शेख़ चिल्ली का नाम सुनते ही ज़हन में एक ऐसे शख़्स की तस्वीर उभरती है जो डींगे मारता है और जिसका चरित्र मज़ाकिया है। ये तस्वीर बचपन से हमारे ज़हन में नक़्श है। कभी तो लगता है कि शेख़ चिल्ली नाम का कोई शख़्स वाक़ई कोई था भी या फिर ये महज़ एक काल्पनिक चरित्र है|
माना जाता है कि शेख़ चिल्ली मुग़ल शहज़ादे दारा शिकोह के धार्मिक गुरु थे जिनके नाम पर हरियाणा के प्राचीन शहर थानेसर में एक मक़बरा है। थानेसर दिल्ली से क़रीब 160 कि.मी. दूर कुरुक्षेत्र ज़िले में स्थित है। यहां एक विशाल परिसर है जिसमें शेख़ चिल्ली का मक़बरा है। इसके अलावा एक मदरसा, दो मस्जिदें, मुग़ल गार्डन और अन्य भवन हैं।
थानेसर शहर का इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। ये शहर आज हिंदुओं की आस्था का एक केंद्र है जिसे स्थानेश्वर भी कहा जाता है। 6ठी औऱ 7वीं शताब्दी में ये वर्धन राजवंश की राजधानी हुआ करता था। इस काल में वर्धन राजवंश की उत्तर भारत के अधिकांश हिस्सों पर हुक़ुमत हुआ करती थी और राजा हर्ष वर्धन के समय ये साम्राज्य ख़ूब फलाफूला। उस दौर के जीविनि-साहित्य में हर्ष शहर का ज़िक्र मिलता है जिसे हर्षचरिता कहा जाता था। जिसकी रचना 7वीं शताब्दी में राजा हर्ष वर्धन के दरबारी कवि बाणभट ने की थी।
7वीं शताब्दी में जब चीनी बौद्ध भिक्षु वेन त्सांग भारत आया तब उसने थानेसर में तीन बौद्ध मठ, सैकड़ों बौद्ध और हिंदू मंदिरों का उल्लेख किया था। उसने परिसर में एक बौद्ध स्तूप का भी ज़िक्र किया था। सन 1014 में मोहम्मद ग़ज़नी ने थानेसर पर हमला कर लूटपाट की थी औऱ फिर बाद में मोहम्मद ग़ौरी ने थानेसर के पास तराइन में दो युद्ध लड़ने के बाद थानेसर पर आक्रमण किया था सन 1567 यानी मुग़ल काल में यहां अकबर की सेना और राजपूतों के बीच युद्ध हुआ था जिसे थानेसर की लड़ाई कहा जाता है। युद्ध के बाद कुछ समय तक अकबर यहीं से अपनी सेना का नेतृत्व करता था।
ये स्थान मराठों, सिखों और अंग्रेंज़ों के लिये महत्वपूर्ण केंद्र था। भारतीय पुरातत्व विभाग के संस्थापक एलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने अपनी एक रिपोर्ट में थानेसर और मक़बरे का ज़िक्र किया है |कनिंघम के अनुसार थानेसर में ध्यान देने योग्य दो मस्जिदें और एक मक़बरा है। मक़बरा एक पीर या दारा शिकोह के धार्मिक सलाहकार को समर्पित है जिसे कई नामों से बुलाया जाता है। दारा शिकोह के धार्मिक गुरु को अब्दुर्र रहीम, अब्दुल करीम या अब्दुल रज़्ज़ाक़ नाम से बुलाया जाता था लेकिन शेख़ चिल्ली सबसे ज़्यादा प्रचलित था। बहरहाल कनिंघम का ये भी कहना है कि उन्हें
उपलब्ध साहित्य में इस पीर या संत का कोई उल्लेख नहीं मिला, लेकिन मक़बरे को देखकर लगता है कि यह सन 1650 के क़रीब दारा शिकोह के समय का होगा।
लेखिका और साहित्यकार राना सफ़वी पीर और मक़बरे पर लिखे अपने एक लेख में कहती हैं कि शेख़ चिल्ली कोई संत हो सकता है जिसने चिल्ला या चालीस दिन का एकांतवास लिया होगा। उनका तर्क है कि फ़ारसी में चेहली का अर्थ चालीस होता है।
सफ़ेद संग-ए-मरमर का ये मक़बरा देखने में बहुत सुंदर है। इसके ऊपर नाशपाती के आकार का एक गुंबद है। मक़बरे की ऊंचाई काफ़ी है इसलिये ये बहुत दूर से नज़र आ जाता है। संग-ए- मरमर पर जाली बनी हुई है जो इंडो-इस्लामिक वास्तुकला को दर्शाती है। यहां एक और मक़बरा है जो माना जाता है कि शेख़ चिल्ली की पत्नी का है। जिस प्लेटफ़ॉर्म की दीवारों पर मक़बरा खड़ा है, वहां बारह अष्कोणीय छतरियां हैं जो कभी सुंदर रंगीन टाइल्स से सुसज्जित थीं लेकिन अब इनके बस निशान रह गए हैं। पूरे परिसर को कुछ सूत्रों में शेख़ चिल्ली की बारादरी भी कहा गया है।
मक़बरे के पास प्रकोष्ठ है जिसे मदरसा कहा जाता है। माना जाता है कि मुग़लों ने तीन मदरसे बनवाए थे जिनमें से एक मदरसा ये है। पहला मदरसा दिल्ली में पुराने क़िले के पास ख़ैरुल मंज़िल था, दूसरा दिल्ली में ही अजमेरी गेट के पास ग़ाज़ीउद्दीन ख़ान का मदरसा था जो अब एंग्लो अरेबिक कॉलेज है। तीसरा मदरसा शेख़ चिल्ली का मदरसा थानेसर में बनवाया गया था। थानेसर में मदरसा शायद इसलिये बनवाया था क्योंकि ये शहर ग्रैंड ट्रंक रोड पर स्थित था। ये रोड भारतीय उपमहाद्वीप में महत्वपूर्ण केंद्रों को जोड़ने वाला सबसे लंबा व्यापार मार्ग था। इस बात को इससे भी बल मिलता है कि शेख़ चिल्ली के मक़बरे के पास यहां एक पुराना पुल और एक सराय है जो संभवत: 16वीं शताब्दी में शेर शाह सूरी के समय की है।
इंडो-इस्लामिक वास्तुकला पर लिखने वाले लेखक सुभाष परिहार ने “ए लिटिल नोन मुग़ल कॉलेज: द मदरसा ऑफ़ शेख़ चिल्ली एट थानेसर” नामक लेख में लिखा है कि अमूमन मदरसे के संस्थापक या वहां पढ़ाने वाले के नाम पर मक़बरे के साथ मदरसा बनाने की परंपरा थी। मक़बरे और मदरसा परिसर के पास दो मस्जिदें आज भी मौजूद हैं, एक का नाम पथरिया मस्जिद है क्योंकि ये पत्थर की बनी है और दूसरी का नाम चीनी मस्जिद है। मुग़ल काल का यहां एक शानदार चारबाग़ शैली का बाग़ भी है।
शेख़ चिल्ली का मक़बरा और मदरसा संरक्षित है और इन्हें राष्ट्रीय महत्व की धरोहर भी घोषित किया गया है। इसका रख-रखाव भारतीय पुरातत्व विभाग करता है। बचपन में शेख़ चिल्ली के सुने गए काल्पनिक कहानी-क़िस्सों के बीच आज भी उनका वास्तविक मक़बरा और मदरस हमारे सामने मौजूद है। ये न सिर्फ़ शेख़ चिल्ली के अस्तित्व पर रौशनी डालता है बल्कि इंडो-इस्लामिक वास्तुकला के भी शानदार नमूने हैं।
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