सभी जानते हैं, कि लाहौर का शाही किला महाराजा रणजीत सिंह ना सिर्फ प्रशासनिक केंद्र था, बल्कि उनका आधिकारिक निवास भी था। हालांकि बहुत कम लोगों को ये जानकारी होगी, कि इसके अतिरिक्त भी महाराजा का गुरू नगरी अमृतसर में एक निवास स्थान था, जहां गर्मियों के मौसम में वे अक्सर रहा करते थे। उनका यह दो सौ वर्ष पुराना निवास उनके द्वारा अमृतसर में लगवाए ‘राम बाग़’ के मध्य में आज भी मौजूद है, जो शहर की ऐतिहासिक इमारतों में प्रमुख है।
यहां इस बात का जिक्र करना जरुरी है, कि सन् 1799 में लाहौर शहर पर कब्जा करने और सन् 1801 में स्वयं को “पंजाब का महाराजा” घोषित करने के बाद रणजीत सिंह ने सन् 1802 में अमृतसर को एक छोटे-से युद्ध के बाद अपने अधिकार में कर लिया था।
महाराजा अमृतसर में ज़्यादातर बैसाखी, दीवाली, दशहरा के मेलों पर या फिर किसी नए शहर या रियासत पर खालसा फ़ौज की विजय होने पर गुरू रामदास जी के दरबार में शुक्रिया अदा करने आते थे। शुरूआत में चूंकि शहर में उनका कोई सरकारी निवास नहीं था, इसलिए तब वे साहूकार रामानंद गोएंका और मिश्र छज्जू मल की हवेलियों में ठहरा करते थे, जो आज भी यहां मौजूद हैं।
अमृतसर के इतिहास के बारे में प्रकाशित पुस्तक ‘तवारीख-ए-लाहौर अमृतसर’ में इतिहासकार सुरेंद्र कोछड़ लिखते हैं, कि महाराजा रणजीत सिंह के दीवान मोती राम के सुपुत्र कृपा राम ने 84 एकड़ भूमि पर महाराजा के लिए लाहौर के शालीमार बाग़ की तर्ज पर एक सुंदर बाग़ लगवाया।
महाराजा ने पाँचवें पादशाह गुरू रामदास जी के नाम पर उसका नाम ‘राम बाग़’ रखा। उस वक्त इस बाग़ के मध्य शहर पर काबिज रही भंगी मिसल के सरदारों का कच्चा किला मौजूद था। महाराजा के आदेश पर उसे गिराकर वहां उनकी गर्मियों की रिहाइश के लिए सन् 1819 में एक आलीशान महल का निर्माण फकीर अजीजूदीन, लहिणा सिंह मजीठिया तथा देसा सिंह मजीठिया की देख-रेख में शुरू करवाया गया।
इस महल तथा इसके भवनों के निर्माण पर 10 वर्ष का समय लगा। उस दौरान बाग़ तथा बाग़ के मध्य बने ग्रीष्मकालीन महल के निर्माण पर एक लाख 25 हज़ार नानकशाही रुपये ख़र्च हुए। इसी तरह महल के सर्दखाने, महल की तीन तरफ की ड्योढ़ियों, मुख्य-द्वार और उसकी बाहरी ड्योढ़ी को बनवाने पर 68 हज़ार नानकशाही रुपये तथा बाग़ के चार कोनों पर सुरक्षा बुर्जियां और आठ बारादरियां बनवाने पर 20 हज़ार नानकशाही रुपये खर्च हुए।
समर पैलेस का निर्माण करते समय गुप्त मंत्रणा के लिए महल के नीचे तहखाना भी बनाया गया, जिसकी दीवारें 20 फुट से अधिक चौड़ी रखी गईं। तहखाने में कुदरती रोशनी का प्रबंध देखकर सहज ही आज भी अंदाजा लगाया जा सकता है, कि उस वक्त के कारीगर अपने काम में कितने कुशल थे। सख्त गर्मी के दिनों में भी इस तहखाने में किसी पंखे वगैरह की जरुरत महसूस नहीं होती है।
20वीं सदी के जाने-माने इतिहासकार वी.एन.दत्ता ने अपनी किताब, ‘अमृतसर-पास्ट एंड प्रेजेंट’ में लिखा है, कि फकीर अज़ीज़उद्दीन ने राम बाग़ परिसर में बने सभी स्मारकों पर लाल पत्थर लगवाने के लिए दिल्ली से माहिर कारीगर बुलवाए थे।
जी.एल. चोपड़ा ‘द पंजाब एज़ ए साॅवरियन स्टेट’ में लिखते हैं, कि 84 एकड़ में लगाए गए राम बाग़ के चारों ओर 14 फुट ऊँची दीवार बनाई गई और दीवार के चारों ओर 5 फुट चौड़ी तथा 5 फुट गहरी खाई खोदी गई, जिस में पानी हंसली नहर में से निकाले गए साफ पानी के नाले से भरा जाता था। महल के पिछली तरफ कोई 25-30 कदम की दूरी पर महाराजा के फ्रेंच जनरल वैनचूरा ने शाही औरतों के स्नान के लिए 20 हज़ार रूपये खर्च कर स्वीमिंग पूल का निर्माण करवाया, जो आज भी मौजूद है।
बाग़ में मौजूद चार बड़ी और चार छोटी बारादरियों में से आज रख-रखाव की कमी के चलते सात बारादरियां लुप्त हो चुकी हैं और आज मात्र एक छोटी बारादरी ही शेष बची रह पाई है। अमृतसर डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर, सन् 1892, एम. जार्ज ‘हिस्ट्री ऑफ़ द सिख्स’ तथा ‘द पंजाब हंड्रेड इयर्स अगो’ के अनुसार जब भी महाराजा अमृतसर आते तो समर पैलेस में ही ठहरते, तथा अक्सर उनके साथ आए उनके जनरल व मंत्री – जरनैल सुचेत सिंह, मीयां लाभ सिंह, गुलाब सिंह डोगरा तथा राजा ध्यान सिंह डोगरा महल की जिन बड़ी बारादरियों में ठहरते, उन बारादरियों के नाम उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध हो गए। जबकि महाराजा के सुपुत्र शहज़ादा खड़क सिंह, शहज़ादा शेर सिंह तथा कंवर नौनिहाल सिंह अमृतसर आने पर समर पैलेस के तीन ओर बनी ड्योढ़ियों में ठहरते और यहीं अदालत भी लगाते थे।
महल के प्रमुख प्रवेश द्वार की ड्योढ़ी जिस में मौजूदा समय आर्कियोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया का दफ्तर है, में महाराजा शेर सिंह के समय तथा उसके बाद तक अंग्रेज़ महमानों के लिए आलीशान भवन मौजूद थे तथा हर समय हाथियों की जोड़ी उनके स्वागत के लिए वहां उपस्थित रहती थी। इस ड्योढ़ी की दीवारों पर बनाए गए आकर्षक तेल चित्र ब्रिटिश शासन के दौरान लुप्त हो गए।
सर सी.एम. वैड ‘ए नैरेटिव ऑफ द सर्विसेज़, मिलिट्री एंड पाॅलिटिकल, लंडन, 1847’ में लिखते हैं, कि समर पैलेस के प्रमुख प्रवेश द्वार के समक्ष ‘तुंग झील’ हुआ करती थी। महाराजा को पैलेस में मिलने आने वाले ब्रिटिश अधिकारी उसी झील से कश्ती में बैठकर आते थे।
लेखक विलियम लुइस एमग्रेगोर ने अपनी किताब ‘द हिस्ट्री ऑफ द सिख्स’ में लिखा है कि 6 मार्च 1837 को ईस्ट इंडिया कंपनी के कमांडर-इन-चीफ हेनरी फैन ने महाराजा रणजीत सिंह से अमृतसर के राम बाग़ में मुलाकात की थी। दोनों ने एक दूसरे को तोहफे दिए थे और शांति तथा मैत्री कायम रखने का वादा किया था।
‘रिपोर्ट ऑन मलेरिया इन अमृतसर’ में दर्ज है, कि महाराजा रणजीत सिंह के देहांत के बाद उनके सरदारों एवं फौजी अफसरों ने समर पैलेस के आस-पास अपने घर बना लिए। घर इस बेढंगे ढंग से बनाए गए, कि जिन्होंने बाग़ और शाही महल की शानो-शौकत खत्म कर दी। जिस कारण बहुत सारे तत्कालीन अंग्रेज़ लेखकों ने इसे ‘जंगल महल’ से भी संबोधित किया है।
सन् 1849 में दूसरा एंग्लो-सिख युद्ध जीतने के बाद अंग्रेज़ों ने राम बाग़ सहित महाराजा रणजीत सिंह की तमाम सम्पत्ति पर कब्जा किया। महाराजा के पोते कंवर नौनिहाल सिंह द्वारा राम बाग़ के बनाए सनद (मैनेजर) भाई राम सिंह से ईस्ट इंडिया कंपनी ने राम बाग़ का नियंत्रण लेने के बाद बाग़ का नाम ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन की स्मृति में ‘कंपनी बाग़’ रख दिया।
ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा बाग़ और समर पैलेस को अपने अधिकार में लेने के बाद रणजीत सिंह के महल को डिप्टी कमिष्नर की अदालत में तब्दील कर दिया गया, जो सन् 1876 तक यहां कायम रही। पैलेस की एक ड्योढ़ी का इस्तेमाल ज़िला बोर्ड ऑफिस के रुप में होने लगा और इसका नाम बदलकर मैसी हॉल रख दिया गया। बाद में यह स्थानीय लोगों में जल बारादरी के नाम से लोकप्रिय हो गई। दो अन्य ड्योढ़ियों का उपयोग नगरपालिका के दफ्तर और जिला स्कूल के रुप में होने लगा। मुख्य-द्वार के बाहर ड्योढ़ी को पुलिस स्टेशन में तब्दील कर दिया गया और इसका नाम थाना सदर हो गया।
सन् 1860 में बैंक ऑफ बंगाल के एजेंट मिस्टर हसले ने बाग़ की मरम्मत का काम करवाया। जिसके चलते बाग़ के चारों ओर बनी सुरक्षा दीवार को ढ़हा दिया गया और पानी से भरी खाई को मिट्टी से भर दिया गया। उसी दौरान महाराजा रणजीत सिंह के देहांत के बाद बाग़ में बेढंगे ढ़ंग से बनाए गए घर भी गिरा दिए गए। सन् 1875 में हेनरी कोप ने सहारनपुर की पेड़-पौधों की सरकारी नर्सरी से सुंदर पेड़-पौधे मंगवाकर बाग़ में लगवाए, जिसके बाद सन् 1880 में एक बार फिर से राम बाग़ को राज्य के सभी बागों से खूबसूरत बाग़ घोषित किया गया था।
सन् 1919 के जलियांवाला बाग़ नरसंहार के मुख्य दोषी ब्रिगेडियर जनरल आर.ई.एच. डायर ने 11 अप्रैल 1919 को जालंधर से अमृतसर पहुंचने पर शुरूआती दिनों में महाराजा रणजीत सिंह के इसी ग्रीष्मकालीन महल को अपना निवास बनाया था। वह यहां एक सप्ताह से ज्यादा दिनों तक रुका। पैलेस के तीन ओर बनी ड्योढ़ियों में उसने सैनिक मुख्यालय, अधिकारियों की भोजनशाला (रसोई) तथा सिविल ऑफिस स्थापित कर दिए।
देश के विभाजन के फौरन बाद महाराजा रणजीत सिंह के समर पैलेस की अखरोट की पेड़ की लकड़ी से बनी छत को हटा दिया गया, क्योंकि उसकी ठीक से देखरेख नहीं हो पा रही थी। इसके बाद वहां सीमेंट से पक्का पलस्तर कर दिया गया। इसी तरह परिसर के कई भवनों की दीवारों पर लगाया लाल पत्थर भी हटा दिया गया और वहां चूना फेर दिया गया।
इसके साथ ही बाग़ के भीतर और भी बहुत से परिवर्तन किए गए। जिनके चलते दो अक्तूबर 1960 को बाग़ में माल रोड की तरफ महात्मा गांधी की प्रतिमा लगाई गई। इस काम के लिए नगरपालिका समिति ने तीस हज़ार रुपए दिए थे। सन् 1972 में, समर पैलेस महल के बिल्कुल पास सन् 1971 भारत-पाक युद्ध के शहीद वीर चक्र विजेता मेजर ललित मोहन भाटिया की भी प्रतिमा लगाई गई। इसी तरह मजीठा रोड की तरफ बाग़ में महाराजा रणजीत सिंह की विशाल प्रतिमा लगाई गई। 21 फुट ऊंची यह मूर्ति राम वनजी सुतार ने बनाई है, जिन्होंने हाल ही में गुजरात में विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा स्टेच्यू ऑफ यूनिटी डिज़ाइन की है। अंग्रेज़ी शासन के समय बाग़ की जो 14 फुट ऊंची ऐतिहासिक दीवार तोड़ दी गई थी, वर्ष 2001 में उसकी तर्ज पर बाग़ के चारों ओर पांच फुट ऊंची एक नई बाहरी दीवार बना दी गई थी।
बाग़ में अंग्रेजी दौर पर लीज़ पर शुरू किए गए सर्विस क्लब, लम्सडेन क्लब और अमृतसर क्लब जैसे कई सिविल क्लब आज लीज़ ख़त्म होने के कई वर्ष बाद भी ऐतिहासिक बाग़ में अपना कब्जा बनाए हुए हैं। यहां महाराजा रणजीत सिंह पैनोरमा भी है। नेशनल काऊंसिल ऑफ़ साईंस एंड म्यूज़ियम कलकत्ता द्वारा 5 करोड़ रूपये की लागत से 2500 सक्वेयर फुट क्षेत्र में तैयार किए गए इस पैनोरमा में लगे चित्रों और कलाकृतियों से सैलानियों को महाराजा के शानदार इतिहास के बारे में जानकारियां मिलती हैं।
हालांकि अब शाही बाग़ और समर पैलेस की वो शाही शान-शौकात तो कायम नहीं रह सकी; अलबत्ता आज यह बाग़ लोगों का मनोरंजन-स्थल जरूर बना हुआ है, जहां आज भी शेर-ए-पंजाब महाराजा सिंह की अन्य राजाओं व ब्रिटिश अधिकारियों के साथ हुई ऐतिहासिक सभायों का बुझा-बुझा सा अहसास होता है। जहां आज भी महाराजा की शान में किए जाने वाले उद्घोषों की आवाज़ महल की दीवारों के अंदर दम तोड़ती हुई सुनाई पड़ती है। परन्तु आज यहां अगर कुछ नहीं दिखाई पड़ता या जिसका अहसास नहीं होता या यूं कह लीजिए, जो इतिहास के सुनहरे पन्नों से लुप्त हो चुका है तो वो है, इस इमारत का वुजूद और इसका ऐतिहासिक रुप! जिसे सहेज कर रखना और इसका अस्तित्व कायम रखने की ज़िम्मेदारी सरकार और सभी विरासत प्रेमियों की है।
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