क्या आपको पता हे आपके मेज़ पे रखे हुए फल सब्ज़ियों और मसालों का ऐतिहास ? क्या आप अपनी प्लेट पर पहुंचने से पहले उनकी यात्रा के बारे जानना चाहते हैं तो आज पढ़िए ऐसे ही 5 खाद्य सामग्री के दिलचस्प सफर के बारे में
1- बैंगन
साढ़े चार हज़ार साल पहले हरियाणा के गांव फ़रमाना में एक परिवार बैंगन खाने बैठा जो सरसों के तेल में बना हुआ था और उसमें लहसुन, अदरक और हल्दी डली हुई थी। परिवार के सदस्यों ने बैंगन की सब्ज़ी का लुत्फ़ जौ और बाजरा के बने पराठों से उठाया। ये भारत में खाने की सबसे पुरानी विधि मानी जाती है। ये निष्कर्ष पुरावनस्पतीशास्त्री और पुरातत्विद अरुणिमा कश्यप ओर स्टीव वेबर ने खाने के टूटे बर्तनों के गहन अध्ययन के बाद निकाला है। ये बर्तन हरियाणा की घाघर घाटी में फ़रमाना गांव में खुदाई में मिले थे। फ़रमाना में खुदाई की वजह से ही हमें पता चला कि बैंगन भोजन का सबसे पुराना पौधा है।
बैंगन में कई महत्वपूर्ण विटामिन और कैमिकल होते हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है एंथोस्यानिन जिसे नैसुनिन कहते हैं। ये ऑक्सीकरण रोधी होता है जो सेल की झिल्लियों को क्षतिग्रस्त होने से बचाता है। इस तरह बैंगन दिमाग़ के लिये बहुत अच्छा माना जाता है। बैंगन में विटामिन के(K) और सी(C) प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। अध्ययन से पता चला है कि रोज़ बैंगन खाने से दिल की बीमारियां कम होती हैं और ये डायबिटीज़ को भी नियंत्रित करने में भी मदद करता है। और पढ़ें
2- आलू
भोजन पर कॉलम लिखने वाले पत्रकार वीर सांघवी ने आलू को भारतीय सब्ज़ियों का राजा बताया है हालंकि ये विदेश से आया है। आलू हमें कोलंबियन विनिमय में मिला था। क्रिस्टोफ़र कोलंबस अमेरिका की खोज के बाद वापसी के समय कई तरह के स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ लाया था। आलू के अलावा स्पेन और पुर्तगाल के नाविक हमारे देश में मिर्च और अमरुद तथा चीकू जैसे फल भी लाए थे। कहा जाता है कि स्पेन के नाविक सबसे पहले यूरोप में आलू लाए थे जिन्हें सन 1536 में इसके बारे में पता चला था। भारत में आलू पुर्तगालियों के आने के बाद आया।
अब ज़रा आलू पर आलोचनात्मक दृष्टि भी डाली जाए। ज़्यादातर लोगों को लगता है कि आलू बेकार की सब्ज़ी है, इसमें सिर्फ स्टार्च होता है और इसे खाने से मोटापा बढ़ता है। लेकिन यह सोच ग़लत है। आलू में उन तमाम पोषक तत्वों की भरमार होती है जो हमारे ज़िदा रहने के लिये ज़ररी हैं। लेकिन ज़ायादातर पोषक तत्व या तो आलू के अंदर होते हैं या फिर इसके छिलके में और इसे छीलने से पोषक तत्व के गुण समाप्त हो जाती है।
भारतीय और चीनियों का आलू के साथ तीन सौ साल पुराना नाता है और विश्व में आलू उत्पादन में तैंतीस प्रतिशत से ज़्यादा योगदान इन दोनों देश का होता है। ऐसा नहीं है कि आलू खाने से मोटापा बढ़ता है, दरअसल आलू को तल कर या इस पर मक्खन और चीज़ लगाकर खाने से मोटापा बढ़ता है। आलू में फ़ॉसफ़ोरस, कैल्शियम, मैग्निशियम, ज़िंक, फ़ाइबर, विटामिन सी, विटामिन बी6 होता है और कॉलेस्टेरोल तो बिल्कुल नहीं होता। आलू में एक कैमिकल होता है जिसे कोलीन कहते हैं। इससे मांसपेशियों की गतिविधियों में मदद मिलती है, इससे दिल ख़ुश रहता है और पढ़ने-लिखने तथा चीज़ों को याद रखने में भी मदद मिलती है। इसमें कुछ प्रोटीन भी होता है। आलू कब्ज़ होने से भी बचाता है जिसकी जानकारी इंका शासकों को थी। और पढ़ें
3- मिर्च
लेकिन क्या आप जानते है की मिर्च का भारत से कोई सम्बन्ध नहीं है? उसका सीधा संबंध दक्षिण और मध्य अमेरिका से है। पुरातत्वविदों के अनुसार मैक्सिको में मिली गुफाओं से पता चलता है कि साढ़े सात हज़ार साल पहले भी लोग मिर्च खाते थे। इस बात के भी सबूत मिले हैं कि ओल्मेक, टॉलटेक, माया और एज़्टेक सहित दक्षिण अमेरिका की सभी सभ्याताओं के दौरान मिर्च खाई जाती थी।
भारत में मिर्च सन 1498 में आई जिसे पुर्तगाली सबसे पहले गोवा लेकर आए थे। जल्द ही भारत के लोगों को ये तीखी फली भा गई और वे इसकी खेती करने लगे। मिर्च उगाना आसान था क्योंकि ये हर मौसम में पैदा हो सकती थी और इसकी पैदावार में कोई ख़ास ख़र्च भी नहीं होता था। मिर्च में कैप्सैसिन होता है जो इसे तीखा बनाता है। इसके अलावा ये अंश मिर्च के पौधे को कीड़ों से भी बचाता है।
मिर्च खाने का अपना मज़ा तो होता ही है लेकिन इसके कई फ़ायदे भी हैं। कहा जाता है कि दिन में एक मिर्च खाने से भूख बढ़ती है। कैप्सैसिन से फेफड़े साफ़ होते हैं और रक्त प्रवाह अच्छा रहता है। जोड़ों की बीमारी में मिर्च खाने से दर्द से आराम मिलता है। मिर्च में विटामिन सी और एंटीऑक्सिडेंट होता है। मिर्च खाने से घाव जल्दी भरने में मदद मिलती क्योंकि रक्त में मिलने के बाद मिर्च का द्रव्य घावकी जगह पहुंचकर उसे जल्दी ठीक कर देता है। मिर्च दिल के लिए भी अच्छी मानी गई है क्योंकि इसमें विटामिन बी6 और फ़ॉलिक एसिड होता है। बी6 विटामिन से होमोसिस्टीन कम होता जिससे दिल का दौरा पड़ने की संभावना कम हो जाती है। और पढ़ें
4- केला
वाचिक परंपरा में भारत पर सिकंदर के हमले को लेकर एक दिलचस्प कहानी है। सिकंदर ने क़रीब 2350 साल पहले भारतीय उप-महाद्वीप पर हमला किया था। सिकंदर भारत में बहुत भीतर तक नहीं घुस सका और बाहर से ही वापस लौट गया। वह और उसके सैनिक अपने साथ भारत से कथाएं, परंपराएं और यहां तक कि केले भी ले गए।
जी हां, केले। एक वाचिक परंपरा के अनुसार सिकंदर को भारतीय केला इतना पसंद आया था कि वह अपने साथ इसे ले गया और इस तरह से भारतीय केला यूरोप पहुंच गया। सिकंदर के सैनिक भारतीय केला अरब भी ले गए जिसे अब वहां “बानन” कहते हैं जो अरबी का शब्द है। अरबी में बानन यानी उंगली।
भारत उन देशों में से हैं जहां सबसे पहले जंगली केले के पेड़ हुए थे। भारत के लोग प्रारंभिक हड़प्पा के समय से (क़रीब पांच हज़ार साल पहले) केले की खेती करते आए हैं। राजस्थान के कालीबंगा में प्रारंभिक हड़प्पा के समय का बर्तन का एक टुकड़ा मिला है जिस पर चित्रकारी है। इस चित्र में एक मुर्ग़ी केले के एक पेड़ के नीचे खड़ी है। कहा जाता है कि जंगली केले की खेती सबसे पहले नवपाषाण काल में नया गिनी द्वीप में हुई थी। ज़्यादातर जंगली केलों में बीज होते हैं लेकिन जो केलों हम देखते और खाते हैं उनमें बीज नहीं होते। और पढ़ें
5 – ज़ाफ़रान
शायरों ने इसे रुमानी बना दिया है, भिक्षुओं ने इसके रंग से रंगे वस्त्र पहने हैं, ये बादशाहों के ख़्वाबों में बसा है और संतों ने इसकी अराधना की है। ज़ाफ़रान के साथ कई कहानियां जुड़ी हुई हैं। एक कथा के अनुसार मुग़ल बादशाह अकबर को ज़ाफ़रान की ख़ुशबू इतनी पसंद थी कि उनके महलों के ग़ुसलख़ानों, ख़ासकर राजस्थान के महलों के ग़ुसलख़ानों की खिड़कियों के सामने ज़ाफ़रान के खेत हुआ करते थे ताकि वहां से ज़ाफ़रान की ख़ुशबू खिड़की से अंदर आए और पूरे माहौल को महका दे।
ऐतिहासिक सबूतों के अनुसार ज़ाफ़रान का इस्तेमाल ढाई हज़ार साल से भी पहले भी होता था। इसका इस्तेमाल पारसी भोजन, रोज़मर्रा की चीज़ों, कपड़ों की रंगाई, दवाओं और परफ़्यूम बनाने में होता था। ज़ाफ़रान कश्मीर कैसे पहुंचा और इसे वहां कौन ले गया, ये बहस का विषय है।
ब्रितानी इतिहासकार एंड्रु डेल्बी अपनी किताब “डैंजरस टेस्ट्स : द स्टोरी ऑफ़ स्पाइसेज़” में का कहना है कि शायद पारसी(ईरानी) 5वीं शताब्दी (ई.पू.) में पहली बार ज़ाफ़रान कश्मीर लाए थे। इनका ये भी कहना है कि वान झेन नाम के चीनी वनस्पति विशेषज्ञ ने भी तीसरी शताब्दी में अपनी किताब में कश्मीर में ज़ाफ़रान की मौजूदगी का उल्लेख किया है।
“कश्मीर ज़ाफ़रान की उत्पत्ति का घर है, जहां इसकी खेती मूलत: बुद्ध को चढ़ावा चढ़ाने के लिये की जाती है। ज़ाफ़रान के पौधे के फूल कुछ दिन में मुरझा जाते हैं और फिर इसमें से ज़ाफ़रान निकाला जाता है। इसके एक समान पीले रंग की वजह से ही इसकी अहमियत है|” और पढ़ें
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