20वीं सदी के हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में एक ऐसा नाम आया जिसकी शख़्सिय ही हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का प्रयाय बन गई थी… वो नाम था… उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ां। उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ां को अक्सर 20वीं सदी का तानसेन कहा जाता है। वह संगीत के हर मायने में जीनियस थे और उन्होंने ख़ुद अपनी विशिष्ट शैली में शास्त्रीय संगीत में जादू बिखेरा। वह संभवत: उन चंद शास्त्रीय गायकों मे से थे जो राग और श्रोताओं दोनों की नब्ज़ और मिज़ाज को समझते थे और उसी के अनुसार हर राग की अवधि तय करते थे।
बड़े ग़ुलाम अली ख़ां का जन्म एक महान संगीत परिवार में हुआ था। उनका जन्म दो अप्रैल सन 1902 में क़सूर, पंजाब में हुआ था। विभाजन के पहले क़सूर पंजाब प्रांत का हिस्सा था लेकिन अब ये पाकिस्तान में है। उन्हें ख़ां साहब नाम से बुलाया जाता था। उन्होंने सारंगी बजाना अपने चचा काले ख़ां से सीखा था। काले ख़ां एक बड़े गायक थे और जम्मू-कश्मीर रियासत के दरबारी के संगीतकार थे। उस समय क़सूर संगीत, कला और संस्कृति के लिये मशहूर था। आख़िरकार बड़े ग़ुलाम अली ख़ां प्रसिद्ध पटियाला घराने के संरक्षक बन गए। पटियाला घराने की स्थापना उस्ताद अली ख़ां ने की थी। क़सूर पटियाला घराने के उस समय कई वंशज थे और उन्हीं में से एक थे उस्ताद अली बक्श ख़ां जो बड़े ग़ुलाम अली ख़ां के पिता थे। उस्ताद अली बक्श ख़ां ख़ुद भी मशहूर गायक थे। बड़े ग़ुलाम अली ख़ां ने पांच साल की उम्र में ही हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत सीखना शुरु कर दिया था बड़े ग़ुलाम अली ख़ां और उनके तीन छोटे भाई उस्ताद मुबारक अली ख़ां, उस्ताद बरकत अली ख़ां और उस्ताद अमानत अली ख़ां कसूर-पटियाला घराने के योग्य प्रतिनिधि थे।
संगीत घरानों को संगीत शैली भी कहा जाता है। इन स्कूलों या घरानों की जड़े संगीत के प्रशिक्षण और शिक्षा की पारंपरिक विधा में होती हैं। हर घराने की अपनी ही विशेषता होती है। कोई स्वर कैसे लगाया जाता है, यही घरानों के अंतर को दर्शाता है। प्रचलित स्वर को विभिन्न तरीक़ों से नया अंदाज़ देकर एक नया रुप दिया जाता है। कुछ प्रसिद्ध घराने हैं ग्वालियर घरानाउ जिसे स्ताद हस्सु ख़ां, उस्ताद हद्दु ख़ां और उस्ताद नाथु ख़ां ने स्थापित किया था।
बनारस घराना, पंडित गोपाल मिश्रा ने स्थापित किया था । जयपूर घराना, उस्ताद अल्लादिया ख़ाना ने स्थापित स्थापित किया था। इसी तरह भिंडी बाज़ार घराना उस्ताद छज्जु ख़ां के हाथों स्थापित हुआ था।
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के प्रमुख घरानों में पटियाला घराना एक है। पटियाला घराने से कई प्रमुख संगीतकार निकले थे जो 18वीं शताब्दी में मुग़ल साम्राज्य के बिखरने के बाद यहां आए थे। इन्हें पटियाला के शाही परिवार का संरक्षण हासिल था। 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ख़याल गायकी की पटियाला शैली का प्रतिनिधित्व घरानों की दो धाराएं करती हैं। एक धारा ने संगीत की दुनिया को अमानत अली ख़ां और फ़तेह अली ख़ां दिया। क़सूर से निकलने वाली दूसरी धारा ने बड़े ग़ुलाम अली ख़ां और उनके भाई बरकत अली ख़ां को पैदा किया।
क़सूर-पटियाला घराने की पारंपरिक शैली (शास्त्रीय शैली का एक रुप) अपने चाचा और पिता से सीखने के बाद बड़े ग़ुलाम अली ख़ां ने इसके साथ प्रयोग करने शुरु कर दिये। उन्होंने पुरानी परंपरा को तोड़ने का फ़ैसला किया क्योंकि उन्हें लगा कि जिस तरह वह गाते हैं उसका समकालीन श्रोताओं की संवेदनाओं से तालमेल होना बहुत ज़रुरी है। उन्हें फ़ौरन एहसास हो गया कि उस समय के संगीत प्रेमी बदलाव चाहते हैं और इसलिये उन्होंने गायन की अन्य शैलियों कोअपनी शैली में ख़ूबसूरती से पिरोया, वो शैली जिस पर वह पहले से ही महारत हासिल कर चुके थे। इस तरह से क़सूर-पटियाला, ध्रुपद के तत्व, ग्वालियर के अलंकार और जयपुर के पेच, इन चार पारंपरिक शैलियों को मिलाकर एक फ़्यूज़न (विलय) संगीत तैयार हुआ। बड़े ग़ुलाम अली ख़ां ठुमरी की बोल-बनाव परंपरा से आगे निकल गए। दिलचस्प बात ये है कि इसके पहले किसी ने भी क़सूर-पटियाला घराने की संगीत परंपरा में बदलाव करने की हिम्मत नहीं की थी। बड़े ग़ुलाम अली ख़ां ने न सिर्फ़ क़सूर-पटियाला घराने की संगीत परंपरा के साथ प्रयोग किये बल्कि इस नयी गायकी शैलीमें बेहद कामयाब भी रहे। शायद इसीलिये 20वीं सदी के बेहतरीन शास्त्रीय गायकों में उनका शुमार होता है।
संगीत की दुनिया में बड़े ग़ुलाम अली ख़ां का करिअर बहुत छोटा रहा। उन्होंने सन 1938 में कलकत्ता में और सन 1944 में बॉम्बे में अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में अपनी छाप छोड़ी। संगीत की जो भी विधा उन्होंने सीखी, लोग उन्हें उसका मास्टर कहते थे। काफ़ी लंबे समय तक उन्होंने ख़ुद को हिंदी सिनेमा से दूर रखा। आश्चर्य की बात है कि सन 1960 में उन्होंने सुपर हिट मूवी मुग़ल-ए-आज़म के लिये दो गाने गाए। उन्होंने राग सोहिनी और रागेश्वर गाया। फ़िल्म के निर्माता-निर्देशक के. आसिफ़ और उनके संगीत निर्देशक नौशाद को ख़ां साहब को गाने के लिये काफ़ी मनाना पड़ा था।
उस समय लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी जैसे लोकप्रिय गायकों को एक गाने के पांच सौ रुपये मिलते थे। चूंकि बड़े ग़ुलाम अली ख़ां फ़िल्मों के लिये गाना नहीं चाहते थे इसलिये उन्होंने के. आसिफ़ से गाने के लिये 25 हज़ार रुपये मांग लिये ताकि वह उनका पीछा छोड़ दें। लेकिन के. आसिफ़ ये रक़म देने के लिये राज़ी हो गए। और जैसा कि हम सब जानते हैं फ़िल्म अमर हो गई। फ़िल्म के गानों के टाइटल हैं प्रेम जोगन बन के और शुभ दिन आयो राज दुलारा। बाक़ी गाने मशहूर ठुमरी हैं। इनमें याद पिया की आये, आये न बालम और प्रेम के फंदे में शामिल हैं। काफ़ी लोगों को शायद ये नहीं पता है कि ख़ां साहब ने पटियाला के महाराज और अफ़ग़ानिस्तान के अंतिम बादशाह मोहम्मद ज़ाहिर शाह के दरबार में भी गाया था।
उस समय बहुत से लोगों को इस महान गायक की गायकी समझ में नहीं आती थी। सौभाग्य से उनके गाने भारत की हर रिकॉर्ड कंपनी ख़ासकर एचएमवी के पास उपलब्ध हैं। एचएमवी के लिये उन्होंने ठुमरी और ख़याल की छोटी-छोटी बंदिशें रिकॉर्ड करवाई थीं। सन 1990 के अंतिम दशक में उनके कई गाने म्यूज़िक कंपनियों ने फिर रिलीज़ किए। ये सब डिजिटल मीडिया पर उपलब्ध हैं। उनके लोकप्रिय एलबम में एक एलबम है मेहफ़िल जिसमें एक घंटे की तीन रिकॉर्डिंग हैं। ये गाने तोड़ी, पीलू और भैरवी जैसे अलग अलग रागों पर आधारित हैं। इस एलबम में भी ठुमरी सहित तीन गाने हैं। अन्य दो गाने मालकौंस और बागेश्वरी जैसे रागों पर आधारित हैं। हिंदुस्तानी क्लासिकल्स इंडियन क्लासिकल वोकल म्यूज़िक में 19 रिकॉर्डिंग हैं और सभी गाने बड़े ग़ुलाम अली ख़ां ने गाये हैं। ये गाने भूपाली, रागेश्री, पीलू, कामोद और परज जैसे अन्य कई रागों पर आधारित हैं। बड़े ग़ुलाम अली ख़ां ने मालकौंस, जयजयवंती, कामोद, केदार, भैरवी और पहाड़ी जैसे रागों को अलग आयाम और अर्थ दिया।
उस्ताद अमजद अली ख़ां ने अपनी किताब “ मास्टर ऑन मास्टर्स “ में भारतीय शास्त्रीय संगीत की कुछ महान विभूतियों के जीवन और उनके समय के बारे में लिखा है। वह बड़े ग़ुलाम अली ख़ां के बारे में लिखते हैं,“परिपाटी के बरक्स ख़ां साहब इस बात से सहमत थे कि प्रयोग में ही शास्त्रीय संगीत की ख़ूबसूरती बसती है। उनका मानना था कि श्रोता लंबे गाने पसंद नहीं करेंगे। उन्होंने ज़मज़मा सरगम बनाया, उन्होंने ख़याल गायकी में सुंदर मनोभाव और मुद्राएं पैदा कीं। उन्होंने स्थाई अंतरा, बोल तान, शुद्ध और साफ़ सुर, आठ सुरों की तीन तान, चौत की तान, ड्योढ़ी की तान और गमक आदि बनाए। उन्होंने ख़याल गायकी को इतना जानदार बना दिया था कि इसे सुनकर भारतीय संगीत प्रेमी मंत्रमुग्ध हो जाते थे। ख़ां साहब की ठुमरी और दादरा बेजोड़ था। उनकी अनोखी शैली और ख़ासकर जिस तरह से वह ठुमरी पेश करते थे वो पहले पंजाब में नहीं होती थी। इन तमाम चीज़ों ने संगीत के रुप की अवधारणा बदलकर रख दी। ठुमरी मूलत: पूरब अंग से थी लेकिन ख़ां साहब इसे पंजाब लाए और इसे इतना रोचक बना दिया कि सारे उप-महाद्वीप में ये लोकप्रिय हो गई।”
सन 1947में विभाजन के समय बड़े ग़ुलाम अली ख़ां ने पाकिस्तान को चुना क्योंकि पाकिस्तान में उनका जन्मस्थान क़सूर था। लेकिन दस साल बाद तबके बॉम्बे के मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई की मदद से वह भारत आ गए और उन्होंने यहां की नागरिकता ले ली। वह बॉम्बे के मालाबार हिल्स में एक बंगले में रहने लगे। वह अक्सर सफ़र में रहा करते थे। वह सारी ज़िंदगी कलकत्ता और लाहौर जैसे कई शहरों में रहे और फिर हैदराबाद में बस गए।
बड़े ग़ुलाम अली ख़ां अपने जीवनकाल में ही एक संस्थान बन गए थे। उनके भारत और पाकिस्तान में कई शागिर्द थे जैसे नूरजहां, फ़रीदा ख़ानुम, ग़ुलाम अली, मीरा बैनर्जी, तुलसी दास शर्मा और बिहारी लाल। अपने छोटे से करिअर में उन्हें पद्म भूषण (1962) संगीत नाटक अकादमी सम्मान (1962), आफ़ताब-ए-मौसीक़ी सम्मान और संगीत सम्राट सम्मान मिला। आफ़ताब-ए-मौसीक़ी अवार्ड उस्ताद फ़ैयाज़ ख़ां के सम्मान में दिया जाता है जो ख़ुद एक महान शास्त्रीय गायक थे। उन्हें सुर देवता जैसे प्रतिष्ठित सम्मान से भी सम्मानित किया गया। बड़े ग़ुलाम अली ख़ां इतने छोटे करिअर मे इतने सारे अवार्डजी तने वाले विरले व्यक्ति थे।
23 अप्रैल सन 1968 को एक लंबी बीमारी के बाद उनका हैदराबाद के बशीरबाग़ पैलेस में बेहद ग़रीबी की हालत में निधन हो गया। तब वह 66 साल के थे। बड़े ग़ुलाम अली ख़ां को पुराने बैदराबाद शहर के दायरा मीर मोमिन में दफ़्न किया गया। ये क़ब्रिस्तान चार सौ साल पुराना है जहां कई बड़ी हस्तियों की क़ब्रें हैं। उनके निधन से कई लोगों को सदमा पहुंचा लेकिन उनकी धरोहर को उनके पुत्र मुनव्वर अली ख़ां ज़िंदा रखे हुए हैं। बशीरबाग़ में मुख्य सड़क का नाम बड़े ग़ुलाम अली ख़ां के नाम पर रखा गया है।
सन 1989 में मुनव्वर अली के निधन के बाद, बड़े ग़ुलाम के पोते उस्ताद मज़हर अली ख़ां, उस्ताद जावेद अली ख़ां, उस्ताद रज़ा अली ख़ां और नक़्क़ी अली ख़ां अपने दादा की विरासत को उसी तहज़ीब के साथ संजोकर रखे रुये हैं।
बड़े ग़ुलाम अली ख़ां के पोते उस्ताद रज़ा अली ख़ां अपने दादा को किसी जादूगर से कम नहीं समझते। वह कहते हैं-“जिस तकनीकी नफ़ासत से बड़े ग़ुलाम अली ख़ां ने कल्पना और संवेदना का मेल किया वो दुर्लभ घटना थी। वो जो भी सोचते थे, वो उनकी गायिकी में दिखने लगता था।”
संगीत की दुनिया के लिये बड़े ग़ुलाम अली ख़ां को भूल पाना कभी संभव नहीं होगा क्योंकि उन्होंने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में अपनी दुर्लभ योग्यता और दूरदर्शिता की वजह से संगीत प्रेमियों को दिलों में स्थाई जगह बना ली थी।
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