सुआलकुची और असम की रेशम की बुनाई

सुआलकुची और असम की रेशम की बुनाई

भारत, चीन के बाद विश्व में दूसरा देश है, जहां रेशम का सबसे ज़्यादा उत्पादन होता है। विश्व में रेशम के कुल उत्पादन में भारत का योगदान 18 प्रतिशत है। लेकिन क्या आपको पता है, कि असम में एक छोटा -सा शहर है, जो ख़ूबसूरत रेशम के उत्पादन के लिये मशहूर है? इस शहर को पूर्वी भारत का मैनचेस्टर कहा जाता है। ये असम के कामरुप ज़िले का सुआलकुची शहर है।

भारत में पांच क़िस्मों के रेशम-शहतूत, आइवरी व्हाइट पैट, एरी, टसर और मुगा रेशम का उत्पादन होता है। इनमें से विश्व में रेशम के उत्पादन में सुनहरे पीले मुगा रेशम पर भारत का एकाधिकार है। मुगा रेशम विश्व में सबसे विरल और क़ीमती रेशम है। इस रेशम की ख़ासियत ये है, कि ये हर धुलाई के बाद चमकदार और चिकना होता जाता है और ये असम की समृद्ध संस्कृति का प्रतीक भी है।

सुआलकुची में हथकरघा | लाइफडेली

मुगा रेशम एंथ्रेएस असामेंसिस नामक रेशम के कीड़े से बनता है, जो असम की ब्रह्मपुत्र घाटी में ही पाया जाता है। सुआलकुची में इस रेशम का प्रयोग कपड़े पर बुनाई के लिये किया जाता है।

सुआलकुची ब्रह्मपुत्र के तट पर कामरुप ज़िले में असम राज्य की राजधानी दिसपुर से क़रीब 35 कि.मी. की दूरी स्थित है । यहां क़रीब 18 हज़ार करधे हैं, जहां हर साल हाथ से बुना 35 लाख मीटर लंबा रेशम का कपड़ा तैयार किया जाता है, जिसका मूल्य क़रीब सौ करोड़ होता है।

इस रेशम का औसतन 70 फ़ीसद कपड़ा ‘मेखला चादर’ बनाने में लगता है, जो भारत की मशहूर साड़ियों में गिनी जाती है। बीस फ़ीसदी कपड़ा साड़ियों और दस प्रतिशत कपड़े से जैनसेम बनाया जाता है, जो मेघालय की खासी महिलाओं और अरुणाचल प्रदेश के आदि जनजातियों का लिबास होता है।

बुनकरी, सुआलकुची में रहने वालों के जीवन शैली का अहम हिस्सा है। यह काम पुरुषों से ज़्यादा महिलाएं करती हैं।

करधे पर बुनाई की परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। लेकिन इसे कभी भी किसी संस्थान का सहयोग नहीं मिला है।

सुआलकुची का प्रवेश द्वार | लाइफडेली

यहां रेशम के कई क़िस्मों का उत्पादन होता है, जिसकी वजह से असम अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में एक ब्रांड बन गया है। हाल ही में सुआलकुची को “मैनचेस्टर आफ़ ईस्ट” के नाम से पुकारा जाने लगा है।

रेशम कीट-उत्पादन का उल्लेख रामायण जैसे प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। रामायण के किष्किंधा कांड में असम का कोशा कर्णम भूमि यानी रेशम के कीड़े (कोकून) पालने वाले देश के नाम से उल्लेख है। दिलचस्प बात ये है, कि कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी इसका ज़िक्र है। इसमें चौथी सदी के लगभग प्राचीन कामरुप में सुवर्णण्यकुद्य का उल्लेख है, जिससे बेहतरीन क़िस्म का पत्रोर्ण रेशम बनता है। संभवत: बाद में सूवर्णण्कुद्य ,स्वर्णकुची के नाम से जाना जाने लगा, जिसका अंत में नाम सुआलकुची पड़ गया।

सुआलकुची का उल्लेख बाण लिखित हर्षचरित्र और चीनी यायावर हवेन त्सांग के यात्रा वृत्तांत में भी मिलता है, जो 7वीं सदी में असम आया था। उसने का-मो-लू-पा में रेशम कीट-उत्पादन का ज़िक्र किया था। ह्वेन त्सांग ने कामरुप को का-मो-लू-पा नाम दिया था।

असम में रेशम के कीड़े पालने का काम विभिन्न हिस्सों में होता था। रेशम मार्ग (सिल्क रूट ) खुलने के बाद तिब्बती-बर्मा के व्यापारियों और कपड़ा निर्मातोंओं का आना-जाना शुरु हो गया, जिसकी वजह से रेशम-कीट पालन के व्यवसाय में और तेज़ी आ गई थी ।

यहां से दक्षिण-पश्चिम रेशम मार्ग के ज़रिये रेशम चीन ले जाया जाता था। सिल्क रुट असम और बर्मा से होकर गुज़रता था। ये रेशम मार्ग उत्तरपथ के ज़रिये असम और बर्मा को मध्य एशिया से जोड़ता था।

सुआलकुची पहली सदी से, गुवाहाटी में ब्रह्मपुत्र के उत्तरी तट पर एक लघु कुटीर उद्योग के रुप में विकसित हो गया था।

सुआलकुची के बुनकर | ट्रेवलस्पीक

पाल राजवंश के राजा धर्मपाल ने 10वीं-11वीं सदी में तांतिकुची (मौजूदा समय में बरपेटा ज़िला) से तांती बुनकरों को यहां लाकर बसाया था और इस तरह ये गांव रेशम का उत्पादन करने वाला गांव बन गया।

रेशम के उत्पादन में ये गांव तब अपनी ऊंचाइयों पर पहुंचा, जब 17वीं सदी में अहोम राजा स्वर्गदेव प्रताप सिंह (1603-1641) के शासनकाल में महान प्रशासक मोमई तमुली बरबरुआ ने पूरे क्षेत्र से बुनकरों को लाकर इस गांव में बसाया। प्रशासन के संरक्षण की वजह से असम में रेशम-कीट पालन का विकास हुआ।

अहोम साम्राज्य का शाही चिह्न | गाथा

19वीं सदी के मध्य तक सुआलकुची के रेशम के उत्पाद को ख़रीदने की क्षमता असम के सिर्फ़ शाही और अमीर परिवारों की ही थी। उस समय तक असम का प्रशासन अंग्रेज़ों के हाथों में आ गया था। असम की परंपरा के अनुसार ,तब बुनाई में किसी लड़की की दक्षता उसके विवाह के लिये उसकी सबसे बड़ी योग्यता मानी जाती थी।

एंग्लो-बर्मा युद्ध (1821-1826) के बाद असम अंग्रेज़ों के अधीन हो गया था। सरकार ने मुगा कोकून पालन के लिये सोम और सोअलु वृक्ष के प्रयोग पर कर लगाने शुरु कर दिये, जिसकी वजह से रेशम उत्पादन से जुड़े लोग हथकरधा बुनाई, तेल परिष्करण, बर्तन बनाने तथा सोनेकी चीज़े बनाने जैसे लघु उद्योग अपनाने लगे। इस तरह रेशम कीट पालन और रेशम की बुनाई का काम सिर्फ़ तांती समुदाय तक ही सिमट कर रह गया।

प्रथम विश्व युद्ध (1914-1919) के बाद ही रेशम-उत्पादन को महत्व मिला, क्योंकि तब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी बहुत मांग बढ़ गई थी। ऐसी स्थिति में सुआलकुची के बुनकर भारी मात्रा में रेशम का उत्पादन करने लगे थे। इस दौरान इस व्यापार में,एशिया में, चीन के बाद भारत का दबदबा हो गया था। ये सिलसिला दूसरे विश्व युद्ध (1939-1945) तक जारी रहा। इस दौरान कपड़ों और उनकी बढ़ती क़ीमतों को देखते हुए तांती परिवारों ने बुनकरी का व्यावसायीकरण किया और उन्होंने बुनकरी के कारख़ाने लगाये, जिनमें बुनकरों को काम दिया। विश्व स्तर पर कपड़ों को आकर्षक बनाने के लिये बुनकरी में डिज़ाइनों का समावेश किया गया।

सन 1946 में (सन 1921, 1926 और 1934 के बाद) जब महात्मा गांधी, अपने असम के चौथे दौरे पर आये, तब उन्होंने सुआलकुची का रुख किया। यहाँ वो रेशम और खादी के वस्त्रों की एक प्रदर्शनी देखने गये और असमीया महिलाओं की बुनकरी संस्कृति और कला को देखकर बहुत प्रभावित हुए।

महात्मा गांधी सुआलकुची के दौरे पर | सुआलकुची सिल्क बाज़ार

सुआलकुची में उनकी इस यात्रा की याद में महात्मा गांधी मेमोरियल बनवया गया था, जो आज भी यहाँ मौजूद है।

महात्मा गांधी स्मारक, सुआलकुची | सुआलकुची सिल्क बाज़ार

15 अगस्त सन 1947 को भारत की आज़ादी के बाद, गोपीनाथ बोरदोलोई के नेतृत्व में असम भारतीय संघ का हिस्सा बना । बोरदोलोई असम के पहले मुख्यमंत्री बने। उनके शासनकाल में राज्य में शैक्षिक और मेडिकल संस्थानों की नींव डाली गई। कई सुधार कार्यों में अस्पताल बनाना और शरणार्थियों को फिर बसाने जैसे काम भी शामिल थे। इन्ही सुधार कामों के तहत सन 1948 में रेशम के बुनकरों के लिये एक सहकारी संस्था “असम समवाय रेशम प्रतिष्ठान” का गठन किया गया।

भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्रों में अलगाववाद से उपजी हिंसा का असर कई स्थानीय कामगार लोगों की रोज़ी रोटी पर भी पड़ा। ये वो समय था, जब कई राज्यों का भी गठन हो रहा था। 20वीं सदी के अंत में भारत के पूर्वोत्तर राज्यों के विकास के लिये कई केंद्रीय योजनाएं शुरु की गईं।

सुआलकुची में बुनी गई सिल्क की साड़ी | उन्नति सिल्क्स

पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मंत्रालय के बनने के बाद सन 1980 के दशक के दौरान रेशम के उत्पाद की मार्किटिंग और उत्पादन के मामले में बहुत विकास हुआ और प्रोजेक्ट सुआलकुची के तहत अंतर्राष्ट्रीय फ़ैशन की दुनिया में असम सिल्क मशहूर हो गया। प्रोजेक्ट सुआलकुची के तहत स्थानीय प्रतिभाओं को बढ़ावा देने के लिये सन 1986 में नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ टैक्नोलॉजी (निफ़्ट) और सन 2009 में गुवाहाटी में नॉर्थ-ईस्टर्न इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़ैशन टैक्नोलॉजी की स्थापना की गई। इसके अलावा बुनकरों के लिये कई प्रशासनिक तथा वित्तीय योजनाएं भी शुरु की गई।

एरी सिल्क की उत्पत्ति कहां हुई, इसे लेकर असम और मेघालय में विवाद है। ऐसा दावा किया जाता है कि इस तरह के रेशम की उत्पत्ति मेघालय के गांवों में हुई थीं और तभी से इसका प्रयोग होता रहा है। इसके प्रसिद्ध होने और सन 1972 में असम का विभाजन कर, मेघालय बनाने के बाद से एरी रेशम दोनों राज्यों के बीच बहस का मुद्दा रहा है।

असम के मुगा रेशम को सन 2007 में जीआईटी (ज्योग्रेफ़िकल इंडीकेशन स्टेटस) और सन 2014 में जीओं लोगो मिल चुका है। दिल्ली में सन 2020 में 71वें गणतंत्र दिवस परेड में सुआलकुची असम की झांकी का मुख्य आकर्षण था। असम की झांकी को सबसे अच्छी झांकी का प्रथम पुरस्कार मिला था। हाल ही में सुआलकुची ने कई अंतरराष्ट्रीय फ़ैशन शो की शोभा बढ़ाई है। सोनम डुबाल और संयुक्ता दत्ता जैसे कई मशहूर फ़ैशन डिज़ाइनर सुआलकुची के रेशम के उत्पादों का इस्तमाल करते हैं।

सुआलकुची की झांकी, 71वें गणतन्त्र दिवस में | ईस्ट मोजो

आज देश-विदेश से बड़ी संख्या में सैलानी और फ़ैशन की दुनिया के लोग सुआलकुची आते हैं। यहां के कपड़ों पर रेशम की कारीगरी पूरे विश्व को लुभाती है।

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