सेरामपुर: बंगाल की डेनिश बस्ती

सेरामपुर: बंगाल की डेनिश बस्ती

मध्यकाल के दौरान बड़े यूरोपीय राष्ट्रों ने पारंपरिक मसालों और वस्त्रों के व्यापार के लिए दुनिया के दूर-दराज़ के इलाक़ों में बड़े व्यापारिक साम्राज्य स्थापित किए थे। पुर्तगाल, फ़्रांस, हालैंड और इंग्लैंड जैसी कई शक्तियों ने भारत में बस्तियां बनाईं थीं। डेनमार्क ने भी  भारत में तमिलनाडु के ट्रांक्यूबार और पश्चिम बंगाल में सेरामपुर अथवा श्रीरामपुर में अपनी बस्तियां बनाईं थी . हालांकि डेनमार्क की गिनती दुनिया के बड़े व्यापारिक देशों में नहीं होती थी। ट्रांक्यूबार की कहानी तो पूरी दुनिया जानती है, लेकिन सेरामपुर के बारे में लोग कम ही जानते हैं।

उत्तरी कोलकता से 30 किलोमीटर दूर स्थित सेरामपुर बंगाल में किसी भी अन्य शहर की तरह एक साधारण-सा शहर है। कुछ सदियों पहले  इसे कई इतिहासकार और यात्री भारत का बेहतरीन ‘यूरोपीय शहर’  मानते थे और इस शहर में डेनमार्क के लोगों की एक बड़ी आबादी रहा करती थी।

सेरामपुर की एक गली | ब्रिटिश लाइब्रेरी

समुद्री व्यापार में ब्रिटिश, पुर्तगाली, डच और फ्रेंच लोगों की सफलता के बाद सन 1616 में  डेनमार्क ने एशिया के साथ व्यापार के लिए ‘डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी’ की स्थापना की। तब डेनमार्क के शासक राजा क्रिश्चियन- चतुर्थ हुआ करते थे। लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप में अपने व्यापारिक केंद्र स्थापित करने के डेनमार्क के प्रारंभिक अभियान या तो देर से शुरु हुए, शुरु ही नहीं हुए या फिर भारत के पूर्वी तट पर पुर्तगालियों के साथ लड़ाई के शिकार हो गए।

आख़िरकार सन 1620 में, डेनमार्क तंजावुर (तमिलनाडु) के नायक-शासकों के साथ बातचीत करने में सफल रहा, जिन्होंने उसे तरंगमबडी गांव दे दिया। नतीजे में उसने वहां वर्तमान में मौजूद डांसबोर्ग क़िला बनवाया। दुख की बात ये है, कि ट्रांक्यूबार में उनके कुछ जहाज़ और भवन समुद्री तूफ़ान में डूब गए, जिसकी वजह से डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी दिवालिया हो गई और सन 1650 आते-आते बंद हो गई।

लेकिन उन्नीस साल के बाद,  एक नई उम्मीद तब जागी जब एक नई डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी का गठन हुआ और नए जगहों में बस्तियां बनाई गईं। इस तरह कंपनी को बंगाल में अपनी क़िस्मत आज़माने का एक बार फिर मौक़ा मिला। बंगाल अपने कपड़ों, कच्चे कपास, रेशम, चीनी, नमक  शोरा (saltpeter) और अफ़ीम के लिए मशहूर था।

सेरामपुर का रेखांकित चित्र | ब्रिटिश लाइब्रेरी

डेनमार्क के लोगों के बंगाल में पहुंचने के पहले ही क़ासिमबाज़ार नदी (बाद में हुगली नदी) के पश्चिमी तट पर डच चिनसुराह में, पुर्तगाली बंदेल में और फ्रांसीसी चंदननगर में ख़ुद को स्थापित कर चुके थे। तत्कालीन मुग़ल सूबेदार की इजाज़त से  डेनमार्क ने सन 1698 में श्रीरामपुर में ख़ुद को स्थापित किया, जो पहले एक ग्रामीण इलाक़ा हुआ करता था, जिसे श्रीपुर या श्रीरामपुर के नाम से भी जाना जाता था। यहां धान के खेत होते थे और इसके आसपास छोटे गांव होते थे। लेकिन ग़ुलामों के व्यापार और समुद्री डकैतों जैसी ग़लत प्रथाओं की वजह से स्थानीय लोगों और मुग़ल सूबेदारों द्वारा विरोध के चलते  डेनमार्क के लोगों  ने सन 1714 में बस्ती छोड़ दी।

लेकिन लगभग चालीस साल के अंतराल के बाद सन 1755 में डेनिश एशियाटिक कंपनी के रूप में डेनमार्क की बंगाल वापसी हुई। तब तक बंगाल एक स्वतंत्र रियासत बन चुका था। अपने फ्रांसीसी सहयोगियों की मदद से उन्होंने एक नया व्यापारिक केंद्र स्थापित करने के लिए वहां के नवाब अलीवर्दी ख़ां के साथ बातचीत की। नवाब ने उन्हें 2.5 प्रतिशत शुल्क के भुगतान के बदले मुक्त व्यापारिक अधिकारों के साथ बसने का अधिकार दे दिया।

डेनिश द्वार, सेरामपुर, ब्रिटिश लाइब्रेरी

हालांकि बोलचाल की भाषा में इस इलाक़े को सेरामपुर कहा जाता था, लेकिन डेनिश लोगों ने अपने शासक फ़्रेडरिक- पंचम के सम्मान में अपनी बस्ती का नाम फ़्रडरिक्सनागोर रखा। अपने शुरुआती दिनों में सेरामपुर को क़ासिमबाज़ार के साथ सबसे महत्वहीन यूरोपीय व्यापारिक केंद्र माना जाता था, लेकिन मिट्टी की बाड़ और घासफ़ूंस की छत के साथ एक कारख़ाने के रूप में जो व्यापारिक केंद्र शुरू हुआ था। वह धीरे-धीरे गवर्नर कर्नल ओले बीये (1776-1805) के नेतृत्व में एक सुनियोजित शहर के रुप में विकसित हो गया जो बाद में यानी सन 1777 में डेनिश राजशाही के अधीन आ गया।

सूती और रेशमी वस्त्रों, नमक शोरा और चीनी जैसी चीज़ों से भारतीय व्यापारियों, बिचौलियों और एजेंटों का उदय हुआ और एक बहु-सांस्कृतिक बस्ती का धीरे-धीरे शहरीकरण होता गया। नदी के किनारे, यूरोपीय लोगों ने और दौलतमंद भारतीय व्यापारियों ने  सुंदर हवेली, महलनुमा घर, बड़े-बड़े आंगनों वाले घर और मज़बूत खम्बों पर टिकी छत वाले भवन बनवाए। दिलचस्प बात यह थी, कि सेरामपुर में चंद डेनिश लोगों के साथ यूरोपीय लोग, जिनमें ब्रिटिश बस्तियों में सज़ा से बचने के लिए भागे अपराधी या भारतीय साहूकारों से छुपते फिर रहे दिवालिये व्यापारी भी रहा करते थे!

जैसे-जैसे शहर फलता-फूलता गया, सेरामपुर डेनिश राजशाही के सबसे बड़े शहरों में से एक बन गया, जिसे यहां आने वाले कई व्यापारी और यात्री भारत में सबसे सजा-संवरा यूरोपीय शहर मानते थे।

बिशप रेजिनाल्ड हेबर (1783-1826) के शब्दों में: “यह कलकत्ता के बजाय, एक यूरोपीय शहर ज़्यादा लगता था।”

एक व्यापारिक केंद्र होने के साथ-साथ, सेरामपुर में शैक्षणिक गतिविधियां का भी दौर आया। 19वीं सदी में यहां बैपटिस्ट मिशनरी आ गई। उसने सेरामपुर बैपटिस्ट चर्च, सेरामपुर प्रेस और सेरामपुर कॉलेज की स्थापना की। सन 1827 के रॉयल चार्टर के अनुसार, सेरामपुर कॉलेज को कोपेनहेगन और कील में डेनिश विश्वविद्यालयों की तरह सभी विषयों में डिग्री प्रदान करने का अधिकार मिल गया था। प्रेस ने भारतीय उप-महाद्वीप की 45 भाषाओं में बाइबिल छापी थीं।

नेपोलियन युद्धों (1803-1815) के दौरान सेरामपुर फ़्रासीसियों के लिए एक जासूसी केंद्र बन गया, जो ब्रिटिश व्यापार के विस्तार को लेकर चौकन्ने थे। अंग्रेज़ अपने यूरोपीय प्रतिद्वंदियो की इस साज़िश के बारे में जानते थे। अंग्रेज़ों ने भी उन लोगों के ख़िलाफ़ जवाबी कार्रवाई की । अंग्रेज़ों ने न केवल डेनिश जहाज़ों पर हमले किए,  बल्कि ट्रांक्यूबार और सेरामपुर पर भी क़ब्ज़ा कर लिया था।

अंग्रेज़ो के रहते सेरामपुर एक औद्योगिक शहर के रूप में उभरा, जहां सन 1866 में सहायक कारख़ानों के साथ साथ भारत में दूसरी जूट मिल खुली। सेरामपुर प्रेस, ब्रिटिश क़ब्ज़े के बाद भी फिर से शुरू हुई थी, दुर्भाग्य से उसे सन 1857 में बंद करना पड़ा, क्योंकि अंग्रेज़ों को डर था, कि मिशनरी शिक्षा और साहित्य से स्थानीय लोग नाराज़ हो सकते हैं।

19वीं शताब्दी के अंत तक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के हिस्से के रूप में  सेरामपुर बंगाल में सांस्कृतिक राष्ट्रवादी आंदोलन का एक प्रमुख केंद्र बन गया। यहां कुछ स्वदेशी कारख़ाने, जैसे कि बंग्लक्ष्मी कॉटन मिल्स खुली, जो आज भी काम कर रही है। सन 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद यह पश्चिम बंगाल राज्य के हुगली ज़िले का हिस्सा बन गया।

सेरामपुर के समीप एक गाँव | ब्रिटिश लाइब्रेरी

आज भी डेनमार्क के कब्ज़े वाले क्षेत्रो के अवशेषों के बीच सेरामपुर कॉलेज ( सन 1818 में स्थापित) और सेंट ओलाव चर्च ( सन 1806 में स्थापित) शहर के शैक्षिक और आध्यात्मिक केंद्र हैं। डेनमार्क टेवर्न  (सन1786 में स्थापित) आज भी लोगों के खाने पीने की पसंदीदा जगह है।

सेंट ओलाव गिरिजाघर, सेरामपुर

सन 2008 में कई डेनिश और भारतीय सरकारी संगठनों ने सेरामपुर की खोई हुई विरासत को पुनर्जीवित किया है। इन संगठनों की नवीनतम परियोजनाओं के तहत डेनिश क़ब्रिस्तान की मरम्मत की गई, जहां डेनमार्क, फ़्रांस और पुर्तगाल के कई लोग दफ़्न हैं, और अब ये जनता के लिए खुला हुआ है।

मुख्य चित्र: बैरकपुर से सेरामपुर का दृश्य, ब्रिटिश लाइब्रेरी

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