पंद्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में घटी हीर-रांझा की प्रेम कहानी को 60 से अधिक क़िस्सागो और कवियों ने पंजाबी और फ़ारसी में अपनी कल्पनाओं के आधार पर क़लमबद्ध किया। लेकिन सैयद बाबा वारिस शाह साहब ने हीर को अपने जिस ख़ास अंदाज़ में पेश किया, उस ने साहित्य-जगत में हीर को ‘वारिस की हीर’ बनाकर हमेशा के लिए अमर कर दिया।
हालांकि, बाबा वारिस शाह से पहले हरिदास हरिया (मुग़ल बादशाह बाबर के समय), दामोदर गुलाटी (1486-1568), अहमद गुर्जर (सन1682), मियां चिराग़ एवान (सन1709), मनसा राम ख़ुशबी (सन 1744), शाहजहां मक़बल (सन 1745) सहित गंग भट्ट, गुरदास गुणी के अलावा और भी कई लोग हीर का क़िस्सा लिख चुके थे। दशम ग्रंथ के चारित्रोपाख्यान के 99 चरित्र में हीर का क़िस्सा का वर्णन इस प्रकार किया गया है:
रांझा भयो सुरेस तहि, भई मेनका हीर। या यग में गावत सदा सब कविकुल यस धीर।। दशम ग्रंथ के अनुसार, हीर, मेनका या अप्सरा थी और रांझा, इंद्र देव थे।
हीर-रांझा की प्रेम कहानी को क़िस्से लिखने वालों ने अलग-अलग तरीके से लिखा है। शायद इसी वजह से ‘हीर’ सुनने वालों के लए सिर्फ ‘हीर-रांझा प्रेम-प्रसंग’ की एक काल्पनिक नायिका बन चुकी है।
सैयद बाबा वारिस शाह ने, यह प्रसिद्ध महाकाव्य मलका हांस क़स्बे के मोहल्ला ऊँचा टिब्बा में रहते हुए लिखा था, जो आज पाकिस्तान के शहर पाकपतन से 12 किलोमीटर दूर पाकपतन-साहीवाल रोड पर आबाद है।
इसी वजह से इस शहर की शौहरत तमाम हदें पार कर चुकी है। यह ऐतिहासिक क़स्बा वारिस शाह के लिखे“हीर” की बदौलत साहित्य प्रेमियों के लिए एक तीर्थ-स्थान बन गया है।
लाहौर से 190 कि.मी. और साहीवाल से 45 कि.मी. की दूरी पर आबाद क़स्बा मल्का हांस में जाने के लिए साहिवाल के बस अड्डे से छोटी बसें या मैटाडोर आसानी से मिल जाती हैं। रास्ता बहुत ऊबड़-खाबड़ और मुख्य सड़क की हालत खस्ता होने के कारण गाँव तक पहुँचने में 35-40 मिनट लग जाते हैं। मलका हांस की वारिस शाह मस्जिद के क़रीब कभी गुरुद्वारा सिंह हुआ करता था जो अब भू-माफ़िया निगल चुका है, लेकिन इसके साथ लगे प्राचीन हिंदू प्रणामी मंदिर के खंडहर आज भी मौजूद हैं।
सैय्यद बाबा वारिस शाह का जन्म सन 1722 में, सैयद गुलशेर शाह के घर, लाहौर से 50 किलोमीटर दूर मौजूदा ज़िला शेखूपुरा के गांव जंडियाला शेर खान में हुआ था। अधिकांश भारतीय लेखकों का मानना है कि वारिस शाह का जन्म सन 1704, 1730, 1735 या 1738 में हुआ था, जबकि जंडियाला शेर ख़ान में वारिस शाह के दरबार के बाहर लगे शिला-लेख पर अरबी भाषा में बाबा जी का जन्म सन 1722 और देहांत सन 1798 लिखा है। सैय्यद तालिब बुख़ारी के अनुसार, बाबा जी का जन्म 1130 हिजरी और देहांत 11 मुहर्रम 1220 हिजरी को हुआ था।
गांव जंडियाला, शेर ख़ान जिला शेखूपुरा से 14 कि.मी. की दूरी पर आबाद है। क़स्बे में बाबा वारिस शाह का वह पैतृक घर भी मौजूद है, जहाँ उनका जन्म हुआ बताया जाता है। गांव के मध्य मौजूद दरबार बाबा वारिस शाह वह मुक़द्दस स्थान है, जहाँ देहांत के बाद पीर सैय्यद वारिस शाह को दफ़नाया गया था। इस सूफ़ी कवि के मक़बरे के दक्षिण-पश्चिम में वह मस्जिद भी अभी मौजूद है जहां बचपन में वारिस शाह को उनके पिता ने पढ़ाई के लिए भेजा था।
वारिस शाह ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा, अपने गांव जंडियाला शेर ख़ान, ज़िला शेखूपुरा की मस्जिद में प्राप्त की। उसके बाद उन्होंने दरस-ए-निज़ामी की शिक्षा क़सूर शहर में मौलवी ग़ुलाम मुर्तुज़ा क़सूरी से हासिल की। यहां से ही उन्होंने फ़ारसी और अरबी में उच्च शिक्षा प्राप्त की, लेकिन किसी को भी इस जगह के अस्तित्व के बारे में कोई पुख़्ता जानकारी नहीं है।
दरस-ए-निज़ामी की शिक्षा प्राप्त करने के बाद, वारिस शाह पाकपतन चले गए और वहाँ बाबा शेख़ फ़रीद जी की गद्दी पर उपस्थित बुज़ुर्गों से उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया। इसके बाद वे पाकपतन शहर के क़स्बा मलका हांस में चले गए और वहां की एक मस्जिद में तीन वर्ष बतौर इमाम सेवाएं देते रहे और धार्मिक शिक्षा का प्रसार करते रहे। उसी दौरान मस्जिद मलका हांस के स्थान पर ही बाबा वारिस शाह ने सन 1766 में हीर की रचना सम्पूर्ण की। उन्होंने इस लोक-कथा और रोमांस की कहानी को इस तरह से प्रस्तुत किया कि उनकी रची हुई ‘हीर’ पंजाबी साहित्य की एक ऐसी उत्कृष्ट कृति बन गई जिसका अभी तक कोई मुक़ाबला नहीं कर पाया।
बाबा वारिस शाह ने अपनी पुस्तक के 629 छंद में अपनी जीवनी का विवरण इस प्रकार दिया है – ”वारिस शाह वसनीक जंडियाले दा, शागिर्द मख़दूम क़सूर दा ऐ।”छंद 6, 7 और 627-628 में उन्होंने इस क़िस्से के मुकम्मल होने का वर्ष और उस शहर का नाम लिखा है जहां पर यह लिखा था। ”यारां अस्सां नू आन सवाल कीता, इश्क हीर दा नववा बनाया जी। यारां नाल मज्लसां विच बह के, मज़ा हीर दे इश्क दा पाय्या जी। खत्म रब दे करम दे नाल होई, प्यारदे याद दिय्ये। खरल हांस दा मुल्क मशहुर मलका, तीथे शे’र कीता यारां वास्ते मैं। सन् ग्यारां सो अस्सी नब्बी हिजरत (1180 हिजरी), लम्मे देस दे विच तैयार होई।”
“जंडियाला के निवासी और मौलवी गुलाम मुर्तुजा कसूरी के शागिर्द वाारिस शाह ने छंद 6-7 और 627-628 में इस किस्से के मुकम्मल होने का वर्ष और उस शहर का नाम लिखा है, जहां पर यह लिखा गया।” “दोस्तों ने मुझे कहा कि हीर के इश्क को नए अंदाज से बयान किया है और इससे हीर के इष्क का लुत्फ मिला है। मेरे रब्ब के आर्षीवाद से यह रचना खरल हांस के शहर मलका हांस में सन् 1180 हिजरी में मुकम्मल हुई।”
‘हीर वारिस शाह’ महाकाव्य का पंजाबी और फ़ारसी के अतिरिक्त अंग्रेज़ी (सन1973), इटैलियन (सन1971), जर्मनी (सन1985) और फ़्रांसीसी (सन् 1988) में अनुवाद किया जा चुका है।
बाबा वारिस शाह और उनकी लिखी ’हीर’ पर शोध करने वालों में किसी ने कभी यह नहीं बताया कि वारिस शाह की हस्तलिखित पांडुलिपि कहां उपलब्ध है या उनमें से किसी ने कभी उसे देखा है। हालांकि पुराने पंजाब में प्रिंटिंग प्रेस के आने के बाद ‘हीर वारिस शाह’ का पहला प्रकाशन सन 1865 में हुप प्रेस, लाहौर ने किया था। उसी संस्करण को सन 1973 में पंजाबी अदबी अकादमी ने दोबारा प्रकाशित किया था। वारिस शाह के लिखे छंदों की संख्या 625 से 635 के बीच मानी जाती है।
मल्का हांस की प्राचीन मस्जिद बाद में ‘वारिस शाह की मस्जिद’ के नाम से जानी जाने लगी है। इस मस्जिद को सन 1340 में मलिक मोहम्मद उर्फ़ मलका ने बनवाया था। बाबा वारिस शाह ने इस मस्जिद के क़रीब मौजूद जिस तहख़ाने में रहते हुए हीर की रचना की, उसे हुजरा-ए-वारिस शाह कहा जाता है। इस हुजरे की चैढ़ाई क़रीब 6 फ़ुट और लंबाई 5 फ़ुट है। यह हुजरा मस्जिद के शेष हिस्से से 5-6 क़दम नीचे बनाया गया है। इसके बाहर चसपा किए गए एक छोटे से बोर्ड पर हरे रंग में, उर्दू भाषा में लिखा है -”पीर सैयद वारिस शाह ने यहां रहते हुए हीर के क़िस्से को मुकम्मल किया”। हुजरा-ए-वारिस शाह की बग़ल के एक कमरे में एक पुस्तकालय स्थापित किया गया है, जिसके बाहर उर्दू में ‘लाइब्रेरी वारिस शाह’ अंकित है। लाइब्रेरी के अंदर, रखी कुछ दुर्लभ किताबें और ग्रन्थ, देखरेख की कमी के कारण बरबाद होते जा रहे हैं। मस्जिद, हुजरा और उनके सामने यात्रियों के लिए बनाए कमरों सहित वहां मौजूद सभी स्मारकों की हरे रंग से पुताई की गई है।
वारिस शाह की मस्जिद वाली गली, गाँव की अन्य गलियों की तुलना में बहुत नीची है, इसलिए यहां बारिश के दिनों में बहुत पानी भर जाता है। इस सारे स्मारक की देखभाल अंजुमन-ए-वारिस शाह सोसाइटी (रजि.) कर रही है। वैसे पूरा स्मारक ओक़ाफ़ बोर्ड के अधिकार में है।
बाबा वारिस शाह के महाकाव्य ‘हीर वारिस शाह’ की लोकप्रियता तथा पाकीज़गी का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जलियांवाला बाग़ हत्याकांड के पश्चात इस नरसंहार के मुख्य दोषी एवं पंजाब के तत्कालीन पूर्व गवर्नर माइकल ओडवायर की लंदन में गोली मारकर हत्या करने वाले शहीद उधम सिंह ने, अदालत में सुनवाई के दौरान, महाकाव्य हीर की शपथ ली थी, क्योंकि लंदन में अदालती कार्यवाही के दौरान उन्होंने किसी भी अन्य धार्मिक ग्रंथ की शपथ लेने से इनकार कर दिया था। जालंधर स्थित देश भगत यादगर हॉल की लाइब्रेरी में ‘हीर’की वह प्रति आज भी संरक्षित है।
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