उत्तरप्रदेश के 3 अद्भुत कला केंद्र 

उत्तर प्रदेश एक ऐतिहासिक राज्य हैं जहाँ सदियों से अनेक शासकों ने राज किया है| इन शासकों ने इन शासकों ने हस्तशिल्प कला को सराहया और संरक्षण दिया जिसके कारण इस क्षेत्र में शिल्पकला का विकास हुआ। आज हम आपको उत्तर प्रदेश के तीन शहरों के बारे में बता रहे हैं जिनकी अपनी अनूठी कला पूरे विश्व में प्रसिद्ध है।

1- लखनऊ की चिकनकारी

लखनऊ शहर की कई ख़ासियत हैं जिनका ज़िक्र भारत के समृद्ध इतिहास में मिलता है जो इसे और ख़ास बना देता है। सदियों से कला और संस्कृति इस शहर की पहचान रही है। ऐसी ही एक कला है लखनऊ चिकनकारी जिसने गुज़रे ज़माने के शाही परिवारों और आज के फ़ैशनपरस्त शख्सियतों दोनों को ही समान रुप से विस्मित किया है। कला के इस रुप में कशीदाकारी की क़रीब 36 तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है। अब आधुनिक समय में चिकनकारी में मोती, कांच और मुक़ेश (बादला) से भी सजावट की जाती है।

आज लखनऊ कढ़ाई की इस कला का गढ़ बन चुका है और अब तो इसकी शोहरत विदेशों तक पहुंच चुकी है। चिकनकारी कढ़ाई का वो काम है जो सफ़दे धागे से महीन सफ़ेद कपड़े पर की जाती है। चिकनकारी को शैडो वर्क के नाम से भी जाना जाता है। पारंपरिक रुप से चिकनकारी मलमल और सफ़ेद कपड़े पर सफ़ेद धागे से की जाती थी लेकिन आज ये अलग अलग कपड़ों पर अलग अलग हल्के रंगों के धागों से की जाती है।

भारतीय चिकनकारी का काम तीसरी शताब्दी से होता रहा है। चिकन शब्द शायद फ़ारसी के चिकिन या चिकीन शब्द से लिया गया है जिसका मतलब होता है कपड़े पर एक तरह की कशीदाकारी। लखनऊ में चिकनकारी का काम दो सौ सालों से भी पहले से होता रहा है। लेकिन किवदंतियों के अनुसार 17वीं शताब्दी में मुग़ल बादशाह जहांगीर की बेगम नूरजहां तुर्क कशीदाकारी से बहुत प्रभावित थीं और तभी से भारत में चिकनकारी कला का आरंभ हुआ। ये भी माना जाता है कि आज चिकनकारी वाले लिबासों पर जो डिज़ाइन और पैटर्न नज़र आते हैं उसी तरह के डिज़ाइन और पैटर्न वाले चिकनकारी के लिबास बेगम नूरजहां भी पहनती थीं।

मुग़लकाल के पतन के बाद 18वीं और 19वीं शताब्दी में चिकनकारी के कारीगर पूरे भारत में फैल गए और उन्होंने चिकनकारी के कई केंद्र खोल दिए। इनमें से लखनऊ सबसे महत्वपूर्ण केंद्र था जबकि दूसरे नंबर पर अवध का चिकनकारी केंद्र आता था। उस समय बुरहान उल मुल्क अवध का गवर्नर और ईरानी अमीर था। वह चिकन का मुरीद भी था जिसने इस कला के गौरवशाली अतीत की बहाली में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनका ये योगदान आज भी ज़िंदा है। हालंकि आज लखनऊ चिकनकारी का गढ़ है लेकिन पश्चिम बंगाल और अवध ने भी इसके विकास में भूमिका अदा की थी।

चिकनकारी कढ़ाई के आरंभ के बारे में कई तरह की बाते की जाती हैं। कहा जाता है कि एक बार एक यात्री लखनऊ के एक गांव से गुज़र रहा था। प्यास लगने पर उसने एक ग़रीब किसान से पानी मांगा। किसान की मेहमान नवाज़ी से ख़ुश होकर यात्री ने उसे चिकनकारी की कला सिखाई जिसके बाद वह किसान कभी भूखा नहीं रहा।

लखनऊ चिकनकारी की तकनीक को आसानी से दो हिस्सों में बांटा जा सकता है- कढ़ाई के पहले और बाद का चरण और सिलाई के 36 रुप जिन्हें कढ़ाई की प्रक्रिया में इस्तेमाल किया जा सकता है। और पढ़ें

2- आगरा की पर्चिनकारी

संगमरमर पर जड़ाई के काम को पर्चिनकारी कहते हैं जो फ़ारसी शब्द है। पर्चिनकारी कला में संगमरमर पर बनाई गईं डिज़ाइनों में नगों को जड़ा जाता है। ये कला भारत में मुग़ल वास्तुकला की विशेषता रही है जिसका बेहतरीन उदाहरण आगरा का ताज महल है।

माना जाता है कि पर्चिन कला प्राचीन रोम की देन है जहां इसे ओपस सेक्टाइल कहा जाता था। चौथी सदी से ही गिरजाघरों, भव्य समाधि मंडपों और फ़र्शों पर पत्थरों तथा संगमरमर पर बनाई गईं छवियों पर ये कारीगरी की जाती थी। बाद में इटली के नवजागरण काल में इस कला का पुनर्जन्म हुआ। 16वीं शताब्दी तक आते आते इसे ‘पिएत्रा ड्यूरा’ कहा जाने लगा। इटली में ये कला “पत्थर में चित्रकारी” के नाम से प्रसिद्ध हो गई थी। धीरे धीरे ये कला यूरोप और पूर्वी देशों में फैल गई। कहा जाता है कि 16वीं और 17वीं शताब्दी में ये कला भारत में भी आकर ख़ूब फूलीफली, ख़ासकर मुग़लकाल में।

आगरा, दिल्ली से लेकर राजस्थान में मस्जिदों और क़िलों पर पर्चिनकारी कला हमें चकित कर देती है। राजस्थान में तो आज भी ये कला जीवित है। इस कला के आरंभिक उदाहरण दिल्ली के पुराने क़िले (1540) की क़िला-ए-कुन्हा मस्जिद में देखे जा सकते हैं। मस्जिद की डिज़ाइन दूसरे मुग़ल बादशाह हुमांयू ने बनाई थी जिसने 16वीं शताब्दी में दिल्ली का तख़्त फ़तह किया था। हुमांयू को वास्तुकला में संगमरमर में जड़ाई के काम को समावेश करने का श्रेय जाता है।

मस्जिद की दीवारों और लिवान (गुंबददार सभागार) पर बनी ये मेहराबें नमाज़ पढ़ने की दिशा बताती हैं। लाल बलुआ पत्थरों की इन मेहराबों पर संगमरमर तथा बलुआ पत्थरों पर सोने, लाजवर्त तथा अन्य क़ीमती नगों की सुंदर तरीक़े से जड़ाई की गई थी।

आगरा के एतमाद-उद-दौला मक़बरे को “बच्चा ताज” या ज्वैल बॉक्स भी कहा जाता है। यहां क़ीमती तथा अर्द्ध कीमती पत्थर की जड़ाई का कमाल का काम देखा जा सकता है। ये मक़बरा नूरजहां ने सन 1621-1627 के बीच कभी अपने पिता के लिये बनवाया था। इसमें इंद्रगोप (हल्के लाल रंग का नग), सूर्यकांत (चमकदार श्वेत रंग का नग), राजावर्त (गहरे नीले रंग का नग), गोमेदऔर पुख़राज जैसे क़ीमती नगों की जड़ाई का काम है। आगरा क़िले में अकबर के जहांगीरी महल और फतहपुरी सीकरी के बुलंद दरवाज़े पर भी संगमरमर पर जड़ाई का सुंदर काम किया हुआ है। और पढ़ें

3- कन्नौज के इत्र

इतर (इत्र) का नाम सुनते ही ज़हन में मध्ययुगीन बाज़ारों, पतोन्नमुख राजाओं और रानियों का ख़्याल आता है और एक ख़ुशबू का भी एहसास होता है। लेकिन क्या आपको पता है कि भारत में परफ़्यूम बनाने की विश्व में सबसे पुरानी प्रणालियों में से एक है। सदियों पुरानी ये परंपरा आज भी उत्तर प्रदेश के शहर कन्नौज में ज़िंदा है।

दि्ली और बंगाल तथा गुजरात सल्तनत के शासनकाल के दौरान सुगंधशाला होती थी लेकिन मुग़ल काल में इनका और विस्तार हो गया। ऐसी कई कथाएं हैं जिससे पता चलता है कि मुग़लों के साथ इत्र बनाने की कला भारत में आई थी। कुछ किवदंतियों के अनुसार भारत में इत्र प्रथम मुग़ल बादशाह बाबर लाये थे और कुछ किवदंतियों में इसका श्रेय जहाँगीर और उनकी पत्नी नूरजहां को दिया जाता है। इन दोनों ने भले ही इत्र की ईजाद न की हो लेकिन उनके ज़माने में ये फलाफूला ज़रुर। मुग़ल काल में कन्नौज, जौनपुर और ग़ाज़ीपुर में इत्र बनाने का कारोबार बहुत फलाफूला और कन्नौज में आज भी इत्र बनाया जाता है।

कन्नौज प्राचीन भारत के महत्वपूर्ण शहरों में से एक हुआ करता था। कन्नौज 8वीं और 10वीं शताब्दी में पाल, राष्ट्रकूट और गुर्जर-प्रतिहार के बीच संघर्ष का केंद्र था। दिल्ली सल्तनत के फैलाव के बाद एक राजनीति केंद्र के रुप में कन्नौज का महत्व समाप्त हो गया लेकिन मुग़ल और अंग्रेज़ों के शासनकाल में बतौर व्यापारिक केंद्र इसका महत्व बना रहा। समय के साथ कन्नौज इत्र की वजह से प्रसिद्ध हो गया जो आज भी यहां बनाया जाता है।

कन्नौज में पारंपरिक रुप से दो तरह के इत्र बनाये जाते हैं- फूलों पर आधारित और जड़ी बूटियो पर आधारित। फूलों से बनने वाले इत्र में गुलाब, चमेली, ख़स, ऊध और रात की रानी का इस्तेमाल होता है जबकि जड़ी-बूटी से बनने वाले इत्र में दालचीनी, कर्पूर(काफ़ूर), अदरक, चंदन और केसर का प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा कई तरह के पौधों, जीव और खनिजों का भी इस्तेमाल कस्तूरी तथा अन्य ख़ुशबू बनाने के लिए किया जाता है। दिलचस्प बात यह है कि परफ़्यूम बनाने के आधुनिक तौर तरीक़ों के साथ ही , पारंपरिक प्रणाली अभी भी यहां प्रचलित हैं।

कन्नौज में फूलों और अन्य चीज़ों से सुंगंध निकालने के लिए पारंपरिक देग़-भपका तरीक़ा अपनाया जाता है। इस तरीक़े में जिस फूल या चीज़ से ख़ुशबू निकालनी होती है, उसे पानी से भरे कांसे के बड़े बर्तन में फैलाकर भाप दी जाती है और फिर इसे लकड़ी या कोयले की आग में ऱखकर इसका रस निकाला जाता है। इस प्रक्रिया से बनने वाली भाप को बांस के पाइप के ज़रिये चंदन के तेल के ऊपर छोड़ा जाता है जिससे तेल सुगंधित हो जाता है। चंदन के तेल को परफ्यूम के आधार के रुप में प्रयोग किया जाता है। इसके बाद इस रस को ऊंट की खाल से बनी बोतलों में रखा जाता है, इससे’ सारा अधिक पानी सूख जाता है | और पढ़ें

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