शालिहोत्र: भारत में पशु चिकित्सा विज्ञान के जनक

शालिहोत्र: भारत में पशु चिकित्सा विज्ञान के जनक

इलाज की प्राचीन प्रणाली आयुर्वेद को कौन नहीं जनता! भारत में आज भी आमतौर पर आयुर्वेद घर घर में लोकप्रिय है। अब तो आयुर्वेद दुनिया भर में मशहूर हो गया है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि प्राचीन भारत का एक औषधीय साहित्य है जो विशेष रूप से घोड़ों और हाथियों के उपचार के बारे में बताया गया है? आमतौर पर लोग आयुर्वेद से जुड़ी चरक संहिता के बारे में जानते हैं लेकिन जानवरों के लिए आयुर्वेद आपने शायद ही सुना हो।

भारत में पशु चिकित्सा शुरू करने, विशेषकर घोड़ों के बारे में अध्ययन और उपचार का श्रेय शालिहोत्र ​​नामक एक ऋषि को जाता है जिनके बारे में माना जाता है कि वे ई.पू.तीसरी सदी के आसपास रहे थे।

पशु पालन और उनके स्वास्थ्य के विशेषज्ञ शालिहोत्र ​​ने घोड़ों की देखभाल और उपचार पर कई ग्रंथ और निबंध लिखे थे। दिलचस्प बात यह है कि उनका काम और उनकी विरासत सदियों बाद, आज भी ज़िंदा है!

इसमें कोई शक़ नहीं है कि पशुओं ख़ासकर घोड़ों और हाथियों का पूरे मानव इतिहास में खास महत्व रहा है। इनका संबंध न केवल देवताओं, मिथकों और कथाओं से रहा है बल्कि उनका इस्तेमाल कई उद्देश्यों और कामों के लिये भी किया जाता रहा था। इनमें परिवहन और युद्ध सबसे आम थे। परंपरागत रूप से  किसी भी सेना के चार प्रमुख अंग होते थे- पैदल सेना, घुड़सवार सेना, रथ सेना और हाथी सेना। इसीलिये उनकी देखभाल और इलाज के लिए ख़ास इंतज़ाम करना स्वाभाविक था।

दिलचस्प बात यह है कि वेदों, पुराणों और महाकाव्यों जैसे प्राचीन भारतीय साहित्य में जानवरों की स्वास्थ्य संबंधी देखभाल पर काफ़ी जानकारी मौजूद है। इससे साबित होता है कि तीन हज़ार से चार हज़ार साल पहले भी भारत में पशु चिकित्सा मौजूद थी। उन चिकित्सकों के नामों का भी उल्लेख किया गया है जिनकी सभी तरह के जानवरों और ख़ास प्रकार के पशुओं की स्वास्थ्य देखभाल करने में महारत थी।

शालिहोत्र की एक सचित्र पांडुलिपि, 1700-1750 आंध्र प्रदेश | Arthur and Margaret Glasgow Fund (via Virginia Museum of Fine Arts)

लेकिन यह शालिहोत्र रचित किताब अश्व आयुर्वेद सिद्धांत (‘घोड़ों का आयुर्वेदिक उपचार) है जिसे पशु चिकित्सा पर भारत का सबसे पुराना ग्रंथ माना जाता है। उन्हें घोड़ों और घोड़ों के प्रजनन का विशेषज्ञ माना जाता था। उन्होंने  इस विषय से संबंधित कई ग्रंथ लिखे थे जैसे हया आयुर्वेद, शालिहोत्र संहिता, अश्वपरास्ना (घोड़ों की प्रशंसा में) और अश्वलक्षणशास्त्र (घोड़ों के चिन्हों पर ग्रंथ)। कहा जाता है कि हया आयुर्वेद का ज्ञान स्वयं भगवान ब्रह्मा ने शालिहोत्र को दिया था।

शालिहोत्रा ​​की एक सचित्र पांडुलिपि से एक पन्ना, 1700-1750 | Arthur and Margaret Glasgow Fund (via Virginia Museum of Fine Arts)

शालिहोत्र और उनके जीवन के बारे में कुछ ख़ास जानकारी नहीं है लेकिन ऐसा कहा जाता है कि वह उत्तर प्रदेश के मौजूदा श्रावस्ती क्षेत्र में रहते थे। उनके जीवनकाल के बारे में भी अलग-अलग मत हैं। कुछ स्रोतों के अनुसार वे ई.पू.तीसरी सदी के आसपास मौजूद थे लेकिन अन्य लोगों का मानना है कि उनके पिता हयाघोष या अश्वघोष कुषाण शासक कनिष्क (सन 78 – 144 ) के दरबार में एक विद्वान थे। इस प्रकार शालिहोत्र शायद ई.पू. पहली सदी के अंत में कभी रहे होंगे। यह भी कहा जाता है कि आयुर्वेद के आरंभिक लेखक ऋषि अग्निवेश और शालिहोत्र समकालीन थे और उनके गुरु भी एक ही थे। महाकाव्य महाभारत में भी इसी नाम के एक व्यक्ति का उल्लेख मिलता है।

घोड़ों के उपचार और उनकी देखभाल से संबंधित जो किताबें उन्होंने लिखी थीं उनमें उन्होंने घोड़ों से संबंधित कई दिलचस्प बातों का भी उल्लेख किया है। उनका काम काफ़ी हद तक आयुर्वेद के सिद्धांतों पर आधारित है। उन्होंने घोड़ों के इलाज के लिए विभिन्न औषधीय-पौधों और जड़ी-बूटियों जैसे अदरक और हरीतकी (आंवला) के उपयोग का भी सुझाव दिया था। उन्होंने घोड़ों की प्रजाति, उनके रंग की विविधता और घोड़ों की उम्र जानने के तरीक़ों के बारे में लिखा है। इसके अलावा उन्होंने शाही परिवारों और राज्यों में सेवा के लिए घोड़ों के आवश्यक गुणों तथा  उनकी लेन-देन और ख़रीद-फ़रोख़्त के नियम और क़ानून, बीमारियों, दवाओं, बीमारियों के लक्षणों आदि के बारे में भी लिखा है।

शालिहोत्रा ​​की एक सचित्र पांडुलिपि से एक पन्ना, 1700-1750 | Arthur and Margaret Glasgow Fund (via Virginia Museum of Fine Arts)

उनका मुख्य कार्य घोड़ों की देखभाल और प्रबंधन पर एक बड़ा ग्रंथ था, जिसे शालिहोत्र संहिता (चिकित्सक शालिहोत्र का विश्वकोश) कहा जाता है। इसमें संस्कृत में लगभग 12 हज़ार श्लोक हैं। शालिहोत्र संहिता का फ़ारसी, अरबी, तिब्बती और अंग्रेजी भाषा में भी अनुवाद हो चुका है।

बाद में इस विषय पर विद्वानों ने शालिहोत्र संहिता में संशोधन किये। राजस्थान में महाजनी, मोदी और देवनागरी लिपि में,19वीं सदी की, शालिहोत्र शास्त्र की एक पांडुलिपि मौजूद है । इसमें घोड़ों की शानदार तस्वीरें बनी हुई हैं। ऐसी ही एक पांडुलिपि राजस्थान के झुंझुनू के डुण्डलोद क़िले में देखी जा सकती है।

फ़रस-नामा (घोड़ों की किताब) का एक पन्ना | www.wdl.org

उनके काम का एक और दिलचस्प पहलू यह है कि इससे प्रेरित होकर मुग़ल दरबार में एक किताब लिखी गई थी। शाहजहां (शासनकाल 1628-58) के शासनकाल के दौरान अब्द अल्लाह ख़ान बहादुर फ़ीरोज़ ने फ़रस-नामा (घोड़ों की किताब) नामक किताब लिखी थी। कहा जाता है कि यह पुस्तक शालिहोत्र के संस्कृत में लिखे 16 हज़ार श्लोकों पर आधारित है। फ़रस-नामा में घोड़े के के रंगों, गर्दन के बालों यहां तक ​​कि गोड़ों के बदन के निशानों से, युद्ध के मैदान में घोड़ों की चपलता के बारे में अंदाज़ा लगाने जैसे कई दिलचस्प विवरण भी शामिल हैं।

मुग़ल बादशाह शाहजहां एक घोड़े पर सवार | विकिमीडिआ कॉमन्स

बड़ी बात ये है कि शालिहोत्र ​​की विरासत आज भी जीवित है। क्या आप जानते हैं कि आज भी ‘स्लोत्री’, ‘शालिहोत्रिया’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल पशु शल्य-चिकित्सक के लिए किया जाता है और ये शालिहोत्र ​​के नाम से ही बने हैं? दरअसल पशु चिकित्सा विज्ञान पर कुछ बाद के कार्यों के शीर्षकों में शालिहोत्र शब्द का इस्तेमाल किया गया था और ये तमाम उनके काम से बहुत प्रेरित थे।

घोड़ों पर अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ अश्वसिकित्सिता (‘घोड़ों की चिकित्सा’) और अश्ववैद्यक (‘घोड़ों की दवायें) शामिल हैं। कहा जाता है कि अश्वसिकित्सिता राजकुमार नकुल और अश्ववैद्यक जयदत्त ने शायद 13वीं शताब्दी में लिखा था।

आज भी घोड़ों के इलाज और देखभाल के लिए शालिहोत्र ​​के कुछ सिद्धांतों को अपनाया जाता है। इससे पता चलता है कि कैसे एक व्यक्ति का ज्ञान, कार्य और लगन अपने आप में एक विरासत बन गई जिसने भारत में पशु चिकित्सा विज्ञान की नींव रखी।

क्या आप जानते हैं?

जिस तरह शालिहोत्र को घोड़ों का विशेषज्ञ माना जाता है, उसी तरह प्राचीन भारत के मुनि पालकाप्य नामक एक अन्य ऋषि को हाथियों का विशेषज्ञ माना जाता है। उन्होंने हाथियों के उपचार, देखभाल और प्रबंधन पर शोध किया था। उनके निबंधों को हस्त्य-आयुर्वेद या गज-आयुर्वेद के नाम से जाना गया था।

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