यह क्षण क्या? द्रुत मेरा स्पंदन;
यह रज क्या? नव मेरा मृदु तन;
यह जग क्या? लघु मेरा दर्पण;
प्रिय तुम क्या? चिर मेरे जीवन;
ये पंक्तियाँ उस महान कवयित्री ने लिखीं हैं, जिसने जो सोचा, वही रचा और वही जिया। महान अंग्रेजी लेखक विलियम शेक्सपियर ने कहा था, ‘व्हाट्स दिएर इन ए नेम?’ (हिंदी अनुवाद: नाम में क्या रखा है?), मगर इस शख्सियत ने साबित कर दिया, कि नाम में बहुत कुछ रखा है! यानी जैसा नाम, वैसा ही काम!
इस शख़्सियत का नाम था….महादेवी वर्मा, जिनकी गिनती हिंदी कविता के छायावाद युग (1918- 1938) के चार मज़बूत स्तम्भों में होती हैI ये ग़ौर करने वाली बात है, कि महादेवी ने भारतीय साहित्य जगत को जो नारीवाद का विचारों से रूबरू कराया था, हिंदी साहित्य को जो तोहफ़ा दिया, उसका सिलसिला उनके बचपन से भी आरम्भ हो चुका था…
महादेवी का जन्म 26 मार्च सन 1907 को फ़र्रुख़ाबाद (उत्तर प्रदेश) के एक प्रगतिशील परिवार में हुआ था I ये उनका सौभाग्य था, कि उनके वालिदैन ने उनको अंग्रेज़ी, संस्कृत, फ़ारसी और उर्दू भाषाओँ के साथ-साथ पंचतंत्र की कहानियों और मीराबाई की कविताओं से भी रूबरू करवायाI उनके पिता गोविन्द प्रसाद वर्मा नास्तिक थे, लेकिन माँ हेम रानी धार्मिक भाव की महिला थीं। महादेवी ने रामायण, महाभारत और श्रीमद्भगवदगीता से ही जीवन के गुर सीखे थेI
महादेवी सिर्फ़ नौ बरस की ही थीं, जब उनका विवाह बरेली के एक रईस स्वरुप नारायण वर्मा से हुआ थाI मगर उनके पिता ने उन्हें पढ़ाई पूरी करने के बाद पति स्वरुप के साथ बरेली में रहने का सुझाव दिया I सब की रज़ामंदी मिलने के बाद, महादेवी ने घर में अपनी बुनियादी शिक्षा पूरी की, उस दौरान उनपर कविताएँ रचने का जूनून सवार हुआ, और उन्होंने कम उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया थाI
बुनियादी शिक्षा पूरी करने के बाद, महादेवी ने इलाहबाद (वर्तमान प्रयागराज) के क्रोस्थवेट गर्ल्स कॉलेज में दाख़िला लिया I जहाँ उनकी मुलाक़ात एक ऐसी साहित्यकार से हुई, जिनके साथउन्होंने हॉस्टल का कमरा बांटा। उसी लेखिका ने न सिर्फ़ महादेवी की प्रतिभा को पहचाना, बल्कि उन्हें कविताएं लिखने के लिए प्रोत्साहित भी किया। ये थीं सुभद्रा कुमारी चौहान, जिन्होंने ‘खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी’ जैसी मशहूर कविता लिखी थी।
सुभद्रा कुमारी चौहान और महादेवी की मित्रता बहुत गहरी थीI दोनों ने कई पत्रिकाओं, अख़बारों आदि में,कविताएं और लेख लिखकर अपनी पहचान बनाली थी। अक्सर ऐसा होता था, कि वे दोनों प्रतिदिन एक या दो कविताएं अवश्य लिखा करती थीं।
सन 1929 में महादेवी के जीवन में एक बहुत बड़ा मोड़ आयाI तालीम हासिल करने के बाद, जब उनके सामने, पति स्वरुप के साथ बरेली जाकर घर बसने का अवसर आया, तब उन्होंने उनके साथ बरेली जाने से इनकार कर दिया, क्येंकि उन्हें स्वरुप का शिकार करना आदि जैसे शौक़ पसंद नहीं थेI उस दौर में इतना बड़ा क़दम उठाना आसान बात नहीं थी। लेकिन उससे बड़ी बात ये थी, कि महादेवी के पिता गोविन्द ने उनके इस क़दम का समर्थन किया और उन्हें दूसरी शादी करने की सलाह भी दे दी I लेकिन अब देर हो गयी थी,और महादेवी ने पिता के सुझाव को भी नहीं माना, और उन्होंने एक सन्यासिन की तरह जीवन व्यापन करने का फैसला किया। उसके बाद वह हमेशा ख़ुद को साड़ी से ढ़ककर रखती थींI दिलचस्प बात ये थी, कि उनके पति स्वरुप ने भी दूसरी शादी नहीं की!
महादेवी लेखन में सक्रिय हो तो गईं थीं, मगर उनके जीवन का मक़सद महज़ लिखने से पूरा नहीं हो रहा थाI सन 1932 में वे इलाहबाद के प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या बनीं और लड़कियों की शिक्षा में बहुमूल्य योगदान दिया I साथ ही उन्होंने भारत के स्वतंत्रता-संग्राम में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना शुरू कर दिया I महात्मा गांधी की विचारधारा से प्रेरित, महादेवी ने “चाँद” पत्रिका का सम्पादन भी किया और आज़ादी की भावना जगाने के लिए वह अपने छात्र-छात्राओं के खाने के डिब्बों में पर्चे रखकर जनता में बंटवाती थींI उन्होंने ये भी प्रण लिया था, कि वह हमेशा खादी के वस्त्र पहनेंगी और अंग्रेज़ी में महारथ हासिल करने के बावजूद वो ना कभी अंग्रेज़ी बोलेंगीं और न ही अंग्रेज़ी में कुछ लिखेंगी I यहीं नहीं, उन्होंने ख़ुद को आईने में देखाना तक बंद कर दिया था।
इस दौरान हिंदी साहित्य में छायावाद युग का उदय हो रहा था, जिसमें निजी अनुभव, प्रेम की अनुभूति और प्रकृति के प्रति सद्भाव जैसे पहलुओं को कागज़ पर उतारा जा रहा थाI सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, जयशंकर प्रसाद और सुमित्रानंदन पन्त जैसे महान कवियों का दबदबा थाI उस दौर में महादेवी ने अपने नवीन विचारों से इन महान रचनाकारों के बीच अपनी जगह बनाई और उस युग के चार स्तम्भों में गिनी जाने लगीं! यह सिलसिला सन 1930 के दशक से तब से शुरू हुआ था, जब उनकी विचारधारा उनकी रचनाओं में छलकने लगी थी I अपनी कविताओं और लेखों में उन्होंने महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों और महिलाओं के सशक्तिकरण की ज़रूरत पर प्रकाश डालाI उदाहरण के तौर पर, उन्होंने ‘घर और बाहर’ लेख में विवाह की तुलना ग़ुलामी से की थी। ‘हिन्दू स्त्री का पत्नीत्व’ लेख में उन्होंने औरत पर हो अत्याचारों के बारे में विचार प्रकट किए थे I फिर ‘चा’ और ‘बिबिया’ जैसे लेखों में उन्होंने औरतों की मानसिक और शारीरिक स्थिति और उनपर हो रही ज़्यादतियों पर प्रकाश पर डाला I ये लेख, उनकी किताब ‘श्रृंखला की कड़ियां” में सन 1942 में प्रकाशित हुए थे I कई महत्वपूर्ण लेखकों और साहित्यकारों का मानना है, कि साहित्य में नारीवाद को आम जनता के सामने प्रस्तुत करने का श्रेय महादेवी को ही जाता है। कई विद्वान इसका श्रय मशहूर फ़्रांसीसी लेखिका सिमोन द बुउआर को देते हैं। सिमोन द बुउआर की किताब “द सैकंड सेक्स” सन 1949 में प्रकाशित हुई थी। जबकि सच यह है, कि महादेवी वर्मा नारीवादी विषयों को उससे काफ़ी पहले उठा चुकी थीं।
महादेवी ने “निहार”(1930), “रश्मि”(1932), “नीरजा” (1934), और “संध्यागीत”(1936) कविताएँ लिखीं जो उनके संग्रह ‘यामा’(1940) में प्रकाशित हुईंI महादेवी ने क़रीब अट्ठारह उपन्यास और कई लघु कहानियां लिखे, जिनमें ‘दीपशिखा’,‘स्मृति की रेखाएं’,अनेक महत्वपूर्ण कविताएं लिखीं, जिनमें ‘पथ के साथ’ और ‘मेरा परिवार’ प्रमुख हैंI इनमें से कुछ रचनाओं में उनके निजी जीवन से जुड़े क़िस्से भी शामिल हैं। कुछ कविताओं में महिलाओं से जुड़े कुछ ऐसे पहलू और बातें हैं, जो आज के सामाजिक परिवेश में भी महत्वपूर्ण हैंI
महादेवी, रविन्द्रनाथ टैगोर के शान्तिनिकेतन विश्वविद्यालय से बेहद प्रभावित थीं। महादेवी ने कुमाऊँ की पहाड़ियों की सैर करने के बाद नैनीताल के पास, उमागढ़ गाँव में एक भवन बनावाया। फिर वहीं रहकर उन्होंने अपने लेखन-कार्य के साथ-साथ, उस गाँव की महिलाओं की पढ़ाई-लिखाई और उन्हें आत्मनिर्भरता बनाने के लिए काम कियाI आज यही भवन महादेवी के साहित्य संग्रहालय के नाम से जाना जाता है और ये कुमाऊँ विश्वविद्यालय की देखरेख में काम करता है, जहां प्रतिवर्ष साहित्य समारोह आयोजित किए जाते हैं और साहित्यिक गतिविधियां चलती रहती हैं I
महादेवी ने अपने क्रांतिकारी विचारों से साहित्य जगत में अपनी अलग पहचान तो बना ली, लेकिन उनके विचारों को पसंद भी किया गया और नापसंद भी। सन 1958 में मृणाल सेन ने उनकी कहानी ‘चीनी फेरी वाला’ पर आधारित फ़िल्म ‘नील आकाशेर नीचे’ बनाई थी। राजनैतिक कारणों और उनके आलोचकों के दबाव में उस फ़िल्म पर पाबंदी लगा दी गई। स्वतंत्र भारत में वह पहली फ़िल्म थी, जिस पर पाबंदी लगाई गई थी।
दिलचस्प बात ये है, कि महादेवी की रचनाओं के अंग्रेजी अनुवादों ने अमेरिका और ब्रिटेन के साहित्य जगत में भी हंगामा मचा दिया था। डेविड रुबिन जैसे मशहूर लेखक उन रचनाओं पर मंत्रमुग्ध हो गए थे I एक लेख में उन्होंने कहा था कि औरतों पर अत्याचार और उनकी आत्मनिर्भरता के भाव को महादेवी वर्मा से बेहतर शायद ही किसी ने प्रकट किया होगाI
अपनी रचनाओं से सामाज में बदलावों की बात करने वाली महादेवी को पद्मभूषण और पद्मविभूषण जैसे सम्मानों से नवाज़ा गयाI सन 1979 में वो साहित्य अकादमी फ़ेलोशिप प्राप्त करने वाली पहली महिला बनीं। उसके बाद भी उन्होंने अपनी गतिविधियों परअपनी बढ़ती उम्र का असर पड़ नहीं पड़ने दिया, और एक भरपूर जीवन जीने के बाद उन्होंने 11 सितम्बर सन 1987 को इस दुनिया को अलविदा कहा I
सन 1991 में महादेवी के सम्मान में भारत सरकार ने एक डाक टिकट जारी किया था। सन 2018 में गूगल ने महादेवी के जन्मदिवस के अवसर पर एक डूडल बनाया थाI नारीवाद और मानवतावाद के पहलूओं पर लिखी उनकी रचनाएं आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितनी उनके समय में थीं।
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