमेंट्री फ्लाइंग ट्रेनिंग स्कूल बन गया। आगरा, कलाईकुंडा और तेज़पुर जैसे अन्य हवाई अड्डों के अलावा जोधपुर ने भी युद्ध के दौरान हवाई युद्ध के लिए मित्र देशों की सक्रिय रूप से मदद की, जिसके लिए उमैद को सन 1946 में एयर वाइस मार्शल की एक और मानद रैंक प्रदान की गयी।
लेकिन उमैद सिंह के गौरवशाली दिन कम ही रहे। 29 साल के शानदार शाही ज़िंदगी गुज़ारने के बाद, 9 जून, सन 1947 को उनकी ज़िंदगी का सफ़र अचानक थम गया। दरअसल वह शिकार के लिये निकले ही हुये थे, तभी उनकी मृत्यु हुई, जब उनके 44वें जन्मदिन में सिर्फ़ एक महीना ही बचा था!
उमैद के बनवाये गये हवाई अड्डे को दो अलग-अलग हिस्सों में बांट दिया गया, जो अब भारतीय वायु सेना और भारतीय विमान प्राधिकरण के अधीन हैं। इस तरह से उमैद सिंह की विरासत आगे बढ़ी। भारतीय वायु सेना के नये पायलटों की ट्रैनिंग के लिए यहां सन 1950 में वायु सेना अकादमी स्थापित की गईं थी, और सन 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद इसे डिंडीगुल (हैदराबाद) ले जाया गया। जोधपुर अब सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण वायु सेना स्टेशन है। जोधपुर हवाई अड्डे का इस्तेमाल घरेलू उड़ानों के लिये होता है। बाड़मेर ज़िले में उत्तरलई हवाई अड्डे में अब वायु सेना के लड़ाकू विमानों को रखा जाता है। हवाई अड्डे के बाक़ी क्षेत्र राजस्थान में बढ़ते शहरीकरण और विकास परियोजनाओं के शिकार हो चुके हैं।
दिलचस्प बात यह है, कि हवाई अड्डे के पास उमैद सिंह का बनावाया गया स्टॉफ होटल, जिसमें जोधपुर आने वाली एयरलाइन कंपनियों के चालक दल ठहरते थे, अब वायु सेना स्टेशन जोधपुर का ऑफ़िसर्स मेस बन गया है। “दि इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इंडिया” पत्रिका के 15 दिसंबर, सन 1935 के अंक में इस होटल के बारे में लेख प्रकाशित हुआ था। जोधपुर का एयर फ़ोर्स हेरिटेज म्यूज़ियम उमैद सिंह के शासनकाल में रचे गये गौरवशाली इतिहास का गवाह है।
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