चाणक्य ने यहां पढ़ाया था, यूनानी योद्धा अलेक्जेंडर और सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य यहां रहते थे और इससे पहले कि वह पाटलिपुत्र में मौर्य साम्राज्य की बागडोर संभाले, अशोक यहां वायसराय थे। ढ़ाई हज़ार साल पहले मौजूदा, आज पाकिस्तान में इस्लामाबाद से 35 कि.मी. दूर, तक्षशिला एक प्रमुख नगर और शिक्षा का एक केंद्र हुआ करता था।
तक्षशिला की कहानी को समझने के लिए इसके भूगोल को समझना होगा। तक्षशिला व्यापारिक मार्ग ग्रैंड ट्रंक रोड (उत्तरपथ) पर स्थित था। ये मार्ग भारतीय उप-महाद्वीप को मध्य और पश्चिम एशिया से जोड़ता था। अपनी भौगोलिक स्थिति की वजह से तक्षशिला पूर्व-पश्चिम व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का केंद्र बन गया था। इन वजहों से तक्षशिला न सिर्फ़ शिक्षा का केंद्र था बल्कि यहां से सदियों तक ज्ञान की गंगा भी बहती रही। तक्षशिला गंधार की राजधानी भी हुआ करता था। गंधार छठी सदी ई.पू. में सोलह महाजनपदों में से एक था। सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के बाद ये महाजनपद पहले नगर बने थे जो न सिर्फ़ बड़े थे बल्कि समृद्ध भी थे।
इस भू-भाग में एक पर्वत श्रंखला फैली हुई थी जो पश्चिम दिशा में जाकर ख़त्म होती थी जिसे हाथियाल कहा जाता है। हाथियाल घाटी में तीन प्राचीन शहर- भीर, सिरकप और सिरसुख के अवशेष हैं जो एक दूसरे से 5-6 कि.मी की दूरी पर हैं। इन चार स्थानों से पता चलता है कि कैसे पांच सदियों से भी ज़्यादा समय में भारतीय उप-महाद्वीप में शहरों का विकास हुआ होगा। हाथियाल में तक्षशिला के बसने की प्रक्रिया शुरु हुई थी। यहां से मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े मिले थे जो 3000 ई.पू. से 500 ई.पू. के समय के हैं। भीर तक्षशिला का आरंभिक क़िलेबंद शहर था जिसकी स्थापना लगभग छठी शताब्दी में हुई थी। सिरकप की स्थापना ग्रीको-बैक्ट्रियन राजाओं ने दूसरी शताब्दी में की थी और कुषाण राजवंश ने प्रथम शताब्दी में सिरसुख को बसाया था।
इन तीन शहरों के अवशेष और यहां मिली कलाकृतियों तथा साहित्यिक उल्लेखों से हमें तक्षशिला के इतिहास को समझने में मदद मिलती है।
तक्षशिला का इतिहास
तक्षशिला का मूल नाम तक्कासिला था| लेकिन यूनानी लेखक इसे तक्षशिला कहने लगे और इस तरह ये इसका नाम पड़ गया। चौथी सदी ई.पू. में एलेक्ज़ेंडर के समय से ही यूरोप के लोग इसे तक्षशिला नाम से जानने लगे थे।
महाभारत में राजा जमनेजय द्वारा नागों के वध के संबंध में तक्षशिला का उल्लेख मिलता है। रामायण के अनुसार शहर की स्थापना राम के छोटे भाई भरत ने की थी और शहर का नाम भरत के पुत्र तक्ष के नाम पर रखा गया था जो तक्षशिला का पहला शासक था। सामरिक भौगोलिक स्थिति की वजह से तक्षशिला पर सदियों तक कई राजाओं का शासन रहा जैसे फ़ारस (ईरानी), मौर्य, इंडो-ग्रीक, शक, पहलवी और कुषाण।
516 ई.पू. में एकेमेनिड साम्राज्य के ईरानी राजा डेरियस प्रथम ने मध्य एशिया को फ़तह करने के लिये अभियान शुरु किया। उसने गंधार को तो जीत लिया लेकिन उस समय के तक्षशिला के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती सिवाय इसके कि वह एक पूर्ण विकसित शहर था जहां व्यापार होता था।
तक्षशिला का इतिहास 327 ई.पू. में मैसेडोनिया (मकदूनिया) के एलेक्ज़ेंडर के शहर आने के बाद ही मिलता है। एलेक्ज़ेंडर बहुत महात्वाकांशी था जो सारी दुनिया को जीतना चाहता था। ईरान के शासक डेरियस-तृतीय को हराकर एलेक्ज़ेंडर भारतीय उप-महाद्वीप की तरफ़ रवाना हुआ। उस समय तक्षशिला का शासक अंभी हुआ करता था। उसने एलेक्ज़ेंडर की तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ाया और तोहफ़े में कई हाथी, बैल और भेड़ें दीं। बदले में एलेक्ज़ेंडर ने ईरानी कपड़े, सोने-चांदी के बर्तन और घोड़े दिए।
तक्षशिला में एलेक्ज़ेंडर कुछ हफ़्तों के लिये रुका और इस दौरान उसने पड़ोसी राजा पोरस पर हमले की तैयारी की। अभियान में एलेक्ज़ेंडर के साथ आए लोगों ने लिखा था कि तक्षशिला घनी आबादी वाला एक ऐसा समृद्ध प्रांत था जहां सुशासन था। उन्होंने ये भी लिखा कि तक्षशिला में बहुविवाह का चलन और सती प्रथा थी। लड़कियों को बाज़ार में बेच दिया जाता था क्योंकि उनकी शादी के लिये पैसे नहीं होते थे। मरने वालों को गिद्धों के खाने के लिए फेंक दिया जाता था।
303 ई.पू. में मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य का तक्षशिला पर शासन हो गया। बाद उसका पोता अशोक पहले वाइसराय और बाद में तक्षशिला का राजा बना। अशोक के शासनकाल में ही क्षेत्र में बौद्ध धर्म फैला। सन 232 ई.पू. में अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य राजवंश बिखरने लगा था और तक्षशिला आज़ाद होने लगा था। लेकिन तभी बैक्ट्रिया के इंडो-ग्रीक हमलावरों ने इस पर कब्ज़ाकर लिया।
इंडो-ग्रीक शासकों ने नदी के दूसरी तरफ़ नयी राजधानी सरकप बनाई। तक्षशिला में इंडो-ग्रीक राजा एंटिआलसिडस (120 ई.पू.) के राजदूत हेलियोडोरस ने बेसनगर (मध्य प्रदेश) में एक स्तंभ स्थापित कर ख़ुद को विष्णु का भक्त घोषित कर दिया था। इंडो-ग्रीक राजाओं ने तक्षशिला पर सौ साल से कुछ अधिक समय तक शासन किया। इनका तख़्ता पश्चिम से आए ख़ूंख़ार हमलावरों ने पलट दिया जिन्हें शक नाम से जाना जाता है। ये घटना संभवत: 80 ई.पू. की है।
20 ई. में तक्षशिला में शक राजवंश के बाद पहवली राजवंश का शासन हो गया। पहलवी राजवंश के संस्थापक गॉन्डोफ़र्नीज़ ईरान के शाही घराने से थे। उन्होंने तक्षशिला को अपने साम्राज्य की राजधानी बनाया। उनके शासनकाल में यहां कई पहलवी स्मारक बनवाए गए थे। तक्षशिला के पास जान्डियाल में इसी तरह के एक स्मारक ज़ोरोस्ट्रियन अग्नि मंदिर के अवशेष मिले हैं।
क़रीब 70 ई. में कुषाण साम्राज्य के संस्थापक कोजोला कादफ़ीस ने पहलवियों को हराकर तक्षशिला पर कब्ज़ा कर लिया। उसके पोते और महान कुषाण शासक कनिष्क ने बाद में तक्षशिला में सिरसुख की स्थापना की थी। चौथी शताब्दी में गुप्त साम्राज्य ने पूर्वी गंधार के क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर तक्षशिला में एक सैन्य चौकी की स्थापना की |
तक्षशिला पर शासन करने वाले हर राजवंश ने तक्षशिला में वास्तुशिल्प और कला पर अपनी पहचान छोड़ी। तक्षशिला को आज गंधार स्कूल ऑफ़ आर्ट के नाम से जाना जाता है। तक्षशिला में एक समय स्तूप, मठ, महल, घर और बाज़ार हुआ करते थे। तक्षशिला व्यापार के लिये भी मशहूर था। यहां से रेशम, चंदन, घोड़ों, कपास, चांदी के बर्तनों, मोतियों और मसालों का कारोबार होता था। मगध और गंधार के बीच सामान का लगातार आदान-प्रदान होता था जिस पर चुंगी भी नहीं लगती थी। तक्षशिला प्रांतीय केंद्र के अलावा शिक्षा के केंद्र के रुप में भी विकसित हुआ था।
तक्षशिला विश्वविद्यालय
ये तथ्य जग ज़ाहिर है कि प्राचीन समय में तक्षशिला में एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय होता था। बौद्ध जातक कथाओं में इसे शिक्षा का प्रमुख केंद्र बताया गया है। कुछ दस्तावोज़ों में तो इसे विश्व का पहला विश्वविद्यालय कहा गया है। लेकिन कुछ लोग इसे आधुनिक संदर्भ में विश्वविद्यालय नहीं मानते हैं। वे इसे गुरुकुल मानते हैं। इनका ऐसा मानने का आधार ये है कि तब वहां रह रहे शिक्षकों के पास किसी कॉलेज विशेष की अधिकृत सदस्यता नहीं होगी। इसके अलावा लगता है कि वहां कक्षा लगाने के लिए सभागर, रिहायशी मकान और पुस्तकालय भवन भी नहीं रहे होंगे जो कि बाद में पूर्वी भारत में बने नालंदा विश्वविद्यालय के समय थे।
तक्षशिला में औपचारिक विश्वविद्यालय रहा हो या न रहा हो लेकिन वहां से कई विद्वान निकले थे। यहां एशिया से छात्र और शिक्षक आते थे। यहां बनारस, राजगृह, मिथिला और उज्जैन जैसे शहरों से छात्र पढ़ाई के लिये आते थे। इस विश्वविद्यालय से पाणिनि ( व्याकरण के जानकार जिन्होंने संस्कृत के नियम बनाये थे), चाणक्य (मौर्य के सलाहकारऔर अर्थशास्त्र के लेखक) और चरक (आयुर्वेद के जनक और चरक संहिता के लेखक) जैसी हस्तिया का संबंध रहा है।
कोसाला के राजा और बुद्ध के समकालीन प्रसन्नजीत; और राजगृगह के दरबारी डॉक्टर जीवक ने भी यहां शिक्षा ग्रहण की थी। साम्राज्यों के उत्तराधिकारी भी बौद्ध भिशुओं के साथ शिक्षा लेते थे। जिस जगह वे शिक्षा लेते थे उसका उल्लेख जातक कथाओं में मिलता है।
यहां छात्र प्राचीन और श्रद्धेय धर्म ग्रंथों तथा 18 कलाओं की शिक्षा लेते थे। कलाओं में वे तीरंदाज़ी, शिकारऔर गज विधा सीखते थे। इसके अलावा तक्षशिला में क़ानून, चिकित्सा और सैन्य विज्ञान के भी कॉलेज होते थे।
5वीं ईस्वी में यहां चीनी बौद्ध भिक्षु फ़ाहियान आया था। उसने तक्षशिला को बहुत सारे मठ वाला गहमा गहमी भरा शहर बताया था लेकिन 7वीं ईस्वी में जब एक अन्य चीनी बौद्ध भिक्षु श्यानज़ांग यहां आया तो उसने शहर को वीरान और मलबे के रुप में देखा। इन दोनों चीनी भिक्षुओं के आगमन के बीच मध्य एशिया की ख़ानाबदोश जनजाति हून ने गंधार और पंजाब पर हमला बोल दिया। उन्होंने तलवार और आग के दम पर तक्षशिला को तहस नहस कर दिया। उन्होंने इतनी बरबादी की कि शहर फिर इससे उबर नहीं सका। वो शहर जिसकी समृद्धी और अवसरों की वजह हज़ारों लोग आते थे, पूरी तरह महत्वहीन हो चुका था।
तक्षशिला में खुदाई
19वीं शताब्दी के मध्य में मशहूर पुरातत्वविद एलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने खुदाई में तक्षशिला में अवेशेष खोज निकाले थे। यहां सबसे पहले खुदाई जॉन मार्शल ने करवाई थी जो यहां सन 1913 के बाद 22 साल से ज़्यादा समय तक रहे थे। खुदाई में शहर के कई पहलू उजागर हुए थे। तक्षशिला में खुदाई की रिपोर्ट का बेसब्री से इंतज़ार हो रहा था क्योंकि उस समय भारतीय उप-महाद्वीप में कहीं भी एक ही क्षेत्र में इतने बड़े पैमाने पर खुदाई नहीं हुई थी। खुदाई में शहर की प्लानिंग, निर्माण का तरीक़ा, कच्चा माल,स्थानीय वितरण और मंदिर तथा लोगों के बीच संबंधों का बहुत महत्व था। इन तमाम चीज़ों से 800-525 ई.पू. के दौरान भारतीय उप-महाद्वीप में शहरीकरण के साक्ष्य मिले हैं।
भीर टीलों के नीचे हज़ारों चिन्हित सिक्के मिले थे जो प्राचीन भारत की पहली मुद्रा थी। सिक्कों का ये पहला संदर्भ माना जाता है। विश्वास किया जाता है कि सिक्का ढ़लाई का काम यहां से दक्षिण में भी पहुंच गया और पूर्वी तथा मध्य भारत के अन्य महाजनपदों में इस तरह के चिन्हित-सिक्के बनने लगे। सिरकप में मिले जालीनुमा ढांचें अमूमन यूनानी शहरों की, वास्तुकला की विशेषता होती थी।यहां कई यूनानी कलाकृतियां भी मिलीं थीं, ख़ासकर ग्रीको-बैक्ट्रियन राजाओं के समय के सिक्के और पत्थर की तख़्तियां जिन पर यूनानी पौराणिक कथाओं का चित्रण था। सरसुख में सुरक्षा के लिये दीवारों पर बहुत कम दूरी पर वृताकार दुर्ग हैं। इन दुर्गों में छेद हैं जहां से तीरंदाज़ दुश्मनों पर निशाना साधते थे।
तक्षशिला में तीन शहरों के मलबों के अलावा और भी कई स्मारक हैं। इनमें धर्माजिका, कुणाल और भल्लर स्तूप, जौलियन और मोहरा मोराडु मठ और जनडाइल तथा पीपल मंदर शामिल हैं। इन जगहों पर हज़ारों कलाकृतियां मिली थीं। दिलचस्प बात ये है कि मार्शल ने अपनी रिपोर्ट में यहां 500 चैत्य गृहों का भी उल्लेख किया है जहां जैन समुदाय के लोग रहते थे।
धर्माराजिका स्तूप एक वृताकार ढांचा है जिसके आसपास छोटे पूजा स्थल हैं। एक पूजा स्थल से खरोष्ठी लिपी में चांदी का एक अभिलेख और बक्सा मिला था जिसमें बुद्ध के कुछ अवशेष थे। अभिलेख बताते हैं कि ये अवशेष नोएचा नाम के नगर निवासी उरसका नाम की एक बेक्ट्रियन ने 136 ईसा पूर्व में ख़ास मक़सद से बनवाए थे जिसमें महान राजा, सम्राटों के सम्राट, ईश्वर पुत्र कुषाण राजा के स्वास्थ्य की मंगलकामना की गई थी (शायद ये राजा विमा कडफ़िसेस था जो कुषाण विजेता कुजाला का बेटा था)।यहां पर बुध बोधिसत्व की बहुत सारी मूर्तियां भी मिलीं हैं।
यूनेस्को ने सन 1980 में तक्षशिला को अपनी विश्व धरोहर सूची में शामिल किया था और तब से पाकिस्तान में बड़ी संख्या में लोग इसे देखने आते हैं।
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