अजंता की गुफाएं अपनी चित्रकारी और मूर्तियों के लिए दुनिया भर में मशहूर हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं, कि मध्य प्रदेश में अजंता से लगभग 300 किमी की दूरी पर, अजंता की गुफाओं के समय का ही एक गुफा-परिसर है, जो अपनी चित्रकारी के लिए भी जाना जाता है? माना जाता है, कि ये चित्र उन्हीं कलाकारों ने बनाये थे, जिन्होंने अजंता गुफाओं में चित्रकारी की थी।
मध्य प्रदेश के धार ज़िले में बाध नगर की विंध्य पर्वत श्रंखला में चट्टानों को तराश कर बनाई गईं नौ गुफाएं अपने भित्ति चित्रों के लिये जानी जाती हैं। ये गुफाएं बाघनी नदी के किनारे पर स्थित हैं, जहां किसी समय बड़ी संख्या में बाघ पाए जाते थे और संभवत: इसलिये इस जगह का नाम भी “बाघ” पड़ गया ।
ये गुफाएं, प्राचीन माहिष्मती से भारुच तक एक महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग पर बनाई गई हैं। बाघ के बाहरी इलाक़े में रिसावाला में 27 शिला-लेखों की खोज के साथ शहर का इतिहास सामने आया था, जिन पर 34-134, एक अस्पष्ट-सा सन दर्ज है। ये शिला-लेख वलखा के महाराजाओं ने बनवाये थे। माना जाता है, कि ये महाराजा गुप्त राजवंश के अधीन थे, जिन्होंने चौथी और पांचवी सदी के आसपास शासन किया था।
पांचवीं-छठी शताब्दी के आसपास की इन गुफाओं की खोज सन 1818 में बॉम्बे सैन्य प्रतिष्ठान के लेफ्टिनेंट डेंजरफ़ील्ड ने की थी। हालांकि, इन गुफाओं में पहली बार आने वाले ब्रिटिश इतिहासकार डॉ ई. इम्पे थे। उनके बाद पुरातत्वविद् सर जॉन मार्शल और एपिग्राफिस्ट(पुरालेखवेत्ता) डॉ. जे.पी एच.वोगेल जैसे कई अन्य लोग यहां आए थे।
दुर्भाग्य से अब सिर्फ़ चार गुफाएं ही बची हैं। इनमें से शायद सबसे अच्छी तरह से संरक्षित दूसरी गुफा है, जिसे स्थानीय लोग “पांडवों की गुफा” कहते हैं। यह मठ जैसा सभागार है, जिसमें प्रकोष्ठ बने हुए हैं। यहां एक स्तूप औऱ छह खंबो वाला एक बरामदा है। गुफा में दो तरफ दो सेवादारों के साथ बुद्ध की प्रतिमाएं हैं। दिलचस्प बात यह है, कि यहां बाद की अवधि की गणेश की एक मूर्ति भी है। तीसरी विहार गुफा है, जिसे “हाथी खाना” के नाम से जाना जाता है। इसमें चित्रों की भरमार है। परिसर की सबसे बड़ी चौथी गुफा है, जो “रंग महल” कहलाती है। इसके तीन प्रवेश-द्वार हैं। इसमें दो खिड़कियां और लगभग अट्ठाईस स्तंभ पर टिकी एक छत है, जिसपर चित्रों के निशान नज़र आते हैं। साधारण-सी पांचवीं गुफा है, जिसे स्थानीय लोग “पाठशाला” कहते हैं। इसमें किसी भी प्रकार की कोई सजावट नहीं है। माना जाता है, कि यह एक व्याख्यान कक्ष रहा होगा।
हालांकि माना जाता है, कि बाघ गुफाएं अंजता के समय की हैं, लेकिन इनके बारे में कोई ख़ास जानकारी उपलब्ध नहीं है। इनके बारे में कुछ दिलचस्प जानकारियां माहिष्मती राजा सुबंधु द्वारा 5वीं सदी में बनवाए गए तांबे के अभिलेखों में मिलती हैं, जो गुफाओं के अवशेषों में मिले थे। इनके अनुसार सुबंधु ने पूजापाठ और भोजन के लिये गांव को अनुदान दिया था। इसके अलावा राजा ने मठ में रहने वाले भिक्षुओं के लिये भी अनुदान दिया था। दिलचस्प बात ये है, कि अभिलेख में मठ का उल्लेख “कल्याण” नाम से है, जिसे दत्ततका नाम के व्यक्ति ने बनवाया था।
अजंता और बाघ गुफाओं के भित्ति-चित्र उनकी विशेषता हैं, जो उनके सुनहरे समय में देखने योग्य रहे होंगे। प्रसिद्ध इतिहासकार वाल्टर एम. स्पिंक के अनुसार, बाघ गुफाएं आरंभिक महायान और फिर बाद में अजंता गुफाओं में महायान कार्य के बीच के संक्रमण काल की हैं और दोनों गुफाओं पर काम करने वाले कारीगर एक ही थे। बौद्ध कला की बेहतरीन कृति अजंता की गुफाएं दो चरणों में बनाई गई थीं- सातवाहन शासन के दौरान दूसरी सदी (ई.पू) में और बाद में पांचवीं सदी में वाकाटक राजा हरिषेण के शासनकाल में। हरिषेण के शासनकाल यानी लगभग सन 471 और सन 473 के दौरान उनके दो सामंतों रिसिकास के राजा उपेंद्रगुप्त, जिसने गुफा निर्माण में योगदान किया था। लेकिन उपेंद्रगुप्त ने साम्राज्य में तबाही भी मचा रखी थी। उनके बीच लगातार झगड़ों, गुफा निर्माण के काम में बाधा डालने और वाकाटक पर नियंत्रण के लिये संघर्ष की वजह से गुफा बनाने का काम रुक गया था।
स्पिंक का मानना था, कि अजंता में काम ठप्प होने के बाद,काम की तलाश में कारीगर बाघ चले गये थे, लेकिन सामान्य स्थिति बहाल होने के बाद वे काम पूरा करने के लिए अजंता वापस चले गए।
बाघ और अजंता की गुफाओं की एक सामान्य विशेषता चित्रों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली टेंपरा तकनीक है, जिसमें दीवारों पर किये गये प्लास्टर को चिपकाने के लिए रंगो में एक तरह का घोल मिलाया जाता है। इस तकनीक की सबसे बड़ी ख़ामी ये है, कि नमी से ये चित्रकारी ख़राब हो जाती है। बाघ की गुफाओं में दीवारों पर गाहड़ा मिट्टी का प्लास्टर लगाया गया था, और फिर उस पर चूने के प्राइमर की दूसरी परत चढ़ाई गई थी। इसके बाद उन पर चित्रों को बनाया गया था। ये चित्र, संभवत: जातकों-कथाओं और उनसे जुड़ी घटनाओं का पर ही बनाये गये थे।
दुर्भाग्य से चूंकि चित्रकारी एक कमज़ोर बलुआ पत्थर को तराशकर की गई थी, इसीलिए पानी का रिसाव एक बड़ी समस्या रही है। इसकी वजह से चित्रों के साथ-साथ गुफाओं को भी गंभीर नुक़सान पहुंचा है। नुक़सान रोकने के लिये सन 1982 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने संरक्षण कार्य किया और अधिकांश मूल चित्रों को चट्टान की परतों के साथ सावधानीपूर्वक हटाकर सुरक्षित स्थानों में रख दिया।
आज मूल भित्ति-चित्र बाघ गुफाओं के सामने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के एक संग्रहालय में और ग्वालियर पुरातत्व संग्रहालय में देखे जा सकते हैं।
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