तख़्त-ए-बही: बौद्ध साम्राज्य का गवाह

तख़्त-ए-बही: बौद्ध साम्राज्य का गवाह

पाकिस्तान के उत्तरपूर्वी पेशावर शहर से बस 80 कि.मी. दूर जाते ही आपको एक बौद्ध मठ दिखाई देगा। यह मठ दो हज़ार साल पुराना है । हालंकि अब ये खंडहर में तब्दील हो चुका है। खंडहरनुमा मठ एक ऐसी पहाड़ी पर है जहां से दर्र-ए-ख़ेबर का व्यापारिक मार्ग नज़र आता है। हम यहां आपको बताने जा रहे हैं तख़्त-ए-बहि की कहानी।

प्राचीन शहर तक्षशिला पर बहुत काम हो चुका है जो तख़्त-ए-बहि से बहुत दूर नहीं है।

हालांकि तख़्त-ए-बहि गंधार-युग का स्मारक है और यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज की सूची में भी शामिल है फिर भी यह लोगों के लिये एक अनजान जगह है।

जग़ह - तख़्त-ए-बहि  | विकिमीडिआ कॉमन्स 

फ़ारसी में तख़्त का मतलब होता है सिंहासन और बहि का मतलब होता है जलाशय। चंद लोगों को लगता है कि यह नाम,मठ परिसर के इस्तेमाल के लिये दो बड़े जलाशयों के नाम पर रखा गया होगा। इसके इतिहास और निर्माण के समय की जानकारी यहां खरोष्ठी लिपि में लिखित शिला-लेखों से मिलती है।

एक शिला-लेख के अनुसार ये राजा गोंडोफ़र्नीज के शासनकाल के 26वें साल में लिखा गया था। शोध से पता चला है कि गोंडोफ़र्नीज इंडे-पार्थियन या इंडो-पहलवी साम्राज का संस्थापक था। ये सम्राज 19-46 ई. तक रहा था। गोंडोफ़र्नीज, ईरानी साम्राज्य पहलवी से ख़ुद को स्वतंत्र घोषित करके, पूर्व दिशा की ओर कूच कर गया था। इस दौरान उसने अफ़ग़ानिस्तान और गंधार सहित उत्तरपूर्वी भारतीय उपमहाद्वीप के कई हिस्सों को जीत लिया था।

गोंडोफ़र्नीज के वंशजों का भी नाम गोंडोफर्नीज होता था और इसलिये विद्वानों के लिये ये तय करना मुश्किल रहा कि शिला-लेख में वर्णित गोंडोफ़र्नीज कौन-सा गोंडेफ़र्नीज है। लेकिन एक बात तो तय है कि तख़्त-ए-बहि की स्थापना इंडो-पहलवी शासकों ने की थी। स्थापना के फ़ौरन बाद इस पर कुषाण ने कब्ज़ा कर लिया और तख़्त-ए-बहि कुजुला कादफ़ीस (30-80 ई.) के नियंत्रण में आ गया। कोजोला कादफ़ीस पहला कुषाण राजा था और कनिष्क का पर दादा था।

गोंडोफ़र्नीज के सिक्के  | विकिमीडिआ कॉमन्स 

कुषाण बोद्ध धर्म के अनुयायी और संरक्षक थे। उनके शासन काल में तख़्त-ए-बहि ख़ूब फलाफूला। ये गंधार के मठों में सबसे अनूठा माना जाता है।

तख़्त-ए-बहि परिसर को कई हिस्सों में बांटा जा सकता है। इनमें पहला है स्तूप-आंगन। इस आंगन के बीच में कई स्तूप हैं। दूसरे हिस्से में कई आप्रकोष्ठ हैं जहां कमरे हैं जिनमें बौद्ध भिक्षु रहते थे। इसके अलावा यहां सभागार, लाईब्रेरी, भोजन करने का कमरा भी है।

स्तूप आंगन का विवरण | विकिमीडिआ कॉमन्स 

तीसरी शताब्दी में बुद्ध की आदमक़द और मझोली मूर्तियां तथा मंदिर के लिये यहां बहुमंज़िला चौकोर मठ बनाया गया था। ये हिस्सा यहां का पवित्र स्थल माना जाता था। इसी अवधि में यहां 21 छोटे स्तूप और अवशेष रखने के लिये चार मंदिर बनाये गए थे। यहां के सभी भवन स्थानीय पत्थरों से बने हैं जिन पर नींबू और मिट्टी के गारे का लेप है।

मुख्य स्तूप  | विकिमीडिआ कॉमन्स 

यहां ये बात देखने लायक़ है, चूंकि तख़्त-ए-बहि परिसर दूर दराज़ के इलाक़े में था इसलिये इस पर हूण समुदाय की नज़र नहीं पड़ी वर्ना वो इस पर ज़रुर हमला करते। हूण मध्य एशिया का एक क़बायली समुदाय था जो पांचवीं या छठी शताब्दी के आरंभ में दर्र-ख़ैबर से भारतीय महाद्वीप में दाख़िल हुआ था और उसने उत्तरपूर्वी क्षेत्रों पर कब्ज़ा किया था। चूंकि तख़्त-ए-बहि पर इनकी नज़र नहीं पड़ी इसलिये ये मेहफूज़ रह गया।

तख़्त-ए-बहि 7वीं शताब्दी के अंत तक आबाद रहा लेकिन इसके बाद दान और संरक्षण के अभाव में बौद्ध भिक्षुओं को यहां से जाना पड़ा। ये स्थल 19वीं शताब्दी के मध्य में तब सुर्ख़ियों में आया जब महाराजा रणजीत सिंह के एक फ़्रांसीसी अधिकारी ने सन 1836 में अपनी रिपोर्ट में इसका ज़िक्र किया। इसके बाद से ही प्राचीन कलाकृतियों का संग्रह करने वाले यहां आने लगे।

लेफ़्टिनेंट लुम्सडेन और स्टोक्स की खोज के बाद यहां सन 1852 में खुदाई शुरु हुई। सन1872-73 में भारतीय पुरातत्व के पितामह एलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने इस स्थल का चित्र बनाया था।

तख़्त-ए-बही का काल्पनिक नख्शा  | विकिमीडिआ कॉमन्स 

खुदाई में मिट्टी, टेराकोटा और महीन चूने की 270 से ज़्यादा मूर्तियां मिली थीं। इनमें से 220 मूर्तियां तीसरी और पांचवी शताब्दी की थीं। खंडहर से दो और तीन मंज़िला मठों के अस्तित्व का पता चलता है जहां क़रीब 250 से 300 लोग रहते रहे होंगे।

मूर्तिकला स्थल से मिली | विकिमीडिआ कॉमन्स 

सन 1980 में यूनेस्को ने तख़्त-ए-बहि और उसी अवधि के सहर-ए-बहलोल को अपनी वर्ल्ड हेरिटेज सूची में शामिल किया था। ये दोनों परिसर क़रीब 33 हेक्टेयर भूमि पर फैले हुए हैं। सहर-ए-बहलोल का खंडहर कुषाण काल के एक छोटे प्राचीन क़िलाबंद शहर के अवशेष बताये जाते हैं।

साइट पर सिर और पैरों की मूर्तियां केअवशेष  | विकिमीडिआ कॉमन्स 

दुर्भाग्य से आज पाकिस्तान की इस सांस्कृतिक धरोहर पर ख़तरा मंडरा रहा है। अतिक्रमण, बेलगाम खेती, ग़ैरक़ानूनी खनन और स्थानीय कारख़ानों से होने वाले प्रदूषण से ये धरोहर धीरे धीरे नष्ट हो रही है। वो धरोहर जो बौद्ध सम्राज्य का एक शानदार उदाहरण हुआ करती थी और जिसका 800 साल के दौरान विकास हुआ था, वो आज बिना छत और दीवार के एक खंडहर में तब्दील हो चुकी है।

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