नाज़ुक कपड़े पर मेरून( गाढ़ा भूरा रंग) और भूरे रंग के सुंदर जनजातीय रुपांकन ही ओडिशा के कोटपाड़ शहर की पहचान है। कोरापुट ज़िले में स्थित ये शहर रंगे हुए कपड़ों पर हाथ से बुनाई के लिए जाना जाता है लेकिन जो बात इस बुनाई को विशिष्ट बनाती है वो है इसका प्रकृति के साथ संबंध।
भारतीय हथकरधा की समृद्ध परंपरा है और उड़ीसा में भी ये महान परंपरा रही है। ऐसी ही एक परंपरा है कोटपाड़ बुनकरी जिसे मिरगन समुदाय ने संजोकर रखा है। अगर आप कोटपाड़ जाएं तो पाएंगे कि कोई भी धार्मिक पर्व या फिर समारोह ऐसा नहीं होगा जहां स्थानीय लोगों ने ऐसे परिधान न पहनें हों जिन पर सुंदर और रंगीन कोटपाड़ बुनाई न हो। यह शहर इसी के लिए प्रसिद्ध है।
इस परंपरा की कब शुरुआत हुई, इसके बारे में तो कोई ख़ास जानकारी नहीं है लेकिन ये परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। किसी समय इस तरह की बुनाई वाले वस्त्र भतरा, धुरुआ, परजा, माड़िया और कोया जैसी अन्य जनजातियों की पारंपरिक वेशभूषा हुआ करती थी।
ऐसे समय में जब वस्त्र उद्योग स्थिरता और पर्यावरण के अनुकूल तकनीक की तरफ़ अग्रसर है, कोटपाड़ के पास पेश करने के लियए बहुत कुछ है। सालों से कोटपाड़ बुनाई की प्रक्रिया प्रकृतिक और जैविक रही है। इसमें रसायनों का बिल्कुल प्रयोग नहीं होता है। कोटपाड़ के लिए सूती कपड़ा हाथ से बुना जाता है। इसमें गाय के गोबर, राख और अरंडी के तेल का इस्तेमाल किया जाता है। रंगाई और प्रसंस्करण में स्थानीय आल वृक्ष की जड़ों का इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रकृतिक रंगाई से कई सुंदर रंग बनते हैं और इसी वजह से कोटपाड़ वस्त्र दिलकश बन जाते हैं।
लेकिन कपड़े की प्रकृतिक प्रकृति की क़ीमत भी चुकानी पड़ती है। रंगाई की प्रक्रिया बहुत ही जटिल होती है और इसमें समय भी बहुत लगता है। घागे को रंगने में 15 से 20 दिन लग जाते हैं। दिलचस्प बात ये है कि रंगाई का काम सिर्फ़ महिलाएं करती हैं जबकि समुदाय के पुरुष बुनकर हैं। धागे को पहले धोया जाता है और फिर इसमें कलफ़ लगाया जाता है। इसके बाद इसे लकड़ी के डंडों पर सुखाया जाता है। फिर इस पर अरंडी का तेल लगाया जाता है ताकि धागे पर रंग अच्छी तरह चढ़ जाए।
रंगाई के पहले घागे पर गाय का गोबर लगाया जाता है। गाय के गोबर के लेप से धागा ब्लीच (सफ़ेद) हो जाता है और इस पर रंग ठीक तरह से चढ़ जाता है। इसके बाद एक बार फिर धागे को सुखाया जाता है। इसके बाद इसे राख में घुले पानी से धोया जाता है। फिर इसे स्थानीय तालाब में आख़िरी बार धोया जाता है।
अगले चरण में धागे को आल वृक्ष की जड़ों के रंग से रंगा जाता है। कोटपाड़ वस्त्र उत्पादन का ये सबसे महत्वपूर्ण चरण होता है और ये इस वस्त्र की निर्धारक विशेषताओं में से एक माना जाता है। धागे को सुखाने का सबसे बेहतर समय नवंबर और मार्च के बीच का होता है क्योंकि तब बारिश नहीं होती।
आल वृक्ष की जड़ों के पाउडर को अरंडी के तेल और पानी में मिलाकर रंग तैयार किया जाता है। आल वृक्ष या मदार के पेड़ की जड़ों को पहले सुखाया जाता है, फिर कुचलकर गहरा लाल रंग का पाउडर बनाया जाता है। धागे को लाल रंग के पाउडर के घोल में डुबोया जाता है और फिर इसी घोल में उसे उबाला जाता है। इस प्रक्रिया से लाल, गहरा लाल और भूरा रंग बनता है लेकिन ये रंग कितना लाल, भूरा या गहरा लाल होगा, ये इस बात पर निर्भर करता है कि घोल का रंग कितना गाढ़ा है और इसे बनाने में जिस आल वृक्ष की जड़ें इस्तेमाल की गईं हैं, वो कितनी पुराना है।
क़ुदरती रंग बनाने में आल वृक्ष के अलावा हड़ और लोह गंधक (सल्फ़ेट) अथवा कुमार पत्थर का भी प्रयोग किया जाता है। रंग को गाढ़ा करने के लिये हीराकशी का भी इस्तेमाल किया जाता है। प्रकृतिक सामग्रियों के इस्तेमाल से न सिर्फ़ कपड़े की चमक बरक़रार रहती है बल्कि इसे पहनने वाले व्यक्ति के शरीर को भी कोई नुकसान नहीं होता। ये उमस भरे मौसम में भी ये बहुत आरामदेह होता है क्योंकि इससे शरीर को ठंडक मिलती है।
बुनाई के पहले रंग चढ़ाए गए धागे को सुखाया जाता है। कोटपाड़ में आज भी पारंपरिक बुनाई की शैली का प्रयोग होता है। बुनाई का काम गड्ढे में लकड़ी और बांस के बने करधे पर किया जाता है। कोटपाड़ बुनाई में मुख्यत: गहरा लाल, भूरा, गहरा भूरा और धूमिल सफ़ेद रंग प्रमुख होते हैं। पारंपरिक रुप से कोटपाड़ बुनकर साड़ियां या पटा, गमछा और तुवल (पुरुष द्वारा कमर के नीचे पहने जाने वाला वस्त्र) बनाते हैं लेकिन अब वे दुपट्टे और स्टोल (ओढ़नी) भी बनाने लगे हैं। कोटपाड़ साड़ियां कई क़िस्म की होती हैं। ये धार्मिक पर्व या फिर समारोह के अनुसार बनाईं जाती हैं।
कोटपाड़ रुपांकन भी बहुत आकर्षक होते हैं। क़बायली रुपांकनों पर प्रकृति और आसपास के स्थानीय परिवेश का प्रभाव दिखाई देता है। पत्तियां, पशु, नदियां और खेत कोटपाड़ रुपांकनों के सामान्य विषय होते हैं। जिस हुनर के साथ इन्हें बनाया जाता है उसे देखकर लगता है मानों ये दस्तकार अपनी शिल्पकला के ज़रिए प्रकृति से संवाद कर रहे हों।
लेकिन अन्य पारंपरिक शिल्पकलाओं की तरह कोटपाड़ के सामने भी उसकी अपनी चुनौंतियां हैं। ऐसी शिल्पकला जो पूरी तरह प्रकृतिक तत्वों पर निर्भर है, पर्यावरण की ख़राब होती स्थिति और जलवायु परिवर्तन का उस पर ख़तरा मंडरा रहा है। इसकी वजह से आल वृक्ष पर भी ख़तरा पैदा हो गया है। इसके अलावा युवा पीढ़ी अब अजीविका के अन्य साधन अपनाने लगी है जिससे इस कला के अस्तित्व के लिए ख़तरा पैदा होता जा रहा है।
सन 2005 में कोटपाड़ बुनाई को जीआईट (Geographical Indication Tag of India) मिला था लेकिन “पीपल ट्री” जैसे संगठनों की वजह से ही इस क्षेत्रीय कला को मुख्यधारा में लाया जा रहा है और राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ावा दिया जा रहा है। “पीपल ट्री” की वेबसाइट पर जो कोटपाड़ उत्पाद हैं वो पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित कलाकार गोवर्धन पणिका के बनाए हुए हैं। उन्होंने और उनके परिवार ने ओडिशा की दुर्लभ और अनोखी कोटपाड़ कला की धरोहर को जीवित रखा हुआ है।
“पीपल ट्री” में डिज़ाइन और प्रॉडक्ट की प्रमुख अर्चना नायर, कोटपाड़ में बुनकरों के साथ काम करती हैं। उनका कहना है, “मेरे लिए जो बड़ी बात है वो ये है कि कोटपाड़ की एक एक चीज़ बनाना कितना मेहनत का काम है। शुरु से लेकर अंत तक एक स्टोल तक बनाने में महीनों लग जाते हैं।” इसके अलावा हाथ की बुनाई में प्रयोग किए जाने वाला सारा सामान प्रकृतिक और स्थानीय होता है।
नायर का मानना है कि कोटपाड़ भारत की दुर्लभ बुनकरी में से एक है। उनके अनुसार-“हमें इस बुनकरी को संरक्षण देने की ज़रुरत है और हम “पीपल ट्री” में यही कर रहे हैं। हम बुनकरों के साथ काम करते हैं और उन्हें मूल रुपांकनों तथा डिज़ाइन की तरफ़ लौटने के लिए प्रेरित करते हैं। कोटपाड़ की ख़ूबसूरती ये है कि हर उत्पाद अनोखा होता है और इसकी जड़ें इस क्षेत्र के जनजाति की परंपराओं में होती हैं।”
कोटपाड़ उत्पाद बनाने में समय, कोशिश और धीरज लगता है लेकिन जो नतीजा सामने आता है उससे सारी मेहनत सार्थक हो जाती है। आदिवासियों की प्रकृति पर आधारित ये कला सही मायने में भारत की बुनकरी की समृद्ध धरोहर को साकार करती है।
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