कचारगढ़ गुफाएँ

कचारगढ़ गुफाएँ

कचारगढ़- जहां विराजमान हैं गोंड आदिवासियों के देवता । वैसे पूर्व महाराष्ट्र के सीमावर्ती प्रांत में स्थित गोंदिया ज़िले का नाम सुनते ही आँखों के सामने नक्सल प्रभावित क्षेत्र की तस्वीर खड़ी हो जाती है। लेकिन जैव विविधता से भरपूर मिश्रित जंगलों से घिरे इस क्षेत्र में एक प्राकृतिक आश्चर्य भी है – कचारगढ़ की गुफाएँ। यद्यपि यह नक्सल प्रभावित क्षेत्र में स्थित एक गुफा है, जो गोंड आदिवासियों के देवता की वजह से आकर्षण का एक बड़ा केंद्र बन गया है। फ़रवरी महीने में, माघी पूर्णिमा के समय यहां वार्षिक तीर्थयात्रा होती है। उस तीर्थयात्रा में हज़ारों की संख्या में श्रृद्धालू हिस्सा लेते हैं ।

एशिया की सबसे बडी मानी जानेवाली कचारगढ़ की गुफा | श्री देवानंद साखकर

कचारगढ़ एक पवित्र धार्मिक और प्राकृतिक स्थान है जो सालेकसा तहसील में सालेकसा से ७ किमी की दूरी पर और गोंदिया ज़िला मुख्यालय से ५५ किमी दूर पर स्थित है। गोंदिया-दुर्ग रेलवे मार्ग पर स्थित सालेकसा स्टेशन से, दरेकसा-धनेगाव मार्ग होते हुए लोग यहाँ पहुँचते हैं। दरेकसा मार्ग से कचारगढ़ महज सात किलोमीटर की दूरी पर है ।

यह एक पवित्र धार्मिक स्थान है । अपनी प्राकृतिक सुंदरता की वजह से यह पर्यटकों के आकर्षण का भी बड़ा केंद्र है। इसलिए, यहां पहुंचनेन वाले आदिवासी भक्तों के साथ अन्य पर्यटक भी बड़ी संख्या में आते हैं। यात्रा के दौरान हर साल लगभग चार लाख भक्त और पर्यटक यहां आते हैं। इसके अलावा श्रद्धालु और पर्यटक साल भर यहां आते रहते हैं। चूंकि कचारगढ़ गुफा, मध्य प्रांत गोंडवाना के आदिवासियों का प्रमुख श्रद्धास्थान है, गोंड जनजातियों के लोग यहाँ दूर-दूर से आते हैं। इस गुफा में अपने पूर्वज तथा आदिवासी गोंड धर्म के संस्थापक पारी कोपार लिंगो और माँ काली कंकाली के दर्शन करने के लिए विभिन्न राज्यों से आदिवासी कोयापूनेम (माघी पूर्णिमा) को कचारगढ़ गुफा में पहुंच जाते हैं ।

कचारगढ़ मेले मे इकट्ठा हूएँ गोंड जनजाति के लोग | श्री देवानंद साखकर

कचारगढ़ पहुंचकर हरी भरी पर्वत श्रृंखलाएं देखी जा सकती हैं, जो घने जंगलों से घिरी हुई है। इन पहाड़ों में एक बड़ी नैसर्गिक गुफा है, जिसे एशिया की सबसे बड़ी प्राकृतिक गुफा माना जाता हैं । वैसे यह गुफायें 518 मीटर ऊंचाई पर स्थित हैं। क़रीब 10 फ़ुट ऊँची, 12 फ़ुट चौड़ी और 20 फ़ुट लंबी प्रारंभिक छोटी गुफा के दाईं ओर की पहाड़ी में बड़ी गुफा स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। आगे चट्टान के शीर्ष पर, लगभग 40 फ़ुट बड़ी गुफ़ा का मुख दिखाई देता है। गुफा का अनुमान बाहर से नहीं लगाया जा सकता। अंदर जाकर ही गुफा के विस्तार का पता चलता है । इसकी संरचना लगभग 25 फ़ुट ऊंची,60 फ़ुट चौड़ी और 100 फ़ुट लंबी है। पहाड़ के एक छेद से प्रकाश की धारा हर वक़्त गुफा में बहती रहती है। आसपास के पहाड़ों में भी छोटी गुफाएँ हैं, जहाँ आदिवासी जनजातियों के प्राचीन देवता – माता जंगो, बाबा जंगो, शंभूसेक और माँ काली कंकाली का वास्तव्य हैं।

कचारगढ़ की विशाल गुफा का अंदरूनी हिस्सा | श्री देवानंद साखकर

गोंड जनजाति की उत्पत्ति

गोंड जनजातियों के बुज़ुर्गो आमतौर पर यह मानते हैं कि कचारगढ़ में तीन हज़ार साल पहले गोंड जनजाति की उत्पत्ति हुई थी। कहा जाता है कि माता गौरी के 33 पुत्र थे। वह बड़े उपद्रवी थे। इसलिए, एकबार ग़ुस्से में, शंभुसेक ने उन्हें कचारगढ़ में एक गुफा में डालकर दरवाज़े पर एक बड़ा पत्थर रख दिया। इस पर माँ काली कंकाली भावुक हो गयी और उसकी आज्ञानुसार किंदरी वादक हिरासुका पाटारी ने अपने संगीत की शक्ति से युवाओं में ऊर्जा पैदा की। तब उन 33 युवकों ने अपनी पूरी शक्ती लगाकर उस पत्थर को ज़ोर का धक्का देकर गिरा दिया और बाहर निकल आये । लेकिन पत्थर के नीचे दबकर संगीतकार पाटारी की मृत्यु हो गई। वे सभी 33 पुत्र उस जगह से चले गए और अन्य प्रदेश में जा बसे । उन्हीं प्रदेशों में उनका वंश आगे बढ़ा। समय के साथ, गोंडी संस्कृति के निर्माता पारी कुपार लिंगो ने उन वंशजों को एक सूत्र में बाँधने की कोशिश की। इसमें 33 वंश और 12 पेन मिलकर बने 750 गोत्र । इन गोत्रो को एक सूत्र में बांधने को गोंडी भाषा में “कच्चा” कहा जाता है । शायद इसलिए, इस स्थान का नाम कचारगढ़ पड़ा होगा।

इस गुफा को ध्यान से देखने पर लोहे और अन्य खनिजों के कच्चे अवशेष दिखाई देते हैं। हो सकता है इसलिए भी इस स्थान को नाम ‘कचारगढ़’ के नाम से जाना जाता हो। कचारगढ़, जो हज़ारों वर्षों से गुमनामी के अभिशाप में घिरा हुआ था, आख़िरकार आदिवासी संस्कृति के शोधकर्ताओं और इतिहासकारों की नज़रों में आया। उन्होंने इस स्थान को खोजा और इसका अध्ययन किया और इस नतीजे पर पहुँचे कि यहीं गोंड आदिवासियों का मूलस्थान है।

कचारगढ़ गुफाओ की खोज

ऐसी भी मान्यता है कि गोंड जनजाति का उद्गमस्थल उत्तर दिशा के पहाड़ों में स्थित है, जिसे  ‘काचिकोपा लोहागढ़’ के नाम से जाना जाता था । किंतु यह स्थल कहाँ हैं इसके बारे में ठोस जानकारी नहीं है। कुछ लोग इसका स्थान हिमालय, कुछ पचमढ़ी और कुछ दरेकसा के पहाड़ो में बताते थे।

यह स्थान गोंड आदिवासी समूहों की मौखिक कथाओं और परम्पराओं में भी जीवित रहा है। कचारगढ़ गुफाओं के स्थान का विवरण, समय के साथ लुप्त हो गया था । सन १९८० के दशक में, आदिवासी विद्यार्थी संघ के युवा आदिवासी छात्रों ने इसकी खोज शुरू की थी ।कहानियों में दिये गये वर्णन के मुताबिक़, गुफा की तलाश में गोंदिया ज़िले के कचारगढ़ की पहाड़ियों को खंगालना शुरू किया गया था। लेखक मोतीरावन कंगाली सहित एक समूह ने, सालेकसा के पास इस बड़ी गुफा को खोज लिया था, जिसकी छत में एक बड़ा छेद था । गुफा के प्रवेश द्वार के पास एक बड़ा शिलाखंड है। जिसे देक कर लगता है जैसे उसे एक तरफ़ धकेल दिया गया हो। उसी खोज के बाद से, एक वर्ष की तीर्थयात्रा या कचारगढ़ गढ़ यात्रा आरंभ ही। उसी दौरान गोंड लोग अपने मूल पूर्वजों को अत्यधिक सुशोभित पालकी के रूप में लाते हैं – अपने संस्कार स्थल पर जाते हैं और अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि देते हैं।

कचारगढ़ यात्रा का प्रारंभ

आज से 35 साल पहले गोंडी धर्माचार्य स्व. मोतीरावण कंगाली, शोधकर्ता के.बी. मरसकोल्हे , गोंड राजा वासुदेव शहा टेकाम, दादा मरकाम, सुन्हेरसिंह ताराम जैसे लोग कचारगढ़ आए। सम 1984 में माघ पूर्णिमा के अवसर पर, पांच आदिवासी गोंड लोगों ने धने गांव के प्रांगण में गोंडी धर्म का झंडा फहराकर कचारगढ़ यात्रा की शुरुआत की । आज, कचारगढ़ यात्रा में बहुत बडा जमावड़ा होता है और हर साल लगभग चार से पांच लाख भक्त माघ पूर्णिमा पर इस यात्रा में सम्मिलित होते हैं। कचारगढ़ यात्रा मध्य भारत की सबसे बड़ी भव्य यात्रा है।

गोंड़वाना एक विशाल भौगोलिक क्षेत्र है और गोंड जनजाति छोटे समूहों में गोंड़वाना के पूरे जंगल में फैली हुई है। इसके अलावा वे नाटक या पारंपरिक नृत्य करते हैं । जिससे उनके स्थान और समूह की संस्कृति की छवि सामने आता है। जब इतनी बड़ी संख्या में लोग, इतनी महत्वपूर्ण जगह पर जमा होते हैं तो इस अवसर पर, यहां कई बड़े निर्णय भी लिये जाते हैं। उदाहरण के लिए, पिछले कुछ वर्षों में, जनजाति ने उद्योग के लिए जंगल से बांस को नहीं काटन देने का फ़ैसला किया था, जो महत्वपूर्ण क़दमों में से एक था। सभी देवताओं के अलावा, वे जंगल से भी अपनी सुरक्षा एवं कल्याण के लिए प्रार्थना करते हैं।

गोंड आदिवासीयों का यह मानना हैं कि गोंडी संस्कृति के रचनाकार शंभु, गौरा, पहाड़ी कुपार लिंगो, संगीत सम्राट हिरसुका पाटालीर, 33 कोट सगापेन और 12 पेन एवं 750 कुल, सल्ला गांगरा शक्ति यहाँ स्थित है। यह गोंडी धर्म की आस्था और विश्वास है कि उनकी आत्मा यहाँ के घने जंगलों की गुफाओं में निवास रहती है।

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