3 संगीतकार जिन्होंने अपना जीवन शास्त्रीय संगीत को समर्पित किया

3 संगीतकार जिन्होंने अपना जीवन शास्त्रीय संगीत को समर्पित किया

क्या आप जानते हैं कि हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का जन्म 13 वीं शताब्दी में हुआ था जब इस्लाम उपमहाद्वीप के उत्तरी हिस्सों में आया था? तब, अत्यधिक प्रभावशाली अरब और फारसी संगीत प्रथाओं ने हिंदू परंपराओं के साथ विलय कर दिया, जिससे संगीत का एक नया रूप सामने आया।

आज हम आपको भारत के तीन संगीतकारों की कहानियां बताते हैं जिन्होंने शास्त्रीय संगीत के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।

1- बेगम अख़्तर

बेगम अख़्तर का जन्म सात अक्टूबर सन 1914 को उत्तर प्रदेश के फ़ैज़ाबाद में गुलाब बाड़ी में हुआ था। उनके पिता, असग़र हुसैन लखनऊ में एक सिविल जज थे, जिन्हें मुश्तरी बाई जो तवायफ़ थीं उनसे प्यार हो गया और उन्हें अपनी दूसरी पत्नी बना लिया।

उनके मामा ने मुश्तरी बाई को एक शास्त्रीय गायिका के रूप में बेगम अख्तर को प्रशिक्षित करने के लिए राज़ी किया, मामू के कहने पर बेगम अख़्तर ने संगीत की दुनिया में क़दम रखा और पहले उन्होंने पटना के सारंगी वादक इमदाद ख़ां, फिर पटियाला घराने के अता मोहम्मद ख़ां और फिर किराना घराने के अब्दुल वाहिद ख़ां से संगीत की तालीम ली जो उस समय लाहौर में रहते थे। ये सभी शास्त्रीय संगीत के उस्ताद थे। बेगम अख़्तर को चाहने वाले ज़्यादातर लोगों को ये जानकर ताज्जुब हो सकता है कि विशुद्ध शास्त्रीय संगीत की परंपरा में इन उस्तादों की महारत ठुमरी, ग़ज़ल और दादरा जैसी गायन विधा में थी। यही वजह है कि बेगम अख़्तर का रुझान मूलत: शास्त्रीय धुनों की तरफ़ ही रहा। उसका प्रशिक्षण विभिन्न गुरुओं के तहत शुरू हुआ जिन्होंने उसे स्वाभाविक रूप से उपहार स्वर में ढालने की कोशिश की। उन्होंने अपने गीत को स्मृति के परित्यक्त गलियारों से गुजरने दिया। उनकी आवाज में एक चुभन भरा दर्द था जिसने हर दिल में अपनी जगह बनाई।

बेगम अख़्तर | विकिमीडिया कॉमन्स

बेगम अख़्तर ने 15 साल की उम्र में पहली बार सार्वजनिक रुप से गायन की प्रस्तुती दी। उनके शास्त्रीय गायन में संगत के लिये सिर्फ़ पारंपरिक तबला, सितार और हारमोनियम जैसे वाद्य यंत्र थे। लोग उन्हें सुनकर दंग रह गए और उनकी फ़ौरन एक पहचान बन गई। उनकी ग़ज़ल गायिका की चर्चा प्रसिद्ध भारतीय कवयित्री और क्रांतिकारी सरोजनी नायडू तक जा पहुंची। सरोजिनी नायडू ने उन्हें वहां गाते सुना और उनकी प्रतिभा की सराहना की।

मेगाफ़ोन रिकॉर्ड कंपनी ने उनका पहला रिकॉर्ड बनाया और उनकी ग़ज़लों, ठुमरी, दादरा आदि के कई ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड्स जारी किये। बेगम अख़्तर ने तीस के दशक में कई हिंदी फ़िल्मों में भी काम किया जैसे अमीना (1934), मुमताज़ बेगम (1934), जवानी का नशा (1935), नसीब का चक्कर (1935) आदि। इन फ़िल्मों में उन्होंने उन पर फ़िल्माये गये सभी गाने ख़ुद गाए थे। उन्होंने सत्यजीत रे की जलसघर (1958) में एक शास्त्रीय गायिका की भूमिका निभाई, जो उनकी अंतिम फिल्म थी। और पढ़ें

2- पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर

रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम

सीताराम सीताराम, भज प्यारे तू सीताराम

ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सब को सन्मति दे भगवान

राम रहीम करीम समान, हम सब है उनकी संतान

सब मिला मांगे यह वरदान, हमारा रहे मानव का ज्ञान

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और उनके अनुयायी जब भारत में अंग्रेज़ शासन का विरोध करते हुए नमक सत्याग्रह के तहत डांडी तक 385 कि.मी. लंबा मार्च निकाल रहे थे तब वे यही भजन गा रहे थे। ये गांधी जी के सबसे पसंदीदा भजनों में से एक था लेकिन क्या आपको मालूम है कि इस भजन को पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर ने लिखा, संगीत दिया और पहली बार ख़ुद ही गाया भी था ? वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने गंधर्व महाविद्यालय की स्थापना की थी और हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को जन जन तक पहुंचाया था।

पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर का जन्म 18 अगस्त सन 1872 में महाराष्ट्र के कुरुंदवाड़ में हुआ था। उनके पिता दिगंबर गोपाल पलुस्कर कीर्तन करते थे।

पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर | विकिमीडिया कॉमन्स

युवा अवस्था में पलुस्कर एक स्थानीय स्कूल में पढ़ते थे लेकिन एक हादसे की वजह से उन्हें पढ़ाई छोड़नी पड़ी। किसी त्यौहार के मौक़े पर एक पटाख़ा उनके चेहरे के पास फूट गया जिसकी वजह से उनकी आंख की रौशनी आंशिक रुप से जाती रही। उनके लिये पढ़ना-लिखना मुश्किल हो गया था। संकट की ऐसी घड़ी में उम्मीद खोने के बजाय उनके पिता ने उन्हें संगीत की तरफ़ मोड़ दिया। संगीत की उनकी नैसर्गिक प्रतिभा को देखते हुए उन्हें पास के शहर मिराज भेज दिया जहां प्रसिद्ध संगीतकार पंडित बालकृष्ण बुआ इचलकरंजीकर संगीत की शिक्षा देते थे। ग्वालियर घराने के इचलकरंजीकर हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ख़याल गायकी के गायक थे। पलुस्कर ने क़रीब एक दशक तक उनसे संगीत सीखा। ये वो समय था जब उन्हें संगीत सीखने के लिये गहन साधना और परिश्रम दौर से गुज़रना पड़ा था। और पढ़ें

3- उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां

उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां का असली नाम क़मरुद्दीन ख़ां था। उनका नाम उनके दादा उस्ताद रसूल बक्श ख़ां ने रखा था। जब वह पैदा हुए थे तब उन्हें देखकर दादा ने धीरे से बिस्मिल्ला कहा था जिसका शाब्दिक अर्थ होता है अल्लाह के नाम पर। इस तरह उनका नाम बिस्मिल्लाह पड़ गया। बिस्मिल्लाह ख़ां का जन्म बिहार के दुमरांव में भीरुंग रावत की गली में, संगीतकारों के परिवार में, 21 मार्च सन 1916 को हुआ था। वह पिता पैग़म्बर ख़ां और मां मिठ्ठन की दूसरी औलाद थे। उन्हें प्यार से क़मरउद्दीन बुलाया जाता था जो उनके बड़े भाई शम्सउद्दीन से मिलता जुलता था।शम्सउद्दीन भी एक जाने माने शहनाई वादक थे। बिस्मिल्लाह ख़ां के सभी पूर्वज भारत की रियासतों के दरबार में संगीतकार हुआ करते थे और उनके पिता पैग़म्बर ख़ां ख़ुद दुमरांव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरबारी संगीतकार थे।

पारंपरिक रुप से शहनाई वादक बनारस शैली में कजरी, चैती, ठुमरी और दादरा जैसी हल्की धुन बजाया करते थे लेकिन बिस्मिल्लाह ख़ां ने शहनाई पर हल्की धुनों में राग बजाये। बिस्मिल्लाह ख़ां ने 14 साल की उम्र में पहली बार सन 1930 में, इलाहबाद में अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में शहनाई बजाई। दूसरी बार उन्होंने लखनऊ में आयोजित संगीत समारोह में शहनाई बजाई जिसे बहुत सराहा गया और उन्हें स्वर्ण पदक भी मिला। लेकिन सन 1937 में कलकत्ता में अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में जब उन्होंने शहनाई बजाई तब उन्हें एक प्रतिभाशाली संगीतकार के रुप में स्वीकार किया गया। इस सम्मेलन में उन्होंने तीन स्वर्ण हासिल किए थे । कलकत्ता में उनके शहनाई वादन ने लोगों का शहनाई वाद्य-यंत्र के प्रति नज़रिया बदल दिया।

उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां | विकिमीडिया कॉमन्स

उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां के संगीत मे कई रंग शामिल थे और वह जानते थे कि श्रोता क्या सुनना चाहते हैं। बहुत से लोगों को ये नहीं पता है कि उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां को 15 अगस्त सन 1947 को पहले स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल क़िले पर शहनाई बजाने का गौरव प्राप्त हुआ था। इसके अलावा 26 जनवरी सन 1950 को भी उन्होंने भारत के पहले गणतंत्र दिवस समारोह में शहनाई वादन किया था। ख़ां साहब ने लाल क़िले की प्राचीर पर राग काफ़ी बजाया था जो स्वतंत्रता दिवस समारोह का अभिन्न अंग बन गया था और दूरदर्शन पर हर साल प्रसारित किया जाता है। लाल क़िले से प्रधानमंत्री के भाषण के बाद दूरदर्शन बिस्मिल्लाह ख़ां की शहनाई का प्रसारण करता आ रहा है।ये परंपरा पंडित नेहरु के समय में शुरु हुई थी। और पढ़ें

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