ये मेरा चमन है मेरा चमन, मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ
सरशार-ए-निगाह-ए-नर्गिस हूँ पा-बस्ता-ए-गेसू-ए-सुम्बुल हूँ
ये मेरा चमन है मेरा चमन, मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ
जो ताक़-ए-हरम में रौशन है वो शम्अ यहाँ भी जलती है
ये पंक्तियां मशहूर नज़्म तराना-ए-अलीगढ़ से हैं जो भारत के प्रतिष्ठित विश्विद्यालयों में से एक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का ऐंथम है। ये नज़्र-ए-अलीगढ़ (1935-36) उर्दू के मशहूर शायर असरार-उल-हक़ मजाज़ (1909-1955) ने लिखा था जिन्होंने बहुत कम उम्र में ही ऐसी रुमानी नज़्में और ग़ज़लें लिखीं जिन्हें आज तक लोग याद करते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि मजाज़ उर्दू के शायर और बॉलीवुड फ़िल्म पटकथा लेखक जावेद अख़्तर के मामू थे।
ख़ूब पहचान लो असरार हूँ मैं
जिंस-ए-उल्फ़त का तलबगार हूँ मैं
इश्क़ ही इश्क़ है दुनिया मेरी
फ़ित्ना-ए-अक़्ल से बे-ज़ार हूँ मैं
ख़्वाब-ए-इशरत में हैं अरबाब-ए-ख़िरद
और इक शाइर-ए-बेदार हूँ मैं
छेड़ती है जिसे मिज़राब-ए-अलम
साज़-ए-फ़ितरत का वही तार हूँ मैं
मजाज़ की इन पंक्तियों का इस्तेमाल अक्सर उनका परिचय करवाने के लिये किया जाता है। “ मजाज़ लखनवी” मजाज़ का तख़ल्लुस (उपनाम) था और उनका शुमार उर्दू अदब के सबसे बड़े और मशहूर शायरों में होता है। मजाज़ का जन्म 2 फ़रवरी 1909 अवध (बाराबंकी ज़िला) के एक छोटे से क़स्बे रुदौली में में हुआ था। उनका परिवार हालंकि ज़मींदार था लेकिन माली हालत (वित्तीय स्थिति) कोई ख़ास नहीं थी। उनके परिवार में अवधी बोली जाती थी। यहां उस समय वह ज़मींदार रहा करते थे जिनका तआल्लुक़ बहुत ही पारंपरिक समाज से होता था लेकिन उनके सामंती समाज में बदलाव होने लगा था।इस ज़िले ने देश को कई साहित्यिक हस्तियां दी हैं।मजाज़ जब आठ साल के थे तभी एक हादसे में उनके 18 साल के भाई का निधन हो गया जिसका उनकी मानसिकता पर गहरा असर पड़ा। बड़े बेटे के असामयिक निधन से मजाज़, मां के और लाडले हो गए थे।
मजाज़ का बचपन रुदौली में बीता जहां उन्होंने बुनियादी तालीम हासिल की और फिर लखनऊ के आमिर – उद-दौला कॉलेज से हाई स्कूल की परीक्षा पास करी । बीस के दशक के उत्तरार्ध में उनके पिता का तबादला आगरा हो गया जहां सेंट जॉन कॉलेज (1929-1931) में मजाज़ ने दाख़िला ले लिया । आगरा में उनकी मुलाक़ात फ़ानी बदायुंनी और जज़्बी जैसे शायरों से हुई। यहीं से उर्दू शायरी में उनकी प्रतिभा दिखाई देने लगी थी ओर दूसरे तऱफ स्कूल की पढाई पे कम वक़्त देने लगे, जिसके चलते वह अपने इम्तहान मे अच्छा न कर सके।
चूंकि सिराज-उल-हक़ के माता-पिता अब वहां (रुदौली) में नहीं थे और रुदौली से आगरा आना जाना आसान नहीं था, मजाज़ के पिता ने पूरे परिवार के साथ अलीगढ़ जाने का फ़ैसला किया। लखनऊ और आगरा में आरंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद मजाज़ ने उच्च शिक्षा के लिये अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में दाख़िला ले लिया जहां से उन्होंने 1936 में ग्रेजुएशन पूरा किया। ये वो समय था जब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रगतिशील लेखकों का आंदोलन अपने परवान पर था। मजाज़ ऐसे समय रहे और ऐसे समय में उन्होंने लिखा जो उर्दू शायरी के लिए एकदम माक़ूल वक़्त था। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मजाज़ के साथियों में फ़ानी बदायुंनी, मोईन एहसान जज़्बी, मख़दूम मुहिउद्दीन और अली सरदार जाफ़री जैसे उस समय के क़द्दावर उर्दू लेखक-शायर हुआ करते थे।
ये शायर-लेखक मजाज़ के समकालीन ही नहीं बल्कि क़रीबी दोस्त भी थे। यहां तक कि सन 1938 में प्रकाशित उनका पहला दीवान आहंग फ़ैज़, जज़्बी, सरदार जाफ़री और मख़दूम को समर्पित था। वह फ़ैज़और जज़्बी को अपना ‘दिल-ओ-जिगर’ तथा सरदार जाफ़री और मख़दूम को अपना ‘दस्त-ओ-बाज़ू’ कहते थे। फ़ैज़ ने आहंग की विचारोत्तेजक प्रस्तावना (दिबाचा) लिखी थी। जोश और फ़िराक़ जैसे शायर उन्हें अच्छी तरह जानते थे। ये स्पष्ट रुप से देखा जा सकता है कि मजाज़ प्रगतिशील लेखकों से प्रभावित और प्रेरित थे। यहीं से उन्होंने अपनी आरंभिक शायरी की शुरुआत की थी।
मजाज़ ने जो वक़्त अलीगढ़ में बिताया वो उनका सबसे बेहतरीन और सबसे ज़्यादा रचनात्मक दौर था। हालंकि कॉलेज के इम्तहान में वह अच्छा नही कर पाए लेकिन अपनी शायरी की वजह से उन्हें बहुत शोहरत मिल गई थी और उन्हें प्रतिष्ठित “अलीगढ़ विश्वविद्यालय पत्रिका” का संपादक बना दिया गया था।
इस बीच मजाज़ ने “नया अदब” नाम की पत्रिका की शुरु की जो उस समय प्रगतिशीलता की आवाज़ की हैसियत रखती थी। उनका दिल्ली की हार्डिंग लाइब्रेरी से भी संबंध रहा। मजाज़ प्रगतिशील लेखक आंदोलन के संस्थापकों में से थे। हालंकि वह क्रांति में विश्वास करते थे लेकिन मिजाज़ से वह रुमानी इंसान थे। उन्होंने अपनी शायरी में कभी भी क्रांति का ढ़ोल नहीं पीटा। उनके मिजाज़ के अनुसार उनकी शायरी में मीठे तराने होते थे। यही वजह है कि उन्हें भारत का कीट्स कहा जाता है। जोह्न कीट्स अंग्रेज़ी के जानामाने रुमानी कवि थे।
मजाज़ प्रेम और क्रांति के शायर थे लेकिन उन्होंने ज़्यादातर प्रेम पर ही लिखा। कविता की विधा के मामले में उन्हें नज़्म के कवि की श्रेणी में रखा जा सकता है लेकिन उनकी अधिकतर ग़ज़लें, नज़्म की तरह नहीं होती थी। उनकी नज़्मों में ग़ज़ल का मीटर होता था।कम उम्र में वो लखनऊ और अलीगढ़ के मुशायरों के ज़ीनत बन गए थे । उनकी लोकप्रिय नज़्म आवारा को उर्दू की बेहतरीन नज़्मों में से एक माना जाता है।
शहर की रात और मैं नाशाद- ओ- नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ
ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
मजाज़ एक अलग ही तरह के शायर थे। सागी से लबरेज़ उनकी शायरी सुकून देने वाली और बेहद सहज होती थी। उनकी लेखन शैली शायरों की उस पुरानी पीढ़ि की याद दिलाती है जिनकी मीटर, काफ़िया और रदीफ़ में महारत होती थी।
उर्दू के जानामाने आलोचक मोहम्मद हसन असकरी ने मजाज़ की शायरी पर उनकी मत्यु के बाद एक छोटा सा निबंध लिखा था जिसमें उन्होंने दो ख़ास टिप्पणियां की थीं। पहली “ मजाज़ को एक अलग आवाज़ नहीं मिल सकी। उन्होंने अलग अलग लहजे में लिखा लेकिन किसी भी लहजे में वह परिपक्वता को हासिल नहीं कर पाए क्योंकि उन्होंने अपनी आवाज़ के अनुभव की पूरी गहराई अथवा संभावनाओं को तलाशने की कोशिश नहीं की। “ असकरी ने जो दूसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात वह ये,” मजाज़ की ग़ज़लों में ऐसी कलात्मक्ता और तीखापन था जो नयी शायरी में कम ही देखा जाता है।“
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद उन्हें दिल्ली में ऑल इंडिया रेडियो की नयी पत्रिका “आवाज़” में सहायक संपादक की नौकरी मिल गई लेकिन ये नौकरी करीब साल भर चली। बिना बताए कई कई दिनों तक ऑफ़िस से ग़ायब रहने की वजह से उनके पितरस बुख़ारी से मतभेद हो गए थे और उन्हें नौकरी से हाथ गंवाना पड़ा। उन्होने वहां सं 1935 -1937 तक संपादन का काम किया।अलीगढ़ से दिल्ली आना माजाज़ के लिये फ़ायदेमंद होना चाहिये था लेकिन ऐसा हुआ नहीं। दिल्ली में मजाज़ को एक शादीशुदा महिला से इश्क़ हो गया था जो उनकी प्रशंसक थी। इस महिला का पति बहुत अमीर था और वो महिला मजाज़ के लिये अपने पति को नहीं छोड़ना चाहती थी क्योंकि तब मजाज़ के पास कुछ था भी नहीं । इश्क़ में नाकामी के बाद मजाज़ शराब में डूब गए और ख़ुद को बरबाद करने लगे।
मजाज़ इश्क़ में बुरी तरह डूबे हुए थे । जीवन के उस दौर में उन्होंने कुछ बेहतरीन रुमानी शायरी की जिसमें इश्क़ में नाकामी का दर्द झलकता है:
बताऊँ क्या तुझे ऐ हम-नशीं किस से मोहब्बत है
मैं जिस दुनिया में रहता हूँ वो इस दुनिया की औरत है
सरापा रंग-ओ-बू है पैकर-ए-हुस्न-ओ-लताफ़त है
बहिश्त-ए-गोश होती हैं गुहर-अफ़्शानियाँ उस की
बेटे की शराबख़ोरी और बदहाली की ख़बर जब उनके परिवार को मिली तो उनके पिता उन्हें वापस लखनऊ ले आए। मजाज़ नर्वस ब्रेक डाउन की स्थिति में पहुंच चुके थे। उन्हें रांची के मेंटल अस्पताल में दाख़िल किया गया, वहां भी वो लिखते रहे और ठीक हो कर वापस लखनऊ अ गए।इस तरह पागलपन का वो दौर तो ख़त्म हो गया लेकिन वो अभरता शायर अब तक टूट चुका था, बदनाम हो चुका था और हार चुका था। मजाज़ मुशायरे पढ़कर और मुंबई में अपने पुराने साथियों के साथ प्रगतिशील लेखकों के,ग्रुप के साथ काम करके अजीविका कमाने की कोशिश करने लगे लेकिन उनकी दिमाग़ी हालत लगातार ख़राब हो रही थी।
मजाज़ के असामयिक निधन को लेकर कई लेख और किताबें लिखी गईं। ठंड के मौसम में एक रात मुशायरे के बाद लखनऊ के लाल बाग़ इलाक़े के एक स्थानीय मयख़ाने में उन्हें शराब पीते देखा गया था। अगली सुबह वह कोमा में पहुंच गए और आख़िरकार बाद में अस्पताल में उनका निधन हो गया। लखनऊ के निशातगंज कब्रग्राह मे आज भी मजाज़ का कब्र देखा जा सकता है। लखनऊ से मोहब्बत उनकी इस नज़्म मे देखा जा सकता हे
फ़िरदौस-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ है दामान-ए-लखनऊ
आँखों में बस रहे हैं ग़ज़ालान-ए-लखनऊ
सब्र-आज़मा है ग़मज़ा-ए-तुर्कान-ए-लखनऊ
रश्क-ए-ज़नान-ए-मिस्र कनीज़ान-ए-लखनऊ
हर सम्त इक हुजूम-ए-निगारान-ए-लखनऊ
और मैं कि एक शोख़-ग़ज़ल-ए-ख़्वान-ए-लखनऊ
मुतरिब भी है शराब भी अब्र-ए-बहार भी
शीराज़ बन गया है शबिस्तान-ए-लखनऊ
मजाज़ के निधन के बाद कई सवाल उठने लगे जिनका जवाब नहीं था। मजाज़ की बहन हमीदा सलीम ने अपनी श्रद्धांजलि “जग्गन भैया” में सवाल किये है कि उनके भाई ने क्यों अपनी ज़िंदगी ख़ुद ही तमाम कर दी? और ये कि क्या उन्हें बचाया जा सकता था? मजाज़ की ज़िंदगी, ख़ासकर उनकी छोटी बहन हमीदा सलीम के अनुसार “किसी आदर्श मायूस कवि के काल्पनिक संस्मरण की तरह लगती है, सिवाय इसके कि ये दिल तोड़ने वाली सच्चाई है।”
मजाज़ के भांजे और कवि तथा मनोविश्लेषक डॉ. सलमान अख़्तर ने पांच दिसंबर सन1955 की सर्द रात में हुई मजाज़ की मृत्यु के रहस्य को खोला। उनका कहना है कि मजाज़ की कई ग़ज़लों और रुबाईयों में मौत का ज़िक्र देखा जा सकता है। उनका तर्क है कि 37 साल का एक व्यक्ति मौत के बारे में क्यों लिखेगा? श्री अख़्तर मजाज़ की आत्मविनाशकारी प्रवृत्ति का मनोविश्लेक्षण भी करते हैं। “मजाज़ ट्रैजिक एंड, सम साइकोएनेलेटिक स्पेक्यूलेशन्स” नाम के निबंध में अख़्तर ने अपनी फ़ूफ़ी हामिदा सलीम के उठाए गए सवालों के जवाब दिये हैं।
सन 1955 में मजाज़ की मौत ने उर्दू शायरी की दुनिया में शून्य पैदा कर दिया। अपनी छोटी सी ज़िंदगी में वह कुछ ऐसी यादगार नज़्में दे गए जिन्होंने उन्हें उर्दू अदब में अमर कर दिया।
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