पिछले दिनों पहले बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि के बारे में आए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद से अयोध्या काफ़ी ख़बरों में रहा है। लेकिन तमाम विवादों से परे ,अयोध्या से महज़ छह किलो मीटर दूर, फ़ैज़ाबाद में नवाबी दौर की एतिहासिक और शायद सबसे सुंदर धरोहर हैं – गुलाब बाड़ी जिस पर लोगों का ध्यान कम ही जाता है ।
दरअसल गुलाब बाड़ी अवध के तीसरे नवाब शुजाउद्दौला का मक़बरा है। लखनऊ को नवाबों का शहर कहा जाता है लेकिन सच्चाई यह है कि अवध के नवाबों की पहली राजधानी फ़ैज़ाबाद शहर था और वहीं से नवाब अपनी हुकूमत चलाते थे।
गुलाब बाड़ी की कहानी, दरअसल अवध के कुछ कम चर्चित नवाबों की कहानियों का हिस्सा है।
इस कहानी की शुरूआत सन 1722 से होती है जब मुग़ल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला ने अपने भरोसेमंद मंत्री सादत ख़ान बुरहान-उल-मुल्क(1680-1722) को अवध का सुबेदार नियुक्त किया था। सादात ख़ान ने हाउस आफ़ निशापुर की नींव रखी थी। उन्होंने सन 1856 तक अवध पर हुकुमत की थी। सादात ख़ान के पिता उत्तरी ईरान के निशापुर से भारत आये थे।
सादत ख़ान ने अयोध्या में लक्ष्मण घाट पर क़िला मुबारक बनाया था। यह क़िला मिट्टी से बनवाया गया था। जहां वह अपने लागों के साथ ठहरता था। हालांकि वह बहुत आरामदेह जगह नहीं थी ख़ासतौर पर बारिश के मौसम में। इसी वजह से उस ने अयोध्या से छह किलो मीटर दूर अपने लिए एक बड़ा मकान बनाया। उसको मानने वाले लोग जल्द ही उसके आसपास आ कर बस गये। वह भवन “बंगला” के नाम से जाना जाने लगा।
सादत ख़ान के बाद उसका दामाद नवाब अबू मंसूर अली ख़ान यानी सफ़दर जंग (1708-1754) उसका उत्तराधिकारी बना। ईरान के निशापुर में जन्में सफ़दर जंग ने, अपने ससुर की वजह से बहुत जल्द ही मुग़ल दरबार में ऊंचा मुक़ाम पा लिया।
सफ़दर जंग ने ही बंगले और उसके आसपास की जगह का नाम फ़ैज़ाबाद रखा था
उसी के दौर में धीरे धीरे फ़ैज़ाबाद की आबादी बढ़ना शुरू हो गई थी। कुछ ही दिनों बाद सफ़दर जंग मुग़ल हुकुमत के वज़ीर बन गये थे इसीलिये उनका ज़्यादातर वक़्त दिल्ली में गुज़रने लगा था।सन 1754 में ,फ़ैज़ाबाद से लगभग 60 किलो मीटर दूर सुल्तानपुर में उन्होंने अपने जीवन की अंतिम सांस ली थी।
सफ़दर जंग को पहली बार फ़ैज़ाबाद की गुलाब बाड़ी में ही दफ़नाया गया था। उसके बाद उन्हें दिल्ली में दफ़नाया गया। वह जगह आज सफ़दर जंग मक़बरे के नाम से जानी जाती है।
सफ़दर जंग हवाई अड्डा, सफ़दर जंग अस्पताल और सफ़दर जंग एनक्लेव के नाम उन्हीं के नाम पर रखे गये हैं
सफ़दर जंग के बेटे और उनके उत्तराधिकारी शुजाउद्दौला ( 1732-1775 ) के वक़्त में ही फ़ैज़ाबाद ख़ूब फूला-फला। उन्होंने शहर में कई भवन, मस्जिदें,बाग़ीचे , इमाम बाड़े और बाज़ार बनवाये। उन्होंने बंगले को ख़ूबसूरत दिलख़ुशां पैलेस में तब्दील कर दिया। शुजाउद्दौला ने एक बड़ा बाज़ार भी बनवाया जिसके लिये एक बुलंद दरवाज़ा भी बनवाया गया । उसकी तीन महराबों की वजह से उसका नाम तिरी पोलिया गेट रखा गया।
बेगम आफ़ अवध के नाम से दो बेगमें जानी जाती थीं जिनका प्रभाव पूरे शहर पर था। उनमें से एक शुजाउद्दोला की मां थीं और दूसरी थीं उनकी पत्नी । नवाब बेगम, नवाब सादत अली ख़ान की बेटी और नवाब सफ़दर जंग की विधवा थीं। सन 1739 में उन्हें अपने पिता की सम्पत्ती में से 90 लाख रुपये मिले थे। वह उस वक़्त भारत की सबसे दौलतमंद महिला मानी जाती थीं। समाज सेवा में भी उनकी गहरी दिलचस्पी थी। फ़ैज़ाबाद में उन्होंने ख़ूबसूरत मोती मस्जिद भी बनवायी थी। उनमें गहरी राजनितिक समझ भी थी। हुकुमत के कामकाज में वह अपने बेटे को सलाह मशवरा भी देती थीं।
दूसरी महिला थीं बहू बेगम जो नवाब शुजाउद्दौला की पत्नी थीं। अपनी सास की तरह बहू बेगम भी होशियार महिला थीं। सन 1764 में अंग्रेज़ों के हाथों अवध की पराजय हो गई थी। 40 लाख रुपये हर्जाने के तौर अंग्रेज़ों को अदा करने थे। नवाब साहब का ख़ज़ाना खाली था। तब बहू बेगम ने अपनी सम्पत्ति गिरवीं रखकर पैसे इकट्ठा किये थे।
नवाब शुजाउद्दौला ने, उस समय के रिवाज के मुताबिक़, ज़िंदा होते हुए ही, गुलाब बाड़ी में अपना मक़बरा बनवा दिया था। उसमें एक कक्ष है जिसमें शुजाउद्दौला और उनकी मां की क़बरें हैं। यह मक़बरा, ठीक मुग़लिया अंदाज़ में बना है यानी मक़बरे के चारों तरफ़ बाग़ीचा है जो चारबाग़ के नाम से जाना जाता है। वहां फ़व्वारा भी है और एक पतली से नहर भी बनी है। दो मंज़िला और चौकोर बने मक़बरे की पहले मंज़िल के चारों तरफ़ ढ़के हुये बरामदे हैं और ऊपरी मंज़िल पर तीन मेहराबें हैं जिनके कोनों पर मीनार बने हैं।
भवन के भीतर शाही हमाम और बारादरी भी हैं। चारबाग़ चारों तरफ से, लाखौरी ईंटों और चूने से बनी दीवार से घिरा है। जिन पर प्लास्टर से फूल-पत्तियां बनाई गई हैं।
सन 1775 में शुजाउद्दौला की मौत के बाद, उनके बेटे असिफ़उद्दौला महज़ 26 साल की उम्र में नवाब बन गये थे। उनके पास बेहद दौलतमंद और शक्तिशाली दादी और मां तो थीं लेकिन उनका ख़ुद का ख़जाना खाली था। उन दो प्रभावशाली महिलाओं के दबदबे से बचने के लिए उन्हें फ़ैज़ाबाद के बजाय लखनऊ को अपनी राजधानी बनाना पड़ा। नवाब असिफ़ुद्दौला ने लखनऊ में एक भव्य दरबार सजाया लेकिन उनकी दादी और मां फ़ैज़ाबाद से एक समानान्तर सरकार चलाती रहीं ।
सन 1816 में बहू बेगम का इंतक़ाल हो गया। उनकी इच्छा के अनुसार, उनके प्रमुख सलाहकार दराब अली ख़ान ने तीन लाख रुपये की लागत से उनका मक़बरा बनवाया । बहू बेगम का मक़बरा, फ़ैज़ाबाद की निहायत ख़ूबसूरत इमारतों में से एक है।
आज की सियासत और सनसनीख़ेज़ ख़रों के बीच फ़ैज़ाबाद की शानदार इमारतों के भुला दिया गया है, शायद जानबूझकर।
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