स्वतंत्रता सैनानी और समाज सुधारक बिपिन चंद्र पाल ने एक बार कहा था-“मुझे शक़ है कि जिस तरह निवेदिता भारत से प्रेम करती थी, उस तरह किसी और ने भारत से प्रेम किया होगा।”
सिस्टर निवेदिता का जन्म और लालन पालन हालंकि आयरलैंड में हुआ था लेकिन उन्होंने भारत को न सिर्फ़ अपनी कर्मभूमि के रुप में अपनाया बल्कि इसे प्रेम से भी ज़्यादा बहुत कुछ दिया। निवेदिता भारत में 13 वर्षों तक रहीं और इस दौरान वह स्वामी विवेकानंद की अनुयायी बन गईं। उन्होंने जगदीश चंद्र बोस के वैज्ञानिक शोध के लिये फ़ंड जमा करने में मदद की, उनके शोध को दुनिया भर में फ़ैलाया, प्रसिद्ध बंगाल स्कूल ऑफ़ आर्ट की स्थापना में मदद की और “भारत माता” का पहला चित्र बनाने के लिये अवनींद्रनाथ टैगोर को प्रेरित किया। उनके द्वारा बनाया गया “भारत माता” का चित्र बाद में भारत का एक प्रभावशाली चिन्ह बन गया। वह जिनसे भी मिली उन सभी को उन्होंने प्रेरित किया। वह भारत में रहते हुए राष्ट्र की आत्मा और पुनर्जागरण में पूरी तरह डूब गईं थीं।
निवेदिता का जन्म उत्तरी आयरलैंड में एक स्कॉट-आयरिश परिवार में सन 1867 में हुआ था। उनका नाम मार्गरेट एलिज़ाबेथ नोबल था। शुरु में ही उन्हें अध्यात्म की शिक्षा मिली। उनके पिता पादरी थे जिन्होंने बचपन से ही उनके भीतर सेवा भाव पैदा किया था। 17 साल की उम्र में वह इंग्लैंड में केसविक के एक स्कूल में पढ़ाने लगीं और सन 1892 तक आते आते उन्होंने उत्तरी आयरलैंड में अपना ख़ुद का स्कूल खोल दिया।
सिस्टर निवेदिता एक सफल लेखिका और प्रयोगवादी शिक्षाविद थीं। बहुत जल्द उनका नाम प्रतिष्ठित हो गया और उनकी सफलता की वजह से उनका लंदन के बुद्धिजीवियों के बीच उठना बैठना शुरु हो गया। सन 1895 में वह एक “हिंदू योगी” का भाषण सुनने के लिये एक निजी सामाजिक आयोजन में गईं। इस योगी की तब यूरोप और अमेरिका में धूम मची हुई थी। बस यहीं से उनके जीवन की धारा बदल गई।
जिस योगी से वह मिलीं थीं, वह थे स्वामी विवेकानंद। वह स्वामी विवेकानंद के विचारों ओर सिद्धांतों से बहुत प्रभावित हुईं और कुछ मुलाक़ातों के बाद उन्होंने भारत आने का फ़ैसला किया। स्वामी विवेकानंद को मार्गरेट में भाईचारे की ऐसी भावना दिखाई दी जो महिलाओं को प्रेरित कर सकती थी और शिक्षा हासिल करने में नकी दिलचस्पी बढ़ा सकती थी। सन 1898 में मार्गरेट का भारत पहुंच गईं थीं।
भारत में पहले चंद वर्षों तक स्वामी विवेकानंद ने उन्हें भारत के इतिहास, दर्शन, परंपराओं और साहित्य के बारे में समझाया। नोबल ने ब्रह्मचर्य का पालन करने का फ़ैसला कर लिया और उन्हें “निवेदिता” नाम दिया गया जिसका अर्थ होता है “ समर्पित व्यक्ति” । अपनी किताब “द मास्टर एज़ आई सॉ हिम” में वह लिखती हैं-
‘उनके व्याख्यानों में राजपूतों का पराक्रम, सिखों की आस्था, मराठों का साहस, संतों की उपासना और नेक महिलाओं की पवित्रता तथा दृढ़ता….जैसे सब कुछ जी उठता था। उन्होंने मुसलमानों की अनदेखी करने को भी नहीं कहा। वह जब भी महान लोगों के नाम लेते थे तब उनमें हुमांयू, शेर शाह, अकबर और शाहजहां जैसे सैकड़ों मुसलमानों के नाम भी आते थे।’
शिक्षा के इस दौर के बाद सिस्टर निवेदिता ने भारत में जम गईं और उन्होंने सन 1898 में कलकत्ता के बाग़बाज़ार इलाक़े में रुढिवादी परिवारों की लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला। सन 1899 में कलकत्ता में प्लेग की महामारी के दौरान सिस्टर निवेदिता ने मरीज़ों की सेवा की और सड़कों की सफ़ाई की मुहिम में शामिल हुईं।
सन 1902 में स्वामी विवेकानंद का देहांत हो गया। अपने आध्यात्मिक गुरु की ग़ैरमौजूदगी में निवेदिता ने अपनी सामाजिक भूमिका से परे राजनीतिक गतिविधियों में भी सक्रिय होने का फ़ैसला किया। सन 1902 और सन 1906 के बीच उन्होंने राजनीतिक लामबंदी पर काम किया और गोखले जैसे नरमपंथी नेताओं को उग्र राष्ट्रवादियों के साथ बातचीत करने की सलाह दी। निवेदिता ने श्री अरबिंदो के गुप्त क्रांतिकारी आंदोलन का भी साथ दिया और देश भर में घूम घूमकर अपने भाषणों से युवाओं को स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिये प्रेरित किया।
सन 1905 में बंगाल के प्रलयकारी विभाजन ने राष्ट्रीय चेतना को झकझोर कर रख दिया था और ऐसे समय में निवेदिता ने अपने लेखन और भाषणों से स्वदेशी मुहिम को भरपूर समर्थन दिया।
ये वो समय था जब भारत अपनी पहचान फिर तलाश रहा था। अंग्रेज़ियत छाई हुई थी जिसमें ‘पूर्वी देशों को कमतर समझा जाता था और उन्हें सभ्य बनाने की ज़रुरत की बात होती थी।‘ अंग्रेज़ी मानसिकता की प्रतिक्रिया में भारतीय बुद्धिजीवी ख़ुद से सवाल कर रहे थे कि ‘भारतीय होने का मतलब क्या है?’
निवेदिता इस बौद्धिक उबाल में पेशपेश थीं और उन्होंने अपनी बात पुरज़ोर तरीक़े से रखने का फ़ैसला किया। उन्होंने कर्मा योगिनी पत्रिका में लिखा-
‘भास्कराचार्य और शंकराचार्य के देश के लोग क्या न्यूटन और डार्विन के देश के लोगों से कमतर हैं? हमें पूरा विश्वास है कि ऐसा नहीं है। ये हम पर निर्भर करता है कि जो वैचारिक शक्ति हमें मिली है, उसकी मदद से हम, हमारे ख़िलाफ़ खड़ी विरोध की लोहे की दीवार को तोड़कर गिरा दें और विश्व की बौद्धिक संप्रभुता को हासिल कर उसका आनंद लें।’
सिस्टर निवेदिता ने अपने इन विचारों को अमली जामा पहनाया और प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बोस के शोध के लिये फ़ंड का इंतज़ाम किया तथा उनके काम को विश्व में प्रचारित करने में मदद की।
उन्होंने भारतीय कलाकारों से अजंता और मुग़लकाल की चित्रकारी जैसी उनकी ख़ुद की कलात्मक परंपराओं की जड़ें तलाशनें को कहा। ये आव्हान उन्होंने ऐसे समय पर किया था जब भारतीय कलाकार पश्चिम की कला से प्रभावित थे।
भारतीय कला को दोबारा ज़िंदा करने के प्रयासों में उन्होंने आनंद कुमार स्वामी और ई.बी. हैवल जैसे विशेषज्ञों को अपने साथ जोड़ा और बंगाल स्कूल ऑफ़ आर्ट की स्थापना की। देश को मां की तरह पूजने का विचार भी उनका ही था जिसने अवींद्रनाथ टैगोर को “भारत माता” का चित्र बनाने के लिये प्रेरित किया और जिसके पोस्टर लोगों को एकजुट होने के लिये सारे देश में वितरित किए थे।
सन 1906 में पूर्वी बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा और सिस्टर निवेदिता राहत कार्य में जुट गईं। इस दौरान उन्हें मलेरिया हो गया जो बहुत गंभीर था। इससे उबरने में उन्हें कई महीने लगे लेकिन इसका उनकी सेहत पर बुरा असर पड़ा और आख़िरकार सिर्फ़ 44 साल की उम्र में सन 1911 में उनका निधन हो गया।
आज भारत में कई सड़कों और संस्थानों के नाम सिस्टर निवेदिता के नाम पर हैं लेकिन दार्जिलिंग में उनका स्मारक उपेक्षित है और उनका योगदान भी लगभग भुला दिया गया है।
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