पाकिस्तान के सूबा ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह के शहर बन्नू में मौजूद क़िला दलीपगढ़ की म्यूज़ीयम में तब्दील हो चुकी इमारत आज इतिहास में अपना अस्तित्व खोज रही प्रतीत होती है। दुख इस बात का है, कि पाकिस्तान में प्रकाशित इतिहास की पुस्तकों में इस क़िले के नाम या अतीत के बारे में कोई जानकारी दर्ज नहीं है। इतना ही नहीं, बन्नू शहर की म्यूनीसिपल कमिटी के रिकॉर्ड में से क़िला दलीपगढ़ का नाम तक ग़ायब कर दिया गया है। यह क़िला आज भी मौजूद है, लेकिन अब यह “क़िला बन्नू” या “क़िला एडवर्ड” के नाम से जाना जाता है।
बन्नू पाकिस्तान के सूबा नॉर्थ वेस्ट फ़्रंटियर पोस्ट (नया नाम ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह) का एक प्राचीन शहर है। नवम्बर सन 1823 में शेरे-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह ने इस शहर पर आक्रमण किया था, जिसपर यहां के बनोचियों और वज़ीरियों ने संयुक्त लश्कर के रूप में खालसा फौज का डटकर मुक़ाबला किया। लेकिन वे ज़्यादा देर तक शेरे-पंजाब की फौज के आगे टिक नहीं सके, और आखिरकार उन्हें अपनी पराजय स्वीकार करते हुए सिख फौज के सामने घुटने टेकने पड़े। खालसा दरबार के विशेष मुलाज़िम मोहम्मद हयात खां ‘हयाते अफ़ग़नी’ में लिखते हैं, कि शेरे-पंजाब और सरदार फ़तह सिंह मान ने बन्नू की मुहिम के दौरान जिन वृक्षों के नीचे पड़ाव डाला था, वे पीपल के वृक्ष अभी तक मौजूद हैं और वहां की स्थानीय पश्तो भाषा में लोग उन्हें ‘हाजीवाने’ (हाजी के वृक्ष) कहते थे।
इसके पूरे दो वर्षों के बाद, बन्नू के ख़ुदमुख़्तार हाकिम दिलासा खां बनोचियों और वज़ीरियों का लीडर बना। दिलासा ख़ां खट्टक ख़ां का बेटा, आसम ख़ां का पोता और ग़ाज़ी ख़ां का पड़पोता था। उसने भारी लश्कर इकट्ठा करके सिख राज्य के विरूद्ध बग़ावत कर दी। ख़बर मिलते ही इस बग़ावत को कुचलने के लिए सरदार फतह सिंह और कंवर खड़क सिंह को आठ हज़ार फौज सहित बन्नू के लिए रवाना किया गया। नवम्बर,सन 1825 के पहले हफ़्ते में सिख फौज बन्नू पहुँच गई। शहर में जिस ख़ाली मैदान पर सिख फौज ने अपना पड़ाव डाला था, वहां आज क़िला दलीपगढ़/ क़िला एडवर्ड/ क़िला बन्नू मौजूद है।
दिलासा खां के लड़ाकों और सिख फौज के बीच भयंकर युद्ध हुआ और अंत में दिलासा खां सरदार फ़तह खां के हाथों बुरी तरह जख्मी हो गया। उसके लड़ाके अपने जनरल को शहीद समझ युद्ध छोड़कर भाग निकले। दिलासा खां भी मौक़ा मिलते ही वहां से भाग निकला और उसने पहाड़ों पर छिपकर अपनी जान बचाई। मोहम्मद हयात खां ‘हयाते अफ़ग़ानी’ में इस जंग और सिख फौज की बहादुरी का ज़िक्र पश्तो भाषा में इस तरह करता है:
चा वेल चे दिलोस वरता बग़ीदो। पैग़ंबर पा नूमे मर इशा ज़ियोती दा।
क़ासिदोन दे ककी पा लेर जंग़ेज़ी। सूबो कीच ते रवानेज़ी लाहौरी ता।
नग़ारे दा दिलोसा पा लेर जंगे़ज़ी। सतर फ़ौजीना वेरा ग़ली दी मीरी ता।
पा मीरी चीगा गड़ा पोते नाशवल का सेक पली का सवेर वी।
सतर कापिर दा चे पाका वारे बरेज़ी। दिलोसा वेल आवे श वलशू सतारा।
ज़ डरेज़म दे रंजीत कापर दे ज़ेरा। पा लकूना पा करोङूना हिसाबे गी।
दिलोसा ग़ाज़ी दे कुल बानी अमीर दा। पा गरज़ा वुला दे रंजित कापिर लशकर दा।
तेरे तीपे गुमारक पा चले ज़ी।
इसका अनुवाद इस प्रकार है,
“किसी ने कहा, कि दिलासा (खां) खालसे से बागी हो गया है। अपना सिर पैग़ंबर पर क़ुर्बान करने लगा है। उसके क़ासद, ककी (बन्नू के पास एक बस्ती) के इलाक़े में घूम रहे हैं। सुबह कूच करके लाहौर (खालसा फ़ौज) पर चढ़ाई की जाएगी। दिलासा के लश्कर में नगाड़े बज रहे हैं। बहुत सी फ़ौज मीरियों (मीरी वज़ीरियों का एक समूदाय ) की ओर पहुँच गई है। मीरियों में मुनादी कराई गई और पैदल और सवार सब लड़ाई के लिए निकल पड़े। काफ़िर (सिख) बड़े बलवान हैं, वो दुश्मन पर टूट पड़ते हैं। दिलासे ने कहा……..हे रब्बा, मेरे हौंसले को क्या हो गया? मुझे रंजीत काफ़िर (महाराजा रंजीत सिंह) की ताक़त से डर लग रहा है। उसकी फौज की गिनती लाखों-करोड़ों के हिसाब से है (वास्तव में डर के कारण दिलासा खां को आठ हजार सिख फ़ौज करोड़ों से ज़्यादा लग रही थी)। दिलासा गाज़ी सारे बन्नू का अमीर है। उसको ख़ालसा फ़ौज ने घेर लिया है। उस पर धुंआ-धार तोपें और ग़ुब्बारे (बंब) चल रहे हैं।”
अंत में युद्ध के बाद बन्नू को पक्के तौर पर सिख राज्य का हिस्सा बना लिया गया। मोहम्मद हयात ख़ां लिखता है, कि सिख राज्य का हिस्सा बनने के बाद सन 1836 में राजा सुचेत सिंह डोगरा को महाराजा ने उस क्षेत्र का हाकिम नियुक्त कर दिया था। एक दिन जब राजा सुचेत सिंह इसी क्षेत्र के मोज़ा अल्लहा ढेरी के गांव तपा मंडा खेल से गुज़र रहा था, उसने एक गांव वाले को गाय काटते हुए देखा। उसने तुरंत अपने सिपाहियों को आदेश दिया कि उस व्यक्ति सहित गांव के सभी युवाओं के सिर और वृद्धों के हाथ-नाक काट दिए जाएं ताकि आगे से कोई ऐसी भूल न कर सके।
सिख राज्य के अंतिम पड़ाव में महाराजा दलीप सिंह के शासन के दौरान लाहौर दरबार की ओर से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकारी मेजर जनरल सर हर्बट बेंजामिन, एडवर्ड के.सी.बी., के.सी.एस.आई., डी.सी.एल. (सन 1819-1868) को सन 1847 में बन्नू का गर्वनर नियुक्त किया गया। वह 15 मार्च सन 1847 को बन्नू पहुँचा और सबसे पहले उसने सिख राज्य और अंग्रेज़ों के विरूद्ध बग़ावत का झंडा बुलंद करने वाले दिलासा खां से मुलाक़ात की और उसे लाहौर दरबार की शर्तों के अनुसार लगान जमा कराने के लिए रज़ामंद किया। एडवर्ड ने बन्नू के लोगों को बुलाकर उनकी मुश्किलें समझीं। फिर उन्हीं से वसूले लगान से बन्नू में सड़कें, स्कूल और अस्पताल बनवाए। साथ ही सिंचाई के लिए नहरें भी निकलवाईं गईं। एडवर्ड ने बन्नू में वहां के कबीलों का मुक़ाबला करने के लिए जगह-जगह बनवाए क़िलों को ज़मीनदोज़ करवा दिया और जलालाबाद की ओर से आने वाले अफ़ग़ानी हमलावरों पर नज़र रखने और उनका मुक़ाबला करने के लिए शहर से बाहर एक मज़बूत क़िला बना दिया। उस क़िले का नाम महाराजा रणजीत सिंह के सबसे छोटे पुत्र महाराजा दलीप सिंह ने नाम पर” क़िला दलीपगढ़” रखा गया। क़िले के आस-पास उसने जो नया नगर आबाद किया, उसका नाम “दलीप नगर” रखा गया। लेकिन जैसे ही सिख राज्य समाप्त हुआ, क़िले का नाम दलीपगढ़ से एडवर्ड गढ़ और नए बने शहर का नाम दलीप नगर से बदलकर “एडवर्ड आबाद” रख दिया गया।
क़िला दलीपगढ़ बनाम “एडवर्डगढ़” मौजूदा समय शहर से बाहर, बन्नू छावनी में सपले रोड पर एफ़.जी. बॉयज़ पब्लिक हाई स्कूल के पीछे मौजूद है और बन्नू शहर दरिया कुरम से डेढ़ किलोमीटर, कोहाट से 127 किलोमीटर और डेरा इस्माइल खां से 89 किलोमीटर दूर आबाद है। क़िला दलीपगढ़ के बारे में बाबा प्रेम सिंह होती मरदान अपनी पुस्तक ‘खालसा राज दे उसरीए‘ में लिखते हैं, कि “क़िला दलीपगढ़” महाराजा रणजीत सिंह के सब से छोटे शहज़ादे और खालसा राज्य के अंतिम महाराजा के नाम पर बनाया गया था। यह क़िला दोहरा बनाया गया है। क़िले की बाहरी दीवार की मोटाई 6 फ़ुट और ऊँचाई 10 फ़ुट है। इस दीवार के चारों ओर 30 फ़ुट गहरी, पानी की खाई है। जिस में पानी ज़रूरत के अनुसार दरिया कुरम से भरा जाता है। इस दीवार में क़िले के अंदर प्रवेश करने के लिए दो विशाल और मज़बूत दरवाज़े बनाए गए हैं। जहां बड़ी संख्या में सुरक्षा कर्मी तैनात रहते हैं। क़िले की बाहरी दीवार के आगे 250 फ़ुट खुला मैदान है। इसके बाद एक और 30 फ़ुट गहरी और 30 फ़ुट चौड़ी, पानी की खाई है। इसके आगे क़िले की दूसरी सुरक्षा दीवार है जो 20 फ़ुट ऊँची और 9 फ़ुट चौड़ी है। क़िले की दोनों दीवारों के मध्य दीवार की मज़बूती के लिए 26-26 मज़बूत बुर्ज बने हुए हैं।
भले ही “क़िला दलीपगढ़” बनाम “एडवर्डगढ़” सिख राज्य की समाप्ति के बाद पहले अंग्रेज़ी फ़ौज और अब पाक सेना की छावनी का रूप ले चुका है, लेकिन इसके बावजूद यह सिख राज्य की धरोहर के रूप में प्रसिद्ध है, और क़िले में मौजूद उस दौर की बहुत सी निशानियां आज भी सिख इतिहास से रूबरू करवा रही हैं।
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