उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ को ऐतिहासिक स्मारकों की राजधानी भी कहा जा सकता है। लखनऊ को शौहरत दिलाने में अवध के नवाबों के बनवाए गये इन स्मारकों का बड़ा योगदान है। इनमें नवाब असफ़ुद्दौला ( सन 1775 से 1797 तक ) द्वारा बनवाए गया इमाम बाड़ा और रुमी दरवाज़े की ख़ास अहमियत है। लेकिन यह बहुत कम लोग जानते हैं कि उनके वित्त मंत्री टिकैत राय की वित्तीय समझ बूझ के बिना इन्हें बनवाना नवाब असफ़ुद्दौला के लिए संभव नहीं होता।
बदक़िस्मती से इतिहास में टिकैत राय को वो स्थान नहीं मिला जिसके वो हक़दार थे और आज ऐसे चंद ही स्मारक हैं जो उनकी याद दिलाते हैं। इन्हीं इस्मारकों में से एक है टिकैतगंज जो लखनऊ की मलीहाबाद तहसील में है। मलीहाबाद लखनऊ शहर से 19 कि.मी. दूर है जहां गोमती नदी की उप नदी बेहता के तट पर टिकैतगंज है।
टिकैतगंज का नाम नवाब असफ़ुद्दौला के शासनकाल में अवध के दीवान राजा टिकैत राय के नाम पर रखा गया था।
अवध के नवाब का सम्बंध निशापुर राजवंश से था और वह मुग़ल शहंशाओं के सूबेदार हुआ करते थे। 18वीं सदी में मुग़ल हुकुमत के पतन के बाद नवाब एक तरह से स्वतंत्र शासक बन गए थे। नवाब शिया थे । उनकी सेना, वित्त विभाग और प्रशासन में हिंदू ऊंचे ओहदों पर नियुक्त थे। ज़्यादातर नियुक्तियां योग्यता और क़ाबिलियत के आधार पर की गईं थीं।
ऐतिहासिक दस्तावेज़ों से पता चलता है कि राजा टिकैत राय का जन्म उत्तर प्रदेश के रायबरेली ज़िले के डालमऊ शहर में, एक मध्य वर्गीय कायस्थ ( सक्सेना ) परिवार में हुआ था। नवाब सफ़दर जंग ( सन 1708 से 1754 तक) के शासनकाल में सैनिक अधिकारी हैदर बेग ख़ान ने टिकैत को क्लर्क की नौकरी दी थी। मुग़ल शासन काल में कायस्थ समुदाय के ज़्यादातर लोग बहीखाते यानी हिसाब- किताब का काम देखा करते थे और कुछ तो बड़े पदों तक भी पहुंचे थे। लखनऊ गज़ेटियर के अनुसार नवाबी दौर में कई कायस्थों को ऊंचे ओहदे मिले और सोलह कायस्थों को राजा के ख़िताबों से नवाज़ा गया जबकि कई अन्य को कुंवर, मोहसिनुल्मुल्क और राय जैसी उपाधियां दी गईं।
बाद में टिकैत राय शस्त्रागार के दीवान बन गए। टिकैत की पद्दोन्नति बहुत तेज़ी से हुई। वह राजस्व मंत्री के सहायक बने और जून 1792 में राजस्व मंत्री के निधन के बाद उन्हें इस विभाग की ज़िम्मेदारी सौंप दी गई।
राजा टिकैत राय ने मंत्रीपद संभालने के बाद अवध के वित्तीय मामलों को ठीक करने की कोशिश की जो आसान काम नहीं था। ये वो समय था जब ईस्ट इंडिया कंपनी किसी न किसी बहाने अवध के नवाबों से पैसे वसूलती रहती थी और नवाबों के पास उनकी मांग पूरी करने के सिवाय कोई और चारा नहीं होता था।
अंग्रेज़, राजा टिकैत राय पर भुगतान के लिए दबाव डाल रहे थे। एक बार वह अवध प्रशासन में सुधार और ईस्ट इंडिया कम्पनी की कर्ज़ अदायगी पर चर्चा के लिए कलकत्ता भी गए थे। तब वह बतौर सहायक हसन रज़ा के साथ गए थे जो असफ़ुद्दौला के शासन काल में एक प्रभावशाली दरबारी हुआ करते थे। अगले चंद सालों में असफ़ुद्दौला पर कर्ज़ और ज़्यादा बढ़ गया और टिकैत बतौर मंत्री अंग्रेज़ों की पैसों की मांग भी पूरी नहीं कर सके। इसे लेकर नवाब और टिकैत राय में मतभेद हो गए।
इस दौरान कायस्थ समुदाय के ही राजा झाव लाल ने टिकैत राय के ख़िलाफ़ नवाब के कान ख़ूब भरे। उनके ख़िलाफ़ वित्तीय गड़बड़ियों और निजी संपत्तियों के लिए पैसों के ग़बन के आरोप लगे। उन पर यह भी आरोप था कि वह वित्त विभाग में अपने क़रीबी रिश्तेदारों को रख रहे हैं और साहूकारों की मदद से सरकारी ख़ज़ाने से धन की हेराफेरी कर रहे हैं।भारी ब्याज़ दर की वजह से, उनको और उनके रिश्तेदारों की मोटी कमाई हो रही है। झाव लाल ने नवाब को विश्वास दिला दिया कि वित्त मंत्री टिकैत राय ने सरकारी ख़ज़ाना लूटकर अपने लिए सोने की ईंटों के महल बनवा लिये हैं।
लेकिन हसम रज़ा और राजा टिकैत राय ने ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी जॉर्ज फ्रेड्रिक्स चेरी की मदद से असफ़ुद्दौला के दरबार में झाव लाल का प्रभाव कम करने की कोशिश की और चेरी की कोशिशों की वजह से मई 1796 में उनकी बहाली तो हो गई लेकिन उनके अधिकार कम हो गए। बहरहाल, अवध के दरबार में ग़ुटबाज़ी की सियासत में झाव लाल ने बाज़ी मार ही ली । जून 1796 में राजा टिकैत और हसन रज़ा को बरख़ास्त कर दिया गया।
वित्त मंत्री और अवध के वज़ीर के रुप में राजा टिकैत राय के चार साल के कार्यकाल में बाज़ार, स्मारक, कॉलोनी और पुल बने जिसे शानदार धरोहर कहा जा सकता है। इन चार वर्षों के दौरान राजा टिकैत राय द्वारा बनवाए गए स्मारकों, पुलों और अन्य भवनों का उल्लेख इतिहास में मिलता है। इनमें लखनऊ का ‘राजा बाज़ार’ और बिठूर में गंगा तट पर ‘ब्रह्मा घाट’ राजा टिकैत राय के मशहूर कामों में शामिल हैं। उन्होंने लखनऊ में जनता के लिए एक जलाशय भी बनवाया था जिसे ‘टिकैत राय का तालाब’ कहा जाता था। लेकिन शहरी अतिक्रमण की वजह से वह तालाब के कुछ अवशेष बाकी रह गए थे जिसको नगर निगम ने सुंदरीकरण करने की कोशिश की है |
आज बस टिकैतगंज गांव के स्मारक ही बचे हैं। यहां राजा टिकैत राय द्वारा निर्मित एक पुल, एक शिव मंदिर और एक मस्जिद है। मंदिर और पुल छोटी ईंटों से बनवाए गए हैं। इन्हें मज़बूती देने के लिए पारंपरिक चूने के गारे का इस्तेमाल किया गया था। इन्हें और मज़बूती देने के लिए लाल ईंट के चूरे, सफ़ेद उड़द की दाल, तंबाख़ू के रस और गुड़ जैसी खाने की चीज़ों का भी इस्तेमाल किया गया था क्योंकि इन चीज़ों में चिपकाने के गुण होते हैं।
पुल उन कुछ स्मारकों में से है जिन्हें 18वीं शताब्दी के अवध के दिनों से ही मूल रुप में संजो कर रखा गया है। ये पुल खंबो और पांच नुकीली मेहराबों के सहारे खड़ा है। गारे से पलस्तर की गई सतह पर ख़ूबसूरत ढ़लाई की गई है। पुल के अंतिम छोर पर अष्टकोन वाली तिमंज़िला दो सुंदर मीनारें हैं। मीनार की पहली सतह पर सफ़ेद संगमरमर की पट्टी लगी हुई हैं जिस पर फ़ारसी भाषा में पुल का विवरण लिखा हुआ है।
मंदिर से निकलती सीढ़ियां बहती नदी के तट पर स्थित छोटे घाट की तरफ़ जाती हैं। गांव में एक चबूतरे पर खड़ी मस्जिद छोटी ईंटों और चूने के गारे से बनी हुई है। मस्जिद में नमाज़ पढ़ने के ख़ास सभागार की छत पर तीन बल्बनुमा गुंबद बनें हुए हैं।
मलिहाबाद के एक बुज़ुर्ग मस्जिद के निर्माण के बारे में एक दिलचस्प क़िस्सा सुनाते हैं। एक बार नवाब असफ़ुद्दौला ने मंत्री से कहा कि वह बहता नदी पर बना पुल और तट पर बना मंदिर देखना चाहते हैं। नवाब असफ़ुद्दौला की बात सुनकर राजा टिकैत राय ने आनन फ़ानन में वहां एक मस्जिद भी बनवाई दी । गांव की ये मध्यकालीन मस्जिद शाही इमाम मस्जिद के नाम से जानी जाती है।
नौकरी से निकाले जाने और इतिहास की किताबों से ग़ायब होने के बाद राजा टिकैत राय का क्या हुआ, इस बारे में किसी को कोई ख़ास जानकारी नहीं है लेकिन इतना जानते हैं कि उनके गुरु हसन रज़ा की मौत मुफ़लिसी में हुई थी। अवध के किसी भी कायस्थ ज़मींदार का टिकैत से कोई संबंध नज़र नहीं आता। इससे तो यही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि राजा टिकैत राय भी ग़रीबी और तन्हाई का शिकार हो गए।
आज टिकैतगंज और वहां मौजूद मंदिर-मस्जिद ही इस बात की गवाह हैं कि नवाब असफ़ुद्दौला के दौर में राजा टिकैत का सितारा ख़ूब चमका और उन्हीं के दौर में अंधेरों में डूब भी गया ।
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