भारत और तिब्बत के बीच हज़ारों साल से गहरे संबंध रहे हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं, कि भारतीय सेना की एक विशिष्ट पैराट्रूप यूनिट ‘स्पेशल फ्रंटियर फ़ोर्स’ (एस एफ़ एफ़) है, जिसमें सिर्फ़ तिब्बती सैनिक शामिल हैं? इस ख़ास ‘फ़ैंटम फोर्स’ ने न केवल सन 1971 के बांग्लादेश मुक्ति युद्ध में बल्कि हाल ही में सन 2020 में गलवान घाटी में हुए भारत-चीन संघर्ष में भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। दशकों तक इस तिब्बती सैनिक यूनिट के योगदान को गुप्त रखा गया था, लेकिन अब कहीं जाकर हम उनकी बहादुरी और वीरता के बारे में पूरी तरह जान पाये हैं।
दरअसल, ‘स्पेशल फ्रंटियर फ़ोर्स’ (एसएफ़एफ़) में तिब्बती शरणार्थी शामिल थे, जिसका गठन ,दूसरे विश्व युद्ध में हिस्सा लेने वाले पूर्व पायलट और ओडिशा के तत्कालीन मुख्य मंत्री बीजू पटनायक, गुप्तचर ब्यूरो के निदेशक बी.एन. मलिक, अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए और भारतीय सेना के दिमाग़ की उपज थी।
प्रारम्भ
भारत और तिब्बत के बीच सदियों से व्यापार, वाणिज्य और कला के क्षेत्र में गहरे संबंध रहे थे लेकिन सन1950 के दशक में तिब्बत पर चीनी के क़ब्ज़े के बाद के इन संबंधों में नाटकीय परिवर्तन आया। सन 1950 के दशक में जब ‘शीतयुद्ध’ अपने चरम पर था, भारत और अमेरिका दोनों ही साम्यवादी चीन की बढ़ती ताक़त से सतर्क हो गये थे। तिब्बत में चीन के बढ़ते प्रभाव का मुक़ाबला करने के लिए सीआईए (अमेरिकी केंद्रीय गुप्तचर एजेंसी) ने भारत सरकार की मदद से सन 1957 में नेपाल के पास मुस्तांग में एक शिविर की स्थापना की ।यहां अमेरिकियों ने 5000 तिब्बतियों की एक सेना बनाई, जो शुरु- शुरु में सीआईए की सुदूर पूर्व डिवीज़न के लिये जासूसी करती थी और छापामार युद्ध करती थी।
थोड़ा बहुत शुरुआती सफ़लता के बाद ये मिशन लंबे समय तक टिक नहीं सका, क्योंकि चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने सन 1959 में तिब्बतियों के ख़िलाफ़ बड़ी कार्रवाई की, जिसकी वजह से दलाई लामा, उनके अनुयायियों और छापामारों को भारत के अरुणाचल प्रदेश में तवांग तथा बोमडिला और उत्तरी असम के तेज़पुर जैसी जगहों में आकर बसना पड़ा। तिब्बती धीरे-धीरे नये देश के क़ानूनों और जीवन शैली में ढलने लगे ही थे, कि तभी हिमालय क्षेत्र की स्थिति बदल गई, जब सन 1962 में भारत और चीन के बीच युद्ध छिड़ गया। तेज़ी-से आगे बढ़ती चीनी सेना की वजह से तिब्बती सेना को उससे दूर असम में डिब्रूगढ़ और गुवाहाटी भेजना पड़ा।
सन 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान चीन ने दो चरणों में हमले किये- पहला हमला 20 और 24 अक्टूबर के बीच और दूसरा हमला 14 और 22 नवंबर के बीच। ये हमले उसने अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख़ के मोर्चों पर किये थे, जहां आधुनिक हथियारों और प्रशिक्षण के अभाव में भारत को हार का मुंह देखना पड़ा। लेकिन कुछ तिब्बती छापामारों द्वारा दी गई गुप्त सूचनाएं की वजह से पूर्वी सेक्टर (अरुणाचल प्रदेश) में कम नुक़सान हुआ और भारत सरकार का तिब्बती छापामारों की इस मदद की तरफ़ ध्यान गया। .
केनैथ कोनबॉय और जैम्स मॉरिसन की किताब द सीआईए’ज़ सीक्रेट वॉर इन तिब्बत (2000) के अनुसार सन 1962 युद्ध का पहला चरण जब समाप्त हुआ, तब बीजू पटनायक और बी.एन. मलिक ने नेहरु को तिब्बती शरणार्थियों की एक छापामार सैन्य टुकड़ी बनाने की सलाह दी। नतीजन तिब्बत में विद्रोह को हवा देने और चीनी सेना को युद्ध में उलझाए रखने के लिये 14 नवंबर 1962 (नेहरु का जन्मदिन) को सीआईए के प्रशिक्षित जाबांज़ों से ही एक छोटी सी टुकड़ी बनाई गई।
मेजर जनरल सुजान सिंह उबान को इस टुकड़ी का इंस्पेक्टर जनरल बनाया गया। इसे “इंस्टेबलिशमेंट 22” अथवा “टू-टू” के नाम से जाना जाता था। ये नाम 22 माउंटेन ब्रिगेड के नाम पर रखा गया था, जिसकी कमान उबान के हाथों हुआ करती थी। इस टुकड़ी को दलाई लामा के बड़े भाई ग्यालो थोंदप का भी समर्थन प्राप्त था, जो उस समय कलकत्ता में रह रहे थे।
उन्होंने भारत के विभिन्न हिस्सों में रह रहे तिब्बती शरणार्थियों को इस सैन्य टुकड़ी में भर्ती करने में मदद की। दलाई लामा ने शुरु में तो स्पेशल फ्रंटियर फ़ोर्स से दूरी बनाई रखी, लेकिन इसके गठन के कुछ महीने बाद जब नेहरु, बीजू और ग्यालो ने उनसे इन सैनिकों को ख़ामोश समर्थन देने के लिये राज़ी कर लिया, तब वह सैनिकों से मिले।
नये रंगरुटों को ट्रैनिंग देने के लिये ट्रैन से चकराता ले जा या गया । चकराता, मौजूदा समय में उत्तराखंड के देहरादून से क़रीब 130 कि.मी. दूर है । वहां का मौसम प्रशिक्षण के लिये एकदम मुनासिब था। कुछ को सीआईए के तहत प्रशिक्षण के लिए सुदूर अमेरिकी क्षेत्रों में भी ले जाया गया। लेकिन भारत-चीन युद्ध, जिसका दूसरा चरण 14 नवंबर, सन 1962 को शुरू हुआ था, लेकिन शांति के लिए अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण चीन के साथ सैन्य संघर्ष, 22 नवम्बर सन 1962 को अचानक रुक गया। इसके बाद चीन के साथ कोई सैनिक संघर्ष नहीं हुआ ।
आगे का विकास
सन 1963 में तिब्बतियों को चकराता (उत्तराखंड) और चारबटिया (ओडिशा) में युद्ध में प्रशिक्षित किया जाने लगा, जहां बीजू पटनायक ने ट्रैनिंग केंद्र बनवाये थे। उन्हें आठ बटालियनों, छह कंपनियों में बांट दिया गया। इन बटालियनों और कंपनियों के पद ग़ैर सैनिक होते थे। दूसरी तरफ़ सीआईए का हथियार और ट्रैनिंग के साथ समर्थन भी जारीरहा।
लेखक अनिल धीर अपनें लेख, बीजू पटनायक एंड हिज़ टिब्बटन फैंटम्स (2018) में लिखते हैं, कि उस समय ख़ुफ़िया जानकारी इकट्ठा करने और चीनी गतिविधियों पर नज़र रखने के लिये एसएफ़एफ़ को भारत-तिब्बत सीमा पर तैनात किया गया था। सन 1965 में, एसएफ़एफ़ को पहली सफलता तब मिली थी, जब उसने चीन के परमाणु हथियारों के परिक्षणों की निगरानी के लिए नंदा देवी पर्वत पर एक परमाणु-संचालित उपकरण लगाने के सीआईए के अभियान में भाग लिया था। सन 1960 के अंतिम दशकों में भारत और अमेरिका के बिगड़ते संबंधों की वजह से सीआईए मस्टंग आपरेशन से अलग हो गई।
21सितंबर, सन 1968 को अनुसंधान और विश्लेषण विंग (आर एंड डब्ल्यू) बनाया गया था, और इस्टेबलिशमेंट 22 इसका हिस्सा बन गया। विंग का प्रमुख, आर.एन. काऊ को बनाया गया। आर एंड डब्ल्यू (रॉ) के गठन का मक़सद सैनिकों को उच्च प्रशिक्षण देना था और प्रशिक्षण में ख़ास ज़ोर, छाताधारी सैनिकों, तोड़फोड़ की कारवाही और ख़ुफिया जानकारी एकत्र करने की ट्रेनिंग पर दिया गया था।
बांग्लादेश युद्ध
स्पेशल फ़्रंटियर फ़ोर्स भारतीय सैन्य व्यवस्था में मज़बूत होने लगी थी। भारतीय सेना को हाल ही में सन 1965 भारत-पाक युद्ध में सफलता मिली थी। इस बीच पूर्वी पाकिस्तान (मौजूदा समय में बांग्लादेश) में स्थित बिगड़ने रही थी। अवामी लीग के मशहूर बंगाली नेता शेख़ मुजीबउर्रहमान ने दिसंबर सन 1970 चुनाव में पूर्वी पाकिस्तान में ज़बरदस्त जीत हासिल की थी, जो पश्चिमी पाकिस्तान के उनके समकालीन नेता बिल्कुल नहीं चाहते थे। चुनाव के बाद उन्हें गिरफ़्तार कर पश्चिम पाकिस्तान में कैद कर दिया गया।
गृहयुद्ध की आशंका से पाकिस्तानी सेना ने 25 मार्च, सन 1971 को “ऑपरेशन सर्चलाइट” के ज़रिये बंगाली जनता का दमन शुरु कर दिया। इससे बचने के लिये लाखों बंगाली शरणार्थी भागकर भारत आ गए। भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बंगालियों के लिये फ़ौरन ज़बरदस्त अंतरराष्ट्रीय समर्थन हासिल किया और दिल्ली में एक विशेष गुप्त बैठक की। इस बैठक में एक स्ट्राइक फ़ोर्स के गठन की ज़रूरत महसूस की गई। क्योंकि भारतीय सेना तो वहां बरसात के मौसम के बाद ही वहां पहुंच सकती थी। धर्मशाला में मौजूद केंद्रीय तिब्बती प्रशासन से मंज़ूरी लेने के बाद जनरल उबान ने आगे आकर अपनी सेवांएं दीं और स्पेशल फ़्रंटियर फ़ोर्स (एसएफ़एफ़) का नेतृत्व संभाला, जिसमें युवा बंगालियों को भी अपनी आज़ादी के लिये लड़ाई लड़ने की ट्रैनिंग दी गई।
जुलाई सन 1971 में, जब बंगाली राष्ट्रवादी आंदोलन ज़ोर पकड़ रहा था, तब110 तिब्बती छापामारों के पहले जत्थे ने पूर्वी पाकिस्तान में घुसपैठ की और चाय बागानों, परिवहन मार्गों और ढ़ाका, को मिलाता था, चटगांव के बीच संचार व्यवस्था नष्ट कर दी। फिर सीमा पर कुछ छुट-पुट झड़पों के बाद वे वापस आ गये। इस ऑपरेशन के दौरान यह देखा गया, कि चिटगांव पहाड़ी इलाक़ों में स्थित कई उत्तर-पूर्वी अलगाववादी,पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकों की मदद कर रहे थे। ऐसे में छापामार युद्ध के ज़रिये उनसे निपटने के लिए एसएफ़एफ़ को एक बेहतर विकल्प माना गया।
अक्टूबर, सन 1971 के तीसरे सप्ताह के आसपास पाकिस्तानी सैन्य गतिविधियों को रोकने के लिए एक गुप्त सशस्त्र अभियान “ऑपरेशन माउंटेन ईगल” चुपचाप शुरू किया गया, ताकि भारतीय सेना को आगे बढ़ने में कोई दिक़्कत न हो। तिब्बत में गहन रुप से काम कर चुके सीआईए के पूर्व अधिकारी जॉन केनेथ नाऊस अपनी किताब ऑरफ़ेन्स ऑफ़ द कोल्ड वॉर: अमेरिका एंड द टिब्बटन स्ट्रगल फ़ॉर सरवाइवल (1999) में लिखते हैं, कि बांग्लादेश की स्वतंत्रता के लिए लड़ रही मुक्ति बाहिनी की सहायता के लिये चटगांव के पहाड़ी इलाक़ों में एसएसएफ के लगभग 3,000 जवान को भेजा गया था।
नवंबर, सन 1971 के दूसरे सप्ताह में एसएफ़एफ़ के जवानों को चकराता से मिज़ोरम के डेमागिरी भेजा गया, जहां वे शरणार्थियों के साथ घुल मिल गए। यहां से उन्होंने तीन टुकड़ियों में पूर्वी पाकिस्तानी सीमा के पार अपना छापामार अभियान शुरू किया। उन्होंने नदी पार करके पाकिस्तान की 97वीं इंडिपेंडेंट ब्रिगेड और उनके कमांडो के कब्ज़े वाली पाकिस्तानी चौकियों पर हमला किया और डेमागिरी वापस आ गए।
ट्रैनिंग के बाद, स्पेशल फ़्रंटियर फ़ोर्स के जवान मुक्ति बाहिनी के लोगों के साथ जुड़ गए और चटगांव में उन्होंने चौकियों, नगरों और सेना के गढ़ों पर कब्जा कर लिया तथा महत्वपूर्ण पुलों को जलाकर ध्वस्त कर दिया। पाकिस्तानी सेना अभी यहां अपने पैर जमा ही रही थी, लेकिन इन हमलों के बाद उसके पास हथियारों की कमी पड़ गई और वो भाग खड़ी हुई। इस विजय के बाद सेना ने भारतीय सेनाध्यक्ष को संदेश भिजवाया, कि दुश्मनों के लिये बर्मा भागना नामुमकिन है, और पाकिस्तान सेना के पास आत्मसमर्पण करने के सिवाय कोई औऱ चारा नहीं है।
आत्मसमर्पण के बाद चटगांव हमले में बचे पाकिस्तानी सैनिकों ने स्वीकार किया, कि उन्होंने ‘भूत’ (एसएफएफ के जवान) देखे, जो कहीं से भी अचानक आकर उनके लोगों को ख़त्म कर के और उनकी चौकियों को नष्ट करके, फिर अपने अगले हमले के लिए ग़ायब हो जाते थे। इसकी वजह से उन्हें “चटगांव के प्रेत” कहा जाने लगा। एक महीने के भीतर उन्होंने चटगांव पहाड़ी इलाक़ों को लगभग साफ़ कर दिया। लेकिन जब वे इसके बंदरगाह के पास पहुँचे, तब उन्हें उबान ने रोक दिया, क्योंकि बंदरगाह पर क़ब्ज़ा करने के लिये उन के पास ज़रुरी हथियार नहीं थे। आख़िरकार चार दिसंबर को भारतीय वायु सेना ने इस पर बमबारी की और कोई ख़ास प्रतिरोध भी नहीं हुआ।
16 दिसंबर सन 1971 को ढका में पाकिस्तानी सेना के आत्मसर्मरण के बाद ही स्पेशल फ़ंटियर फ़ोर्स ने जिस तरह से विजय का जश्न मनाया, उससे स्थानीय और भारतीय सैनिक हैरान रह गये। उन्हें पता ही नहीं था, कि ये लोग आसपास के इलाक़ो में मौजूद थे। लेकिन जल्द ही जनरल उबान ने उन्हें वापस बुला लिया।इस मुहीम में एसएफएफ के लगभग 50 जवान शहीद हुए और 190 घायल हुये थे। भारत सरकार ने मुक्ति बाहिनी की आड़ में लड़ने के लिये एसएफएफ के 580 सदस्यों को नक़द पुरस्कार दिया।
एसएफ़एफ़ ने कई मौक़ों पर अपने मेज़बान देश के लिए लड़ाई लड़ी है। ये पिछले साल तब सुर्खियों में आई जब उसे भारतीय सेना के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा पर गलवान सेक्टर में तैनात किया गया। सन 2009 के अंत में ही केंद्र सरकार ने एसएफ़एफ़ के जवानों को भी भारतीय सैनिकों की तरह वेतन, भत्ते और पेंशन देने की मंज़ूरी दे दी। स्पेशल फ़्रंटियर फ़ोर्स को अब “विकास बटालियन”के रूप में जाना जाता है।
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