अमर कथाशिल्पी शरतचन्द्र और भागलपुर

अमर कथाशिल्पी शरतचन्द्र और भागलपुर

भारतीय साहित्य की यह एक अनूठी घटना कही जा सकती है कि इसका एक लेखक जिस शहर में रहकर ज़िंदगी के उतार-चढ़ाओं से गुज़रते हुए अपनी रचनाओं का श्रृजन करता है, वही शहर एक अंतराल के बाद एक खुली किताब की तरह ख़ुद उस लेखक की कहानी बयां करने लगे। यदि आपको कुछ ऐसे अनुभव से रूबरू होना है, तो एक बार आपको भागलपुर आना होगा जहाँ की गलियों में अमर कथाशिल्पी शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की यादें बसी हुई हैं।

भागलपुर, जो बिहार का एक शहर है, में शरतचंद्र का ननिहाल था। यहाँ उन्होंने अपने जीवन के शुरुआती 25 वर्ष गुज़ारे। यहीं उनकी पढ़ाई-लिखाई हुई और यहीं से उनका साहित्यिक सफ़र शुरू हुआ। अपने बचपन और यौवन के दिन भागलपुर में गुजारने वाले शरत् ने जिस शिद्दत से इस शहर को जिया, उसे ऐसी भावप्रवणता के साथ अपनी लेखनी में उतारा कि आज उनकी मृत्यु के 80 वर्ष गुज़र जाने के बाद भी इसके अतीत के झरोखों में झांककर शरत् की ज़िंदगी की किताब को पढ़ा जा सकता है । शरत् के अंतरमन में यह शहर किस हद तक समाया  हुआ है, उसे उनकी देवदास, श्रीकांत, चरित्रहीन, बोड़ो दीदी (बड़ी दीदी) सरीखी कालजयी कृतियों को पढ़कर समझा जा सकता है जिनमें न सिर्फ़ यहाँ का परिवेश, वरन् यहाँ के कई पात्र भी समाहित हैं।

भागलपुर में शरत् का ननिहाल मानिक सरकार मुहल्ले में था जहाँ उनके नाना के घर ‘गांगुली बाड़ी’ के कमरे में आज भी उनका पलंग, कुर्सी-टेबल, क़लम-दवात, लिखने की तख़्ती, गुड़गुड़ी (हुक्का), कोलकाता से उनके द्वारा ख़ुद की तस्वीर आदि सबकुछ सहेजकर रखे हुए हैं जो उनके सादगीपूर्ण जीवन व उनकी रचनाधर्मिता की गवाही दे रहे हैं। आज भी उनके ननिहाल के निकट गंगा बहती है जिसके घाट, उसके किनारे पर बिखरे चांदी-से चमकते बालू के रेत व दियारा, आसपास के बाग़, बग़ीचे और बगान तथा मानिक सरकार मुहल्ले की टेढ़ी-मेढ़ी गलियां, दुर्गाचरण एम.ई. स्कूल व टी.एन.जे. कालेजिएट स्कूल जहाँ शरत् के अपने बंधुओं के साथ किये गये बचपन की शरारतों के क़िस्से दफ़्न हैं।

भागलपुर के मानिक सरकार मुहल्ले में स्थित शरत् का ननिहाल ‘गांगुली बाड़ी’ | शिव शंकर पारिजात

आज भी खंजरपुर मुहल्ले में मुग़लकालीन फ़तेहजंग का मक़बरा तथा चम्पानगर की यमुनिया नदी का इलाक़ा सलामत हैं, जहाँ रात की नीरवता में शरत् की साहित्यिक गोष्ठियां जमती थीं। यहाँ के आदमपुर की तंग गलियों में बेफ़िकरे-से घूमते हुए ‘श्रीकांत’ मिल जायेंगे, तो बूढ़नाथ चौक पर ढ़हे हुए कोठे के मलबों से ‘देवदास’ की ‘चंद्रमुखी’ की पायलों की सिसकियां सुनाई देंगी। शहर भागलपुर आज भी जाने-अनजाने शरत् की यादों को सहेज-समेटकर रखे हुए है।

भागलपुर के खंजरपुर में स्थित मुगलकालीन फतेहजंग का मकबरा, जहाँ जमती थी शरत् की गोष्ठियां | खालिद खान चांद

भारतीय साहित्य के क्षितिज पर शरत् सबसे अधिक लोकप्रिय, सार्वकालिक तथा सबसे अधिक अनुदित लेखक हैं। शरत् अकेले एक ऐसे साहित्यकार हैं जो बांग्ला के लेखक होते हुए भी भाषाओं की सीमा को लांघकर अखिल भारतीय हो गये। उन्हें बंगाल में जितनी लोकप्रियता मिली, उतनी ही ख्याति हिंदी सहित गुजराती, मलयालम व अन्य भाषाओं में मिली।

शरत् की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनकी रचनाओं पर विभिन्न भारतीय भाषाओं में 50 से अधिक फ़िल्में बन चुकी हैं। सिर्फ़ एक उपन्यास ‘देवदास’ पर जहाँ हिंदी में तीन फिल्में (के.एल. सहगल से लेकर दिलीप कुमार, शाहरुख खान अभिनीत एवं पी.सी. बरुआ, बिमल रॉय व संजय लीला भंसाली द्वारा निदेशित), तो बांग्ला, तेलुगु आदि में 16 फ़िल्में बन चुकी हैं। शरतचंद्र की कृतियों की सूची बड़ी लंबी है। उन्होंने देवदास, श्रीकांत, चरित्रहीन, बिराज बहू, परिणिता, बड़ी दीदी, शुभदा सहित 21 उपन्यास लिखे, वहीं चार नाटक, सोलह कहानियों व बारह निबंधों की भी रचना की।

शरत् के उपन्यास ‘देवदास’ को मिली अपार सफलता

शरत् का जन्म पश्चिम बंगाल के हुगली ज़िले के एक छोटे-से गाँव देवानंदपुर में 15 सितम्बर,सन 1876 में हुआ था। पांच वर्ष की उम्र में देवानंदपुर के प्यारी पंडित की पाठशाला में उनका दाख़िला कराया गया था। पिता मोतीलाल के बेफ़िक्र स्वभाव और किसी भी नौकरी में अधिक दिनों तक न टिक पाने की प्रवृत्ति के कारण परिवार दिनोंदिन ग़रीबी के गर्त्त में गिरता चला गया। नताजे में मोतीलाल को देवानंदपुर छोड़कर अपने परिवार के साथ भागलपुर, अपने ससुराल आना पड़ा। उनके श्वसुर अर्थात् शरत् के नाना केदारनाथ गांगुली का आदमपुर के मानिक सरकार मुहल्ले में अपना मकान था।

उनकी गिनती खाते-पीते संभ्रांत बंगाली परिवारों में होती थी। बंगाल के निकट स्थित होने के कारण उन दिनों भागलपुर बंगालियों का गढ़ माना जाता था। शरत् की ही तरह सिने स्टार अशोक कुमार-किशोर कुमार का भी यहाँ ननिहाल था, तो देश की पहली महिला ग्रेजुएट व पहली लेडी डॉक्टर कादम्बिनी गांगुली, देश में मुस्लिम बालिकाओं के लिये पहला गर्ल्स स्कूल खोलनेवाली बेगम रूक़ैया सख़ावत हुसैन, महर्षि अरविंद के पिता के.डी. घोष सरीखी हस्तियां भी यहीं के थीं।

देवबन्दपुर, हुगली में शरतचंद्र की जन्मस्थली | विकिमीडिया कॉमन्स

सन् 1883 में शरत् का दाख़िला भागलपुर के दुर्गाचरण एम.ई. स्कूल के छात्रवृत्ति क्लास में कराया गया। उनके नाना के कई भाई थे, इस कारण उनके मामा और मामियों की संख्या काफ़ी थी जिनके साथ उनकी काफ़ी अंतरंगता थी। सभी संयुक्त परिवार में एक साथ रहते थे। पर छोटे नाना अघोरनाथ के बेटे मणिन्द्र नाथ और मामा सुरेंद्र नाथ के साथ उनकी ज़्यादा बनती थी।

शरत् का बचपन ग़रीबी और अभावों से ग्रस्त था, पर उन्होंने कभी इसकी फ़िक्र नहीं की। रुढ़िवादी संभ्रांत गांगुली परिवार में पतंगें उड़ाना जैसे  खेल वर्जित थे। पर शरत् को पतंग उड़ाना, कंचे व गुल्ली-डंडे खेलना, लट्टू घुमाना सरीखे खेल अत्यंत प्रिय थे। ननिहाल के उत्तर में बहनेवाली गंगा के दृश्यों को घंटों बैठकर निहारना,  टूटे गुम्बदों से नदी में छलांग लगाना, तट पर बंधे मल्लाहों की नौकाओं को चुपके से खोलकर नदी-विचरण करना, दियारा की सैर करना शरत् की दिनचर्या थी। पास के बाग़-बग़ीचे से फल चुराना और फूल-पत्तियां इकट्ठे करना, सपेरों द्वारा जड़ी सुंघाकर सांप भगाने के  तमाशे देखना, आदि उनके बचपन के शग़ल थे। शरत् के देवदास, श्रीकांत, सत्यसांची, दुर्दांत राम सरीखे पात्रों में झांके, तो उनके बचपन की इन शरारतों की छाप सहजता से दिख जायेगी।

भागलपुर की गंगा जिसके साथ जुड़े थे शरत् के बचपन के अनमोल दिन | शशि शंकर

शरत् के साहित्य की यह ख़ासियत यही रही कि उनके द्वारा वर्णित अधिकांशतः चरित्र कल्पना प्रसूत न होकर उनकी वास्तविक जीवन यात्रा से जुड़े पात्र रहे हैं, इस कारण उनमें अद्भुत स्वाभाविकता और मार्मिकता है। यही कारण है कि उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘देवदास’ में उनके स्कूल की सहपाठिन जहाँ पारो (पार्वती) के रूप में अवतरित हुई, तो भागलपुर को बदनाम बस्ती मंसूरगंज की नर्तकी कालीदासी ने चंद्रमुखी का रूप धारण किया तो नाना के घर का नौकर धर्मदास के  चरित्र का आधार बना। भागलपुर में अपने पिता मोतीलाल की एक घर-जंवाई के रूप में भोगी हुई पीड़ा को उन्होंने अपनी रचना ‘काशीनाथ’ में रूपायित किया।

भागलपुर के तत्कालीन आयकर आयुक्त और शरत् के साहित्यिक मित्र सुरेन्द्र नाथ मजूमदार के छोटे भाई राजेंद्र नाथ मजूमदार के चरित्र का वर्णन ‘श्रीकांत’ उपन्यास में इन्द्रनाथ के रूप में आया है। शरत् के कहानीकार मित्र विभूतिभूषण भट्टी की छोटी बहन निरुपमा देवी बाल-विधवा थीं जिनकी पीड़ा को शरत् ने नज़दीक से महसूस किया था। इस कारण उनके साहित्य में बाल-विधवा प्रसंग  प्रमुख रूप से हैं।

जिस काल में शरत् भागलपुर में थे, उस समय तक बंगाल में नवजागरण, प्रगति और नवोत्थान की लहर परवान चढ़ रही थी। बंकिम चन्द्र बनर्जी का ‘बंग दर्शन’  नवयुग का सूचक बन युवकों में तेज़ी से प्रसारित हो रहा था। लेकिन उस समय का भागलपुर का बंग-समाज अंधविश्वास और कुविश्वासों से घिरा था और बिहार के अन्य भागों की बनिस्पत यहाँ के गांगुली परिवार ज़्यादा कट्टर थे, जिनकी अगुआई कर रहे थे शरत् के नाना केदारनाथ गंगोपाध्याय। लेकिन इसी गांगुली परिवार में केदारनाथ के चौथे भाई अमरनाथ गांगुली ‘नवयुग’ की धारा से प्रभावित थे। कट्टर गांगुली परिवार में अमरनाथ की अप्रतिष्ठा थी, पर शरत् उनसे प्रभावित थे।

दुर्भाग्यवश अमरनाथ की मृत्यु अल्पायु में ही हो गयी जिसकी कमी छोटे नाना अघोरनाथ की पत्नी कुसुमकामिनी ने पूरी की। गृहस्थी के काम से फ़ुर्सत मिलने पर उनके घर की छत पर छोटी-मोटी गोष्ठी जमती थी और बंगदर्शन के अतिरिक्त मृणालिनी, वीरांगना, बृजांगना, आंख की किरकिरी सरीखी युगांतरकारी रचनाओं के पाठ होते थे। शरत् की इन गोष्ठियों में बराबर की उपस्थिति रहती थी। वास्तव में छात्र शरत् की शिक्षा का आदिपर्व कुसुमकामिनी की पाठशाला में शूरू हुआ और अपराजेय कथाशिल्पी शरतचंद्र का निर्माण भी उनके योगदान से ही हुआ।

पिता के निठल्लेपन के कारण शरत् की पारिवारिक स्थितियां ऐसी हो गयी कि तीन वर्ष भागलपुर में नाना के घर में रहने के बाद उन्हें फिर देवानंदपुर वापस आना पड़ा। यहाँ दो कोस पैदल चलकर स्कूल जाना पड़ता था। दरिद्रता और अपमान से परिवार छिन्न-भिन्न हो गया था। अपनी व्यथा छोटे काका अघोरनाथ को लिख भेजी, तो उन्होंने कहा भागलपुर वापस आ जाओ।

सन 1891  में जब शरत् देवानंदपुर से भागलपुर लौटे तो उनके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका पास कर चुके थे। पैसे के अभाव में शरत् देवानंदपुर के स्कूल से ट्रांसफ़र सर्टिफि़िकेट नहीं ले पाये थे, इस कारण यहां स्कूल में दाख़िला पाना और उस वर्ष परीक्षा देना संभव नहीं हो रहा था। पर मामा पचकौड़ी बन्दोपाध्याय की पहल पर प्रधानाध्यापक चारूचंद्र बसु ने उनका दाखिला टी. एन. जे. कालेजिएट स्कूल में कर लिया। परिस्थितियों के मारे शरत् अब अपनी पढ़ाई में गंभीर हो गये थे। स्कूल की लाइब्रेरी में रखी बड़े लेखकों की कृतियां पढ़ने लगे थे। पर फिर से धीरे-धीरे पुराने मित्रों का जमावड़ा भी लगने लगा था।

उन दिनों नयी सभ्यता के आग़ाज़ के साथ भागलपुर के बंगाली समाज में यूरोप से डिग्री लेकर वापस आए ,खुले विचारोंवाले राजा शिवचंद्र बनर्जी के पुत्र सतीशचंद्र के संयोजन में थियेटर का उदय हुआ। शास्त्र सम्मत गांगुली परिवार के युवकों को राजा शिवचंद्र बनर्जी से मिलने की मनाही थी। पर गांगुली परिवार का शासन शरत् को रोक न सका। वे बांसुरी, बेहाला, हारमोनियम, तबला आदि बजाने में पारंगत थे, सो सहजता से नाटक मंडली में उनका प्रवेश हो गया। बाद में शरत् के प्रयास से एक नये थियेटर ‘आदमपुर क्लब’ का जन्म हुआ जिसके कई नाटकों में उन्होंने भूमिका भी निभाई।

शरतचंद्र पर जारी डाक टिकट

अब धीरे-धीरे शरत् की साहित्यिक गतिविधियां परवान चढ़ने लगीं थीं। मामा गिरीन्द्र नाथ के सम्पादन में हस्तलिखित पत्रिका ‘शिशु’ का प्रकाशन शुरू हुआ। अगस्त, सन 1900 में शरत् की पहल पर ‘साहित्य गोष्ठी’ नामक संस्था की स्थापना हुई जिसके प्रमुख सदस्यों में उनके मामा सुरेंद्र नाथ, गिरीन्द्र नाथ और सब-जज नफर भट्ट के पुत्र विभूतिभूषण भट्ट के नाम थे। विभूतिभूषण की विधवा बहन निरूपमा देवी भी इसकी सदस्या थीं जो अपनी रचनाओं के माध्यम से शिरकत करती थीं।

भागलपुर के ख़ंजरपुर में स्थित विभूतिभूषण के मकान के पश्चिम गंगा के किनारे मुग़लकालीन सिपहसालार फ़तेहजंग का मक़बरा था जिसकी छत काफ़ी लम्बी-चौड़ी थी। उसी पर दरी बिछाकर रात में शरत् की गोष्ठियां जमती थीं। कभी-कभी चम्पानगर के जमुनिया नदी (गंगा की एक शाखा) के किनारे भी उनकी बैठकी लगती थी।

शरत् की इस साहित्यिक गोष्ठी में एक बार सतीशचंद्र के संपादन में हस्तलिखित पत्रिका ‘आलो’ निकालने की योजना बनी। पर सतीशचंद्र की असामयिक मृत्यु हो जाने पर उनकी स्मृति में योगेंद्र चंद्र मजूमदार के सम्पादन में दूसरी हस्तलिखित पत्रिका ‘छाया’ का प्रकाशन शुरु हुआ जिसकी कुछ ही दिनों में धूम मच गयी। शरत् की कई रचनाएं इसमें प्रकाशित हुईं।  इस गोष्ठी के कई सदस्य आगे चलकर ख्यातिप्राप्त कहानीकार व उपन्यासकार बने। भागलपुर के आदमपुर में ‘बंग साहित्य परिषद्’ की स्थापना के पीछे शरत् के साहित्य सभा की ही प्रेरणा थी।

इस तरह भागलपुर में न सिर्फ़ शरत् का बचपन बीता और शिक्षा-दीक्षा हुई, वरन् यहीं से उनकी साहित्यिक यात्रा भी शुरू हुई। यहीं से प्रेषित उनकी कहानी को उस समय का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ‘कुन्तलीन पुरूस्कार’ मिला। यहीं रहकर उन्होंने अपनी प्रख्यात रचना ‘बोड़ो दीदी’ (बड़ी दीदी) लिखी थी जिसका वर्ष 1907 में बांग्ला की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘भारती’ में प्रकाशित हुई जिससे शरत् की साहित्यिक प्रतिभा की ओर गंभीरता से लोगों का ध्यान आकर्षित हुआ। बोड़ो दीदी के प्रकाशन के बाद बांग्ला साहित्य-जगत में  दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। एक तो बांग्ला साहित्यिक गतिविधियों के केंद्र के रूप में कोलकाता के साथ भागलपुर का नाम प्रखरता से उभरा और दूसरी घटना समकालीन प्रचलित ‘लीक’ से हटकर बांग्ला साहित्य के ‘कथ्य’ और ‘तथ्य’ में एक अनूठी सहज ग्राह्य शैली और एक नयी मानवीय ‘दृष्टि’ का समावेश हुआ। इसके पूर्व 19 वीं शताब्दी के प्रारंभिक काल में सिर्फ़ कोलकाता ही बांग्ला साहित्यिक गतिविधियों के केंद्र में स्थापित था।

शरत् के साहित्य की ख़ासियत यह रही कि तत्कालीन संभ्रांत समाज के लोगों द्वारा विधवा और परित्यक्त महिलाओं, वेश्याओं आदि को समाज के हाशिये पर डालकर उपेक्षित जीवन जीने को मजबूर कर दिया गया था, उनके अंतर में झांककर यह बताया कि उनके जीवन में भी आदर्श व मर्यादा हैं। तत्कालीन समाज के तथाकथित संभ्रांतों ने भले ही शरत् की इस मुहिम का विरोध किया, पर कालांतर में यही उनके साहित्य की मुख्य विशेषता बनी। उनका यह मानना था कि मानव और साहित्य का सही मूल्यांकन जीवन के विरोधाभासों और नीचाईयों के भीतर झांककर हो सकता है, केवल अच्छाई या बुराई में से उसे पहचानकर चलने की चालू प्रवृत्ति से नहीं।

अमर साहित्यकार शरत् की जीवनी बांग्ला और हिंदी सहित विभिन्न भाषाओं में लिखी गयी है पर जितनी लोकप्रियता यशश्वी लेखक विष्णु प्रभाकर रचित उनकी जीवनी ‘आवारा मसीहा’ को मिली, उसका कोई जोड़ नहीं। इस सफलता के मूल में भी भागलपुर की ही भूमिका रही। विष्णु प्रभाकर ने शरत् के वैविध्यपूर्ण जटिल जीवन की खोज में अपने जीवन के 14 वर्ष झोंक दिये। उन्होंने अपने लेखन की शुरुआत भागलपुर से की।

विष्णु प्रभाकर रचित शरत् की सुप्रसिद्ध जीवनी ‘आवारा मसीहा’,

विष्णु प्रभाकर शरत् की मृत्यु के मात्र 35 वर्ष बाद  सन 1959  में भागलपुर आये थे जब शरत् से जुड़े और उन्हें नज़दीकी से जानने वाले कई लोग जीवित थे। यहाँ उन्होंने शरत् के मामा सुरेन्द्र नाथ के पुत्र रवीन्द्र गांगुली, पूर्णेन्दु गांगुली, बचपन के मित्र फनीन्द्र नाथ मुखर्जी, चंडीचरण घोष, चंद्रशेखर घोष, निरूपमा देवी, बांग्ला के प्रसिद्ध लेखक भागलपुर निवासी बनफूल सहित कई लोगों से मिलकर जानकारियां इकट्ठी कीं। स्थानीय सुधी पत्रकार बंकिमचंद्र बनर्जी से मिलकर शरत् के जीवन से जुड़े विभिन्न स्थानों व पहलूओं से तथा उनके कथापात्रों से रूबरू होकर विषय की तह तक जाकर एक सूत्र में पिरोया। तब जाकर तैयार हुई थी कालजयी शरत्-जीवनी ‘आवारा मसीहा’!

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